श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मारू काफी महला १ घरु २ ॥ आवउ वंञउ डुमणी किती मित्र करेउ ॥ सा धन ढोई न लहै वाढी किउ धीरेउ ॥१॥ मैडा मनु रता आपनड़े पिर नालि ॥ हउ घोलि घुमाई खंनीऐ कीती हिक भोरी नदरि निहालि ॥१॥ रहाउ ॥ पेईअड़ै डोहागणी साहुरड़ै किउ जाउ ॥ मै गलि अउगण मुठड़ी बिनु पिर झूरि मराउ ॥२॥ पेईअड़ै पिरु समला साहुरड़ै घरि वासु ॥ सुखि सवंधि सोहागणी पिरु पाइआ गुणतासु ॥३॥ लेफु निहाली पट की कापड़ु अंगि बणाइ ॥ पिरु मुती डोहागणी तिन डुखी रैणि विहाइ ॥४॥ किती चखउ साडड़े किती वेस करेउ ॥ पिर बिनु जोबनु बादि गइअमु वाढी झूरेदी झूरेउ ॥५॥ सचे संदा सदड़ा सुणीऐ गुर वीचारि ॥ सचे सचा बैहणा नदरी नदरि पिआरि ॥६॥ गिआनी अंजनु सच का डेखै डेखणहारु ॥ गुरमुखि बूझै जाणीऐ हउमै गरबु निवारि ॥७॥ तउ भावनि तउ जेहीआ मू जेहीआ कितीआह ॥ नानक नाहु न वीछुड़ै तिन सचै रतड़ीआह ॥८॥१॥९॥ {पन्ना 1014-1015}

नोट: ये अष्टपदी राग मारू और राग काफी को मिला के गानी है।

पद्अर्थ: आवउ = मैं आती हॅूँ। वंञउ = वंजउ, मैं जाती हूँ। डुंमणी = (दु+मनी) दोचिक्ती हो के। किती = कितने ही। करेउ = मैं बनाती हूँ। साधन = जीव स्त्री। ढोई = आसरा। न लहै = नहीं ले सकती। वाढी = परदेसण, बिछुड़ी हुई। किउ धीरेउ = मैं कैसे धीरज हासिल कर सकती हूँ?।1।

मैडा = मेरा। रता = रंगा हुआ है। पिर = पति। हउ = मैं। घोलि घुमाई = बलिहार जाती हूँ। खंनीअै कीती = टुकड़े टुकड़े होती हूँ। हिक = एक। भोरी = रक्ती सा समय। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = (मेरी ओर) देख।1। रहाउ।

पेईअड़ै = पेके घर में, इस जनम में। डोहागणी = दुहागनि, बुरे भाग्यों वाली, विछड़ हुई। साहुरड़ै = साहुरे घर में, परमात्मा के देस में, प्रभू के चरणों में। किउ जाउ = मैं कैसे पहुँच सकती हूँ? गलि = गले में, गले तक। मुठड़ी = मैं ठगी गई हूँ। झूरि मराउ = झुर झुर के मरती हूँ, दुखी होती हूँ और आत्मिक मौत सहेड़ती हूँ।2।

संमला = (अगर) मैं (हृदय में) संभाल लूँ। घरि = पति प्रभू के घर में। सुखि = सुख से। सवंधि = सोते हैं, शांत चिक्त रहती हैं। सोहागणी = अच्छे भाग्यों वालियां। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभू।3।

निहाली = तुलाई। कापड़ ु = (पट का ही) कपड़ा। अंगि = शरीर पर (पहनती हैं)। मुती = छोड़ी हुई, छुटॅड़। डुखी = दुखों में। रैणि = (जिंदगी की) रात। विहाइ = बीतती है।4।

किती = कितने ही। चखउ = मैं चखूँ। साडड़े = स्वादिष्ट पदार्थ। वेस = पहिरावे। करेउ = मैं करूँ। जोबनु = जवानी। बादि = व्यर्थ। गइअमु = मेरा (जोबन) गया। वाढी = छुटॅड़।5।

संदा = का। सचे संदा = सदा स्थिर पति प्रभू का। सदड़ा = प्यार भरा संदेशा। गुर वीचारि = गुरू की बाणी की विचार से। बैहणा = संगति, संग । सचे सचा बैहणा = सदा स्थिर प्रभू का सदा-स्थिर साथ। नदरी नदरि = मेहर की नजर करने वाली की निगाह से। पिआरि = प्यार में।6।

गिआनी = परमात्मा के साथ सांझ डालने वाला व्यक्ति। अंजनु = सुरमा। सच का = सदा स्थिर प्रभू के नाम का। डेखणहारु = वह परमात्मा जो सब जीवों की संभाल करने के समर्थ है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। बूझै = समझता है। जाणीअै = आदर पाता है। गरबु = अहंकार। निवारि = दूर कर के।7।

तउ = तुझे। भावनि = जो पसंद आ जाती हैं। जेहीआ = जैसी। मू जेहीआ = मेरे जैसी। कितीआह = अनेकों ही। नाहु = नाथ, पति प्रभू। तिन = उनसे। सचै = सदा स्थिर प्रभू में।8।

अर्थ: (हे प्रीतम प्रभू!) मैं तुझसे वारने जाती हूँ, कुर्बान जाती हूँ। रक्ती भर भी समय ही (मेरी ओर) मेहर की नजर से देख, ता कि मेरा मन (तुझ) अपने प्यारे पति के साथ रंगा जाए।1। रहाउ।

(हे प्रीतम प्रभू! तुझसे विछुड़ के) मैं (दुविधा और) दु-चिक्ती में (डावाँडोल) होई हुई (जन्मों के चक्कर में) भटकती फिरती हूँ (दिलासा धरने के लिए) मैं अनेकों मित्र बनाती हूँ, पर जब तक तुझसे विछुड़ी हुई हूँ, मुझे धरवास कैसे आए? (तुझसे विछुड़ी हुई) जीव-स्त्री (किसी और जगह) आसरा पा ही नहीं सकती।1।

(इस संसार) पेके घर में मैं (सारी उम्र) प्रभू-पति से विछुड़ी रही हूँ, मैं पति-प्रभू के देश में कैसे पहुँच सकती हूँ? (प्रभू से विछोड़े के कारण) अवगुण मेरे गले तक पहुँच गए हैं, (सारी उम्र) मुझे अवगुणों ने ठॅग के रखा है। पति-प्रभू के मिलाप से वंचित रह के मैं अंदर-अंदर से दुखी भी हो रही हूँ, और आत्मिक मौत भी मैंने सहेड़ ली है।2।

यदि मैं (इस संसार) पेके घर में पति-प्रभू को (अपने हृदय में) संभाल के रखूँ तो पति-प्रभू के देश में मुझे उसके चरणों में जगह मिल जाए। वह भाग्यशाली (जीवन-रात) सुख से सो के गुजारती हैं जिन्होंने (पेके घर में) गुणों के खजाना पति-प्रभू को पा लिया है।3।

जिन दुर्भाग्यपूर्ण (सि्त्रयों) ने पति को भुला दिया और जो छुटॅड़ हो गई, वे अगर रेशम का लेफ लें, रेशम की तुलाई लें, और कपड़ा भी रेशम का बना के ही शरीर पर प्रयोग करें, तब भी उनकी जीवन-रात दुखों में ही बीतती है।4।

अगर मैं अनेकों ही स्वादिष्ट खाने खाती रहूँ, अनेकों ही सुंदर पहरावे पहनती रहूँ, फिर भी पति-प्रभू से विछुड़ के मेरी जवानी व्यर्थ ही जा रही है। जब तक मैं छुटॅड़ हूँ, मैं (सारी उम्र) झुर-झुर के ही दिन काटूँगी।5।

अगर सदा-स्थिर प्रभू का प्यार-संदेशा सतिगुरू की बाणी की विचार के माध्यम से सुनें, तो उस सदा-स्थिर प्रभू-पति का सदा के लिए साथ मिल जाता है, उस मेहर की नजर वाला प्रभू मेहर की नजर से ताकता है, और उसके प्यार में लीन हो जाया जाता है।6।

परमात्मा से जान-पहचान डालने वाला सदा-स्थिर प्रभू के नाम का सुरमा प्रयोग करता है, और वह (उस) प्रभू का दीदार कर लेता है जो सब जीवों की संभाल करने के समर्थ है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (इस भेद को) समझ लेता है वह हउमै-अहंकार दूर करके (उसकी हजूरी में) आदर पाता है।7।

हे पति-प्रभू! जो जीव-सि्त्रयाँ तुझे अच्छी लगती हैं, वह तेरे जैसी हो जाती हैं, (पर तेरी मेहर की निगाह से वंचित हुई) मेरे जैसी भी अनेकों ही हैं।

हे नानक! जो जीव-सि्त्रयाँ सदा-स्थिर प्रभू के प्यार में रंगी रहती हैं, उनके (हृदय) से पति-प्रभू कभी नहीं विछुड़ता।8।1।9।

नोट: पहली 8 अष्टपदियाँ घरु १ की हैं। यहाँ से 'घरु २' की आरम्भ होती हैं। 'घरु २' की यह पहली अष्टपदी है। कुल जोड़ 9 है। देखें आखिरी अंक ।1।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh