श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1013 मारू महला १ ॥ मात पिता संजोगि उपाए रकतु बिंदु मिलि पिंडु करे ॥ अंतरि गरभ उरधि लिव लागी सो प्रभु सारे दाति करे ॥१॥ संसारु भवजलु किउ तरै ॥ गुरमुखि नामु निरंजनु पाईऐ अफरिओ भारु अफारु टरै ॥१॥ रहाउ ॥ ते गुण विसरि गए अपराधी मै बउरा किआ करउ हरे ॥ तू दाता दइआलु सभै सिरि अहिनिसि दाति समारि करे ॥२॥ चारि पदारथ लै जगि जनमिआ सिव सकती घरि वासु धरे ॥ लागी भूख माइआ मगु जोहै मुकति पदारथु मोहि खरे ॥३॥ करण पलाव करे नही पावै इत उत ढूढत थाकि परे ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विआपे कूड़ कुट्मब सिउ प्रीति करे ॥४॥ खावै भोगै सुणि सुणि देखै पहिरि दिखावै काल घरे ॥ बिनु गुर सबद न आपु पछाणै बिनु हरि नाम न कालु टरे ॥५॥ जेता मोहु हउमै करि भूले मेरी मेरी करते छीनि खरे ॥ तनु धनु बिनसै सहसै सहसा फिरि पछुतावै मुखि धूरि परे ॥६॥ बिरधि भइआ जोबनु तनु खिसिआ कफु कंठु बिरूधो नैनहु नीरु ढरे ॥ चरण रहे कर क्मपण लागे साकत रामु न रिदै हरे ॥७॥ सुरति गई काली हू धउले किसै न भावै रखिओ घरे ॥ बिसरत नाम ऐसे दोख लागहि जमु मारि समारे नरकि खरे ॥८॥ पूरब जनम को लेखु न मिटई जनमि मरै का कउ दोसु धरे ॥ बिनु गुर बादि जीवणु होरु मरणा बिनु गुर सबदै जनमु जरे ॥९॥ खुसी खुआर भए रस भोगण फोकट करम विकार करे ॥ नामु बिसारि लोभि मूलु खोइओ सिरि धरम राइ का डंडु परे ॥१०॥ गुरमुखि राम नाम गुण गावहि जा कउ हरि प्रभु नदरि करे ॥ ते निरमल पुरख अपर्मपर पूरे ते जग महि गुर गोविंद हरे ॥११॥ हरि सिमरहु गुर बचन समारहु संगति हरि जन भाउ करे ॥ हरि जन गुरु परधानु दुआरै नानक तिन जन की रेणु हरे ॥१२॥८॥ {पन्ना 1013-1014} पद्अर्थ: संजोगि = संयोग से, मेल द्वारा। रकतु = लहू। बिंदु = वीर्य। पिंडु = शरीर। करे = बनाता है। अंतरि गरभ = माँ के पेट में। उरधि = उल्टा। सारे = संभाल करता है।1। भवजलु = समुंद्र। गुरमुखि = गुरू से, गुरू की शरण पड़ कर। निरंजनु = (निर+अंजन) जिस पर माया की कालिख असर नहीं कर सकती। अफरिओ भारु = अहंकारे हुए के पापों का भार। अफारु = असहि। टरै = टल जाता है, दूर हो जाता है।1। रहाउ। बउरा = कमला, झल्ला। हरे = हे हरी! सभै सिरि = हरेक जीव के सिर पर। अहि = दिन। निसि = रात। समारि = संभाल कर के।2। चारि पदारथ = (1. धरम = शुभ कर्म। 2. अर्थ = पदार्थ। 3. काम = कामना, इच्छा। 4. मोक्ष = मुक्ति)। लै = ले के। जगि = जगत में। सिव सकती घरि = परमात्मा की रची माया के घर में। भूख = लालच। मगु = रास्ता। जोहै = ताकता है। मोहि = माया के मोह में। खरे = लाया जाता है, गायब हो जाता है।3। करण पलाह = (करुणाप्रलाप) तरस पैदा करने वाला विलाप, कीरने, विरलाप, तरले। इत उत = इधर उधर, हर तरफ। कामि = काम में। विआपे = दबाया हुआ।4। कालु घरे = काल के घर में। आपु = अपने आप को। टरे = टालता।5। छीनि खरे = क्षीण होता जाता है। सहसै सहसा = सहम ही सहम। मुखि = मुँह पर। धूरि = मिट्टी, राख, फिटकार।6। बिरधि = वृद्ध, बुड्ढा। खिसिआ = खिसका, कम हो गया। कछु = बलगम। कंठु = गला। बिरूधो = रुक गया। नैनहु = आँखों से। ढरे = ढलता है, बहता है। कर = हाथ।7। काली हू = काले (केसों) से। न भावै = अच्छा नहीं लगता। मारि = मार के। नरकि = नर्क में। खरे = ले जाता है।8। को = का। का कउ = किसको? बादि = व्यर्थ।9। फोकट = व्यर्थ, फोके। लोभि = लोभ में (पड़ कर)। सिरि = सिर पर। डंडु = डंडा।10। जा कउ = जिन पर। ते = वह लोग। निरमल = पवित्र।11। समारहु = याद रखो। भाउ = प्रेम। करे = कर के। रेणु = चरण धूल।12। अर्थ: (परमात्मा के नाम के बिना) संसारी जीव संसार-समुंद्र से किसी भी हालत में पार नहीं लांघ सकता क्योंकि जीव माया आदि के अहंकार के कारण आफरा रहता है। परमात्मा का नाम, जिस पर माया की कालिख का प्रभाव नहीं पड़ सकता, गुरू की शरण पड़ने पर मिलता है, (जिस मनुष्य को नाम प्राप्त होता है) उसका (अहंकार आदि का) असहि भार दूर हो जाता है (यह अहंकार आदि ही भार बन के जीव को संसार समुंद्र में डुबा देता है)।1। रहाउ। माता और पिता के (शारीरिक) संयोग के द्वारा परमात्मा जीव पैदा करता है, माँ का लहू और पिता का वीर्य मिलने पर परमात्मा (जीव का) शरीर बनाता है। माँ के पेट में उल्टे पड़े हुए की लगन प्रभू-चरणों में लगी रहती है। वह परमात्मा इसकी हर तरह संभाल करता है (और आवश्यक्ता अनुसार पदार्थ) देता है।1। हे हरी! मुझ गुनाहगार को तेरे वह उपकार भूल गए हैं, मैं (माया के मोह में) झल्ला हुआ पड़ा हूँ (तेरा सिमरन करने से) बेबस हूँ। पर तू दया का श्रोत है, हरेक जीव के सिर पर (रखवाला) है, और सबको दातें देता है। (हे भाई!) दयालु प्रभू दिन-रात (जीवों की) संभाल करता है और दातें देता है।2। (जीव परमात्मा से) चारों ही पदार्थ ले के जगत में पैदा हुआ है (फिर भी प्रभू की बख्शिश भुला के सदा) परमात्मा की पैदा की हुई माया के घर में निवास रखता है। सदा इसको माया की भूख ही चिपकी रहती है, सदा माया की राह ही ताकता रहता है, माया के मोह में (फंस के चारों पदार्थों में से) मुक्ति पदार्थ गवा लेता है।3। (सारी उम्र जीव माया की खातिर ही) विरलाप करता रहता है (मन की तसल्ली योग्य माया) प्राप्त नहीं होती, हर तरफ माया की तलाश करता-करता थक जाता है। काम में, क्रोध में, अहंकार में दबा हुआ जीव सदा नाशवंत पदार्थों के साथ ही प्रीति करता है, सदा अपने परिवार के साथ ही मोह जोड़ के रखता है।4। (दुनिया के अच्छे-अच्छे पदार्थ) खाता है (विषौ) भोगता है, (शोभा-निंदा आदि के वचन) बार-बार सुनता है, (दुनिया के रंग-तमाशे) देखता है, (सुंदर-सुंदर कपड़े आदि) पहन के (लोगों को) दिखाता है- (बस! इन्हीं व्यस्तताओं में मस्त हो के) आत्मिक मौत के घर में टिका रहता है (आत्मिक मौत सहेड़ के रखता है)। गुरू के शबद से टूटा हुआ अपने आत्मिक जीवन को पहचान नहीं सकता। परमात्मा के नाम से टूटा हुआ होने के कारण आत्मिक मौत (इसके सिर से) नहीं टलती।5। जितना ही मोह और अहंकार के कारण जीव सही जीवन-राह से भूलता जाता है, जितना ज्यादा 'मेरी मेरी' (माया) करता है, उतना ही ज्यादा अहंकार और ममता इसके आत्मिक जीवन को छीन के लेते जाते हैं। आखिर में ये शरीर और ये धन, (जिनकी खातिर हर वक्त सहम में रहता था,) नाश हो जाते हैं। तब जीव पछताता है, (पर उस वक्त पछताने से कुछ नहीं बनता) इसके मुँह पर धिक्कारें ही पड़ती हैं।6। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है, जवानी खिसक जाती है शरीर कमजोर हो जाता है, गला बलगम से रुका रहता है, आँखों से पानी बहता रहता है, पैर (चलने से) रह जाते हैं, हाथ काँपने लग जाते हैं, (फिर भी) माया-ग्रसित जीव के हृदय में हरी परमात्मा (का नाम) नहीं (बसता)।7। (वृद्ध हो जाने पर) अकल ठिकाने नहीं रहती, केश काले और सफेद हो जाते हैं, घर में रखा हुआ किसी को अच्छा नहीं लगता (फिर भी परमात्मा के नाम को भुलाए रखता है) परमात्मा का नाम बिसार के रखने के कारण ऐसी बुराईयाँ इससे चिपकी रहती हैं जिनके कारण जमराज इसको मार के नर्क में ले जाता है।8। (पर जीव के भी वश की बात नहीं) पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के संस्कारों का लेखा मिटता नहीं (जितना समय वह लेखा मौजूद है, उनके प्रभाव तले कुकर्म कर करके) जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। जीव बेचारा और किस को दोष दे? (दरअसल, बात ये है कि) गुरू की शरण पड़े बिना जिन्दगी व्यर्थ जाती है (विकारों में पड़ कर मनुष्य) और आत्मिक मौत सहेड़ता जाता है। गुरू शबद से टूटने के कारण जिंदगी (विकारों में) जल जाती है।9। जीव दुनियां की खुशियाँ लेने में, रस भोगने में, और फोके व बुरे कर्म करने में पड़ कर दुखी होता है। परमात्मा का नाम भुला के, लोभ में फस के मूल भी गवा लेता है, आखिर इसके सिर पर धर्मराज का डण्डा पड़ता है।10। गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम के गुण गाते हैं। जिन पर हरी-प्रभू मेहर की निगाह करता है वह जगत में हरी-गोबिंद बेअंत पूरन सर्व-व्यापक प्रभू को सिमर के पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।11। हे भाई! संत जनों की संगति में प्रेम जोड़ के परमात्मा का नाम सिमरो, गुरू के बचन (हृदय में) संभाल के रखो। परमात्मा के दर पर गुरू (का बचन) ही आदर पाता है, संत जनों की संगति ही कबूल पड़ती है। हे नानक! (अरदास कर-) हे हरी! (मुझे) उन संत जनों की चरण-धूड़ दे।12।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |