श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1012 मारू महला १ ॥ हुकमु भइआ रहणा नही धुरि फाटे चीरै ॥ एहु मनु अवगणि बाधिआ सहु देह सरीरै ॥ पूरै गुरि बखसाईअहि सभि गुनह फकीरै ॥१॥ किउ रहीऐ उठि चलणा बुझु सबद बीचारा ॥ जिसु तू मेलहि सो मिलै धुरि हुकमु अपारा ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ तू राखहि तिउ रहा जो देहि सु खाउ ॥ जिउ तू चलावहि तिउ चला मुखि अम्रित नाउ ॥ मेरे ठाकुर हथि वडिआईआ मेलहि मनि चाउ ॥२॥ कीता किआ सालाहीऐ करि देखै सोई ॥ जिनि कीआ सो मनि वसै मै अवरु न कोई ॥ सो साचा सालाहीऐ साची पति होई ॥३॥ पंडितु पड़ि न पहुचई बहु आल जंजाला ॥ पाप पुंन दुइ संगमे खुधिआ जमकाला ॥ विछोड़ा भउ वीसरै पूरा रखवाला ॥४॥ जिन की लेखै पति पवै से पूरे भाई ॥ पूरे पूरी मति है सची वडिआई ॥ देदे तोटि न आवई लै लै थकि पाई ॥५॥ खार समुद्रु ढंढोलीऐ इकु मणीआ पावै ॥ दुइ दिन चारि सुहावणा माटी तिसु खावै ॥ गुरु सागरु सति सेवीऐ दे तोटि न आवै ॥६॥ मेरे प्रभ भावनि से ऊजले सभ मैलु भरीजै ॥ मैला ऊजलु ता थीऐ पारस संगि भीजै ॥ वंनी साचे लाल की किनि कीमति कीजै ॥७॥ भेखी हाथ न लभई तीरथि नही दाने ॥ पूछउ बेद पड़ंतिआ मूठी विणु माने ॥ नानक कीमति सो करे पूरा गुरु गिआने ॥८॥६॥ {पन्ना 1012} पद्अर्थ: भइआ = (जब) हो जाता है। धुरि = धुर से, परमात्मा की हजूरी से। चीरी = चिट्ठी। फाटे चीरै = अगर चिट्ठी फट जाए। (नोट: हमारे देश का रिवाज है कि किसी की मौत की खबर भेजने के वक्त चिट्ठी एक तरफ से थोड़ी सी फाड़ दी जाती है)। सहु = सह, बर्दाश्त कर। देह = शरीर। देह सरीरै = शरीर पर। गुरि = गुरू के द्वारा। सभि = सारे। गुनहु = गुनाह, पाप। बखसाईअहि = बख्शाए जाते हैं। फकीरै = फकीर के, मंगते के, उस मनुष्य के जो प्रभू के दर से मेहर की दाति माँगे।1। किउ रहीअै = नहीं रह सकते। अपारा = हे अपार! हे बेअंत प्रभू!।1। रहाउ। रहा = मैं रहता हूँ। खाउ = मैं खाता हूँ। चला = मैं (जीवन राह पर) चलता हूँ। मुखि = मुँह में (डालता हूँ)। अंम्रित नाउ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। हथि = हाथ में। मनि = मन में। चाउ = तमन्ना।2। करि = पैदा कर के। देखै = संभाल करता है। जिनि = जिस परमात्मा ने। मै = मुझे।3। आल जंजाला = (आलय = घर) घर के धंधे। दुइ = द्वै, दुबिधा। संगमे = साथ। खुधिआ = (माया की) भूख।4। पति = इज्जत। भाई = हे भाई! दे = दे के। तोटि = घाटा। थकि पाई = जीव थक जाता है।5। खार = खारा। मणीआ = रतन। पावै = पा लिए। तिसु = उस (मणी) को। गुरु सागरु सति = सतिगुरू समुंद्र। दे = देता है।6। से = वह लोग। ऊजले = पवित्र। सभ = सारी दुनिया। ता = तब। थीअै = होता। संगि = साथ। वंनी = रंग। साचे = सदा स्थिर की। किनी = किस ने? किस ओर से? कीजै = की जा सकती है।7। भेख = भेष धारण करने से। हाथ = गहराई। तीरथि = तीर्थ पर (स्नान करने से)। दाने = दान से। पूछउ = मैं पूछता हूँ। मूठी = (सारी दुनिया) ठगी जा रही है। माने = माने। विणु माने = बिना माने, जब तक मन नहीं मानता। कीमति = कद्र।8। अर्थ: (हे भाई! अभी-अभी वक्त है) गुरू के शबद की विचार समझ, (यहाँ सदा) टिके नहीं रहा जा सकता, (जब प्रभू का हुकम आया तब) यहाँ से चलना ही पड़ेगा। (पर, हे प्रभू! जीवों के क्या वश?) हे बेअंत प्रभू! तुझे वही मनुष्य मिल सकता है जिसको तू स्वयं मिलाए, धुर से तेरा (ऐसा ही) हुकम है (ऐसी ही रज़ा है)।1। रहाउ। जब (परमात्मा का) हुकम हो जाता है जब (किसी की) चिट्ठी धुर (दरगाह) से फाड़ दी जाती है, तो वह (इस संसार में) नहीं रह सकता। (हे भाई! जब तक तेरा) ये मन अवगुणों (की फाही) में बँधा हुआ है (तब तक अपने इस) शरीर में (दुख) सह। जो मनुष्य पूरे गुरू के द्वारा परमात्मा के दर का मँगता बनता है उसके सारे गुनाह बख्शे जाते हैं।1। (पर, हम जीवों के वश की बात नहीं) हे प्रभू! जिस हालत में तू मुझे रखता है, मैं उसी हालत में रह सकता हूँ, जो (आत्मिक खुराक) तू मुझे देता है मैं वही खाता हूँ। (आत्मिक जीवन के रास्ते पर) जिस तरह तू मुझे चलाता है मैं उसी तरह चलता हूँ, और अपने मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम डालता हूँ। हे मेरे ठाकुर! तेरे अपने हाथ में वडिआईआँ (आदर-मान) हैं (जिसको तू वडिआई बख्शता है जिसको तू अपने चरणों में) जोड़ता है उसके मन में (तेरी भक्ति का) चाव पैदा हो जाता है।2। (परमात्मा की सिफत-सालाह छोड़ के परमात्मा के) पैदा किए हुए की वडिआई करने से कोई (आत्मिक) लाभ नहीं होगा (वडिआई उस करतार की करो) जो (जगत-रचना) कर के स्वयं ही (उसकी) संभाल करता है। जिस करतार ने जगत रचा है वही (मेरे) मन में बसता है। मुझे उस जैसा और कोई नहीं दिखाई देता। उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा की ही सिफत-सालाह करनी चाहिए (जो करता है उसको) सदा के लिए आदर मिल जाता है।3। पंडित (शास्त्र, पुराण आदि धर्म-पुस्तकें सिर्फ) पढ़ के (उस अवस्था पर) नहीं पहुँचता (जहाँ परमात्मा से विछोड़ा समाप्त हो जाए, क्योंकि पढ़-पढ़ के भी) वह माया के जंजालों में बहुत फसा रहता है। (धर्म-शास्त्रों के अनुसार) पाप क्या है औरा पुन्य क्या है ये विचार करता हुआ भी वह द्वैत के फंदे में ही रहता है, माया की भूख और आत्मिक मौत (मौत का डर) उसके सिर पर कायम रहते हैं। परमात्मा के चरणों से विछोड़ा और सहम उस मनुष्य का ही खत्म होता है जिसके मन में हर तरह से रक्षा करने वाला परमात्मा बसा रहता है।4। हे भाई! किए कर्मों का हिसाब होने पर जिन्हें इज्जत मिलती है वह सम्पूर्ण बर्तन समझे जाते हैं। ऐसे संपूर्ण गुणवान मनुष्य को परमात्मा के दर से मति भी पूरी ही मिलती है (जिसके कारण वह भूलने वाले जीवन के राह पर नहीं पड़ता) और सदा-स्थिर रहने वाली इज्जत प्राप्त होती है। (वह परमात्मा बेअंत दातों का मालिक है, जीव को) सदा देता है (उसके खजाने में) घाटा नहीं पड़ता, जीव दातें ले ले के थक जाता है।5। (इस बात की बहुत उपमा की जाती है कि देवताओं ने समुंद्र मथा और उसमें से चौदह रत्न निकले, भला) अगर खारा समुंद्र मथने से, उसमें से कोई मनुष्य रत्न ढूँढ ले (तो भी आखिर कौन सी बड़ी बात कर ली? वह रतन) दो-चार दिन ही सुंदर लगता है (अंत में) उस रत्न को कभी ना कभी मिट्टी ही खा जाती है। (सतिगुरू असल समुंद्र है) अगर सतिगुरू" समुंद्र को सेवा जाए (अगर गुरू-समुंद्र की शरण पड़ें, तो गुरू-समुंद्र ऐसा नाम-रत्न) देता है जिसमें कभी भी कमी नहीं आ सकती।6। सारी दुनिया (माया के मोह की) मैल से भरी हुई है। सिर्फ वह लोग साफ-सुथरे हैं जो परमात्मा को प्यारे लगते हैं। (माया के मोह से) मलीन-मन हुआ आदमी तब ही पवित्र हो सकता है जब वह गुरू पारस की संगति में रह के (परमात्मा के नाम-अमृत से) भीगता है। सदा-स्थिर प्रभू-लाल का नाम-रंग उसको ऐसा चढ़ता है कि किसी भी तरफ से उसका मूल्य नहीं पड़ सकता।7। पर उस नाम-रंग की गहराई बाहरी धार्मिक पहिरावों से नहीं पाई जा सकती, तीर्थ पर स्नान करने से दान-पून्य करने से नहीं मिलती। मैं बेद पढ़ने वालों से ये भेद पूछता हूँ (धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से नाम-रंग की गहराई की समझ नहीं पड़ती)। जब तक नाम-रंग में मन नहीं डूबता (मन नहीं भीगता तब तक सारी दुनिया ही माया-मोह में) ठॅगी जा रही है। हे नानक! नाम-रंग की कद्र वही मनुष्य करता है जिसको पूरा गुरू मिलता है और (गुरू के माध्यम से परमात्मा के साथ) गहरी सांझ मिलती है।8।6। मारू महला १ ॥ मनमुखु लहरि घरु तजि विगूचै अवरा के घर हेरै ॥ ग्रिह धरमु गवाए सतिगुरु न भेटै दुरमति घूमन घेरै ॥ दिसंतरु भवै पाठ पड़ि थाका त्रिसना होइ वधेरै ॥ काची पिंडी सबदु न चीनै उदरु भरै जैसे ढोरै ॥१॥ बाबा ऐसी रवत रवै संनिआसी ॥ गुर कै सबदि एक लिव लागी तेरै नामि रते त्रिपतासी ॥१॥ रहाउ ॥ घोली गेरू रंगु चड़ाइआ वसत्र भेख भेखारी ॥ कापड़ फारि बनाई खिंथा झोली माइआधारी ॥ घरि घरि मागै जगु परबोधै मनि अंधै पति हारी ॥ भरमि भुलाणा सबदु न चीनै जूऐ बाजी हारी ॥२॥ अंतरि अगनि न गुर बिनु बूझै बाहरि पूअर तापै ॥ गुर सेवा बिनु भगति न होवी किउ करि चीनसि आपै ॥ निंदा करि करि नरक निवासी अंतरि आतम जापै ॥ अठसठि तीरथ भरमि विगूचहि किउ मलु धोपै पापै ॥३॥ छाणी खाकु बिभूत चड़ाई माइआ का मगु जोहै ॥ अंतरि बाहरि एकु न जाणै साचु कहे ते छोहै ॥ पाठु पड़ै मुखि झूठो बोलै निगुरे की मति ओहै ॥ नामु न जपई किउ सुखु पावै बिनु नावै किउ सोहै ॥४॥ मूंडु मुडाइ जटा सिख बाधी मोनि रहै अभिमाना ॥ मनूआ डोलै दह दिस धावै बिनु रत आतम गिआना ॥ अम्रितु छोडि महा बिखु पीवै माइआ का देवाना ॥ किरतु न मिटई हुकमु न बूझै पसूआ माहि समाना ॥५॥ हाथ कमंडलु कापड़ीआ मनि त्रिसना उपजी भारी ॥ इसत्री तजि करि कामि विआपिआ चितु लाइआ पर नारी ॥ सिख करे करि सबदु न चीनै ल्मपटु है बाजारी ॥ अंतरि बिखु बाहरि निभराती ता जमु करे खुआरी ॥६॥ सो संनिआसी जो सतिगुर सेवै विचहु आपु गवाए ॥ छादन भोजन की आस न करई अचिंतु मिलै सो पाए ॥ बकै न बोलै खिमा धनु संग्रहै तामसु नामि जलाए ॥ धनु गिरही संनिआसी जोगी जि हरि चरणी चितु लाए ॥७॥ आस निरास रहै संनिआसी एकसु सिउ लिव लाए ॥ हरि रसु पीवै ता साति आवै निज घरि ताड़ी लाए ॥ मनूआ न डोलै गुरमुखि बूझै धावतु वरजि रहाए ॥ ग्रिहु सरीरु गुरमती खोजे नामु पदारथु पाए ॥८॥ ब्रहमा बिसनु महेसु सरेसट नामि रते वीचारी ॥ खाणी बाणी गगन पताली जंता जोति तुमारी ॥ सभि सुख मुकति नाम धुनि बाणी सचु नामु उर धारी ॥ नाम बिना नही छूटसि नानक साची तरु तू तारी ॥९॥७॥ {पन्ना 1012-1013} पद्अर्थ: मनमुख = वह व्यक्ति जिसने अपना मुँह अपने मन की ओर किया हुआ है, अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति। लहरि = (त्याग की) लहर, (त्याग का) जोश। तजि = त्याग के। विगुचै = दुखी होता है। अवरा के = औरों के। हेरै = ताकता है। (नोट: शब्द 'घरु' और 'घर' में फर्क है)। ग्रिह धरमु = गृहस्त का फर्ज। भेटै = मिलता है। घूमन घेरै = चक्रवात में (फस जाता है)। दिसंतरु = देश देश अंतर, और और देश। पढ़ि = पढ़ के। त्रिसना = तृष्णा, माया की लालच। काची पिंडी = होछी मति देने वाला। उदरु = पेट। ढोर = पशू।1। बाबा = हे प्रभू! रवत रवै = रहित रहे। सबदि = शबद से। नामि = नाम में। रते = रंगे जा के। त्रिपतासी = तृप्त हो गया, माया की तृष्णा की ओर से तृप्ति।1। रहाउ। गेरू = गेरी। भेख = साधूओं वाले पहरावे। भेखारी = मंगता। फारि = फाड़ के। खिंथा = गोदड़ी। माइआधारी = (अन्न आटा आदि) माया डालने के लिए झोली। परबोधै = उपदेश करता है। मनि = मन से। मनि अंधै = अंधे मन से, मन (माया के मोह में) अंधा होने के कारण। पति = इज्जत। हारी = गवा ली।2। न बूझै = नहीं समझती। पूअर = धूणियाँ। तापै = तपाता है, जलाता है। चीनसि = पहचाने। आपै = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। अंतरि आतम = अपने आप के अंदर। जापै = (उसको) सूझता है, दिखाई देता है। अठसठि = अढ़सठ। विगूचहि = दुखी होते हैं। पापै = पाप की।3। बिभूत = राख। चढ़ाई = (शरीर पर) मल ली। मगु = रास्ता। जोहै = ताकता है। छोहै = खिझता है। झूठो = झूठ ही। ओहै = वह पहली ही। जपई = जपता है। सोहै = शोभा देता है।4। मूंडु = सिर। मुडाई = मुना के। सिख = शिखा, चोटी। मोनि रहै = चुप साध के रखता है। दह = दस। दिस = दिशाएं। धावै = दौड़ता है, भटकता है। रत = रंगा हुआ। बिख = जहर (जो आत्मिक मौत लाता है)। देवाना = पागल, आशिक। किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह।5। हथि = हाथ में। कमंडलु = चिप्पी। कापड़ीआ = कपड़े की लीरों का चोला पहनने वाला साधू। मनि = मन में। तजि = छोड़ के। कामि = काम वासना तहित। विआपिआ = प्रभावित हो गया। सिख = (अनेकों) सेवक। लंपटु = (माया में, विकार में) खचित। बाजारी = मसखरा। निभराती = भटकना का अभाव, शांति। खुआरी = दुर्गती।6। आपु = स्वै भाव। छादन = कपड़ा। अचिंतु = सहज सुभाय, चिंता किए बिना। खिमा = दूसरों की ज्यादती सहने का स्वभाव। संग्रहै = इकट्ठा करता है। तामसु = तमो गुण, क्रोध। नामि = नाम से। धनु = भाग्यशाली। गिरही = गृहस्ती।7। ऐकसु सिउ = सिर्फ एक (परमात्मा) से। लिव = लगन। निज घरि = अपने घर में, उस घर में जो सदा अपना है। वरजि = रोक के। रहाऐ = रखे। ग्रिहु = घर। पदारथु = सरमाया।8। महेसु = शिव। सरेसट = श्रेष्ठ, सबसे उक्तम। नामि रते = परमात्मा के नाम में रंगे हुए। वीचारी = विचारवान। खाणी = जगत उत्पक्ति की चार खानें = अंडज, जेरज, सेतज और उत्भुज (1. अंडज = अण्डों से पैदा होने वाले जीव पंक्षी आदि; 2. जेरज = ज्योर से पैदा होने, पशु मनुष्य। 3. सेतज = पसीने से और धरती की हुमस से पैदा होने वाला, जूएँ, आदि। 4.उत्भुज = धरती से पैदा होने वाले वृक्ष आदि)। बाणी = बोली, सब देशों के जीवों की अलग अलग बोलियाँ। गगन = आकाश। पताली = पातालों में। सभि = सारे। मुकति = माया के बँधनों से मुक्ति। नाम धुनि = नाम की रौंअ। बाणी = प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। उर धारी = हृदय में टिका। उर = हृदय। नही छूटसि = मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। साची तारी = वह तैरना जो सदा स्थिर रहे, ऐसा तैरना जिसमें डूबने का खतरा ना रहे।9। अर्थ: हे प्रभू! असल सन्यासी वह है जो ऐसा जीवन जीए कि गुरू के शबद में जुड़ के उसकी लगन एक (तेरे चरणों) में लगी रहे। तेरे नाम-रंग में रंग के (माया की ओर से) उसे सदा तृप्ति रहेगी।1। रहाउ। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (त्याग के) जोश में अपना घर त्याग के (फिर रोटी आदि की खातिर) औरों के घर ताकता फिरता है। गृहस्त निभाने का फर्ज (किरत करनी) छोड़ देता है (इस गलत त्याग से उसको) सतिगुरू (भी) नहीं मिलता, और अपनी दुर्मति के चक्रवात में (गोते खाता है)। (अपना घर छोड़ के) और और देशों (का) रटन करता फिरता है, (धर्म-पुस्तकों के) पाठ पढ़-पढ़ के भी थक जाता है, (पर माया की) तृष्णा (खत्म होने की जगह बल्कि) बढ़ती जाती है। होछी मति वाला (मनमुख) गुरू के शबद को नहीं विचारता, (और लोगों के घरों से बग़ैर काम काज वाले) पशुओं की तरह अपना पेट भरता है।1। मनमुख बंदा गेरूआ घोलता है, उसका रंग (अपने कपड़ों पर) चढ़ाता है, धार्मिक पहरावे वाले कपड़े पहन के भिखारी बन जाता है। कपड़े फाड़ के (पहनने के लिए) गुदड़ी बनाता है, और (अन्न आटा आदि) माया डालने के लिए झोली (तैयार कर लेता है)। (खुद तो) हरेक घर में (जा के भिक्षा) माँगता है पर जगत को (सत-धर्म का, गृहस्त मार्ग वाला) उपदेश करता है, अपना मन अंधा होने के कारण मनमुख अपनी इज्जत गवा लेता है। भटकना में (पड़ कर जीवन-राह से) विछुड़ा हुआ गुरू के शबद को पहचानता नहीं (जैसे कोई जुआरी) जूए में बाज़ी हारता है (वैसे ही यह मनमुख अपनी मानस जनम की बाज़ी हार जाता है)।2। (अपनी ओर से त्यागी बने हुए मनमुख के) मन में तृष्णा की (जलती) आग गुरू के बिना बुझती नहीं, पर बाहर धूणियाँ तपाता है। गुरू की बताई हुई सेवा किए बिना परमात्मा की भक्ति हो नहीं सकती (यह मनमुख) अपने आत्मिक जीवन को कैसे पहचाने? वैसे अंतरात्मे इसको समझ आ जाती है कि (किरती गृहस्तियों की) निंदा कर करके नरकी जीवन व्यतीत कर रहा है। अढ़सठ तीर्थों पर भटक के भी (मनमुख त्यागी) दुखी होते हैं, (तीर्थों पर जाने से) पापों की मैल कैसे धुल सकती है?।3। (लोक दिखावे के लिए) राख छानता है और वह राख अपने शरीर पर मल लेता है, पर (अंतरात्मे) माया का रास्ता ताकता रहता है (कि कोई गृहस्ती दानी आ के माया भेट करे)। (बाहर से और व अंदर से और होने के कारण) अपने अंदर और बाहर जगत में एक परमात्मा को (व्यापक) नहीं समझ सकता, (अगर) ये सच्चा वाक्य उसको कहें तो वह खीझता है। (धर्म-पुस्तकों का) पाठ पढ़ता (तो) है पर मुँह से झूठ ही बोलता है, गुरू हीन होने के कारण उसकी मति उस पहले जैसी ही रहती है (भाव, बाहरी तौर पर त्याग करने से उसके आत्मिक जीवन में कोई बदलाव नहीं पड़ता)। जब तक परमात्मा का नाम नहीं जपता तब तक आत्मिक आनंद नहीं मिलता, प्रभू-नाम के बिना जीवन सुचज्जा (सदाचारी) नहीं बन सकता।4। कोई सिर मुनवा लेता है, कोई जटाओं का जूड़ा बना लेता है, और मौन धार के बैठ जाता है (इन सारे भेषों का) घमण्ड (भी करता है)। पर आत्मिक तौर पर प्रभू के साथ गहरी सांझ के रंग में रंगे जाने के बिना उसका मन डोलता रहता है, और (माया की तृष्णा में ही) दसों-दिशाओं में दौड़ता-फिरता है। (अंतरात्मे) माया का प्रेमी (होने के कारण) परमात्मा का नाम-अमृत छोड़ देता है और (तृष्णा का वह) जहर पीता रहता है (जो इसके आत्मिक जीवन को मार डालता है)। (पर, इस मनमुख के भी क्या वश?) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह (अंदर से) समाप्त नहीं होता, (उन संस्कारों के असर तले जीव) परमात्मा की रजा को नहीं समझ सकता, (इस तरह, त्यागी बन के भी) पशु-स्वभाव में टिका रहता है।5। (मनमुख मनुष्य त्यागी बन के) हाथ में कमण्डल पकड़ लेता है, कपड़े की लीरों का चोला पहन लेता है, पर मन में माया की भारी तृष्णा पैदा हुई रहती है (अपनी ओर से त्यागी बन के) अपनी स्त्री छोड़ के आए को काम-वासना ने आ दबाया, तो पराई नारि के साथ चिक्त जोड़ता है। चेले बनाता है, गुरू के शबद को नहीं पहचानता, काम-वासना में ग्रसा हुआ है, और (इस तरह सन्यासी बनने की जगह लोगों की नजरों में) मसखरा बना हुआ है। (मनमुख के) अंदर (आत्मिक मौत लाने वाली तृष्णा का) जहर है, बाहर (लोगों को दिखाने के लिए) शांति धारण की हुई है। (ऐसे पाखण्डी को) आत्मिक मौत दुखी करती है।6। असल सन्यासी वह है जो गुरू की बताई हुई सेवा करता है और अपने अंदर से सवै-भाव दूर करता है, (लोगों से) कपड़े और भोजन की आस बनाए नहीं रखता, सहज सुभाय जो मिल जाता है वह ले लेता है, बहुत कम व ज्यादा बोल नहीं बोलता रहता, दूसरों की ज्यादती को सहने के स्वभाव रूप धन अपने अंदर संचित करता है, प्रभू के नाम की बरकति से अंदर से क्रोध को जला देता है। जो मनुष्य सदा परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है, वह भाग्यशाली है, (फिर) चाहे वह गृहस्ती है चाहे सन्यासी है चाहे जोगी है।7। असल सन्यासी वह है जो मायावी आशाओं की तरफ से निराश रहता है और एक परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़े रखता है। जब मनुष्य परमात्मा का नाम-रस पीता है और अंतरात्मे प्रभू-चरणों में जुड़ता है तब इसके अंदर शांति पैदा होती है। जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (सही जीवन राह) समझता है उसका मन माया की तृष्णा में डोलता नहीं, माया के पीछे दौड़ते मन को वह रोक के रखता है; गुरू की शिक्षा ले के (जंगलों में तलाशने की बजाय) शरीर-घर में खोजता है और परमात्मा का नाम-पूँजी को प्राप्त कर लेता है।8। ब्रहमा हो, विष्णू हो, शिव हो, वही सबसे श्रेष्ठ हैं जो प्रभू के नाम में रंगे गए और (इस तरह) सुंदर विचारों के मालिक बन गए। हे प्रभू! (भले ही) चारों खाणियों के जीवों में और उनकी बोलियों में, पाताल-आकाश में सब जीवों के अंदर तेरी ही ज्योति है, पर जिन्होंने तेरे सदा-स्थिर नाम को अपने हृदय में टिकाया है जिनके अंदर तेरे नाम की रौंअ जारी है जिनकी सुरति तेरी सिफत-सालाह की बाणी में है उन्हें ही सारे सुख हैं उनको ही माया के बँधनों से मुक्ति मिलती है। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना कोई भी जीव माया के मोह से नहीं बच सकता, तू भी यही तैराकी तैर जिससे कभी डूबने का खतरा ना रहेगा।9।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |