श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पुत्र कलत्र जगि हेतु पिआरा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ जम के फाहे सतिगुरि तोड़े गुरमुखि ततु बीचारा हे ॥९॥ कूड़ि मुठी चालै बहु राही ॥ मनमुखु दाझै पड़ि पड़ि भाही ॥ अम्रित नामु गुरू वड दाणा नामु जपहु सुख सारा हे ॥१०॥ सतिगुरु तुठा सचु द्रिड़ाए ॥ सभि दुख मेटे मारगि पाए ॥ कंडा पाइ न गडई मूले जिसु सतिगुरु राखणहारा हे ॥११॥ खेहू खेह रलै तनु छीजै ॥ मनमुखु पाथरु सैलु न भीजै ॥ करण पलाव करे बहुतेरे नरकि सुरगि अवतारा हे ॥१२॥ माइआ बिखु भुइअंगम नाले ॥ इनि दुबिधा घर बहुते गाले ॥ सतिगुर बाझहु प्रीति न उपजै भगति रते पतीआरा हे ॥१३॥ साकत माइआ कउ बहु धावहि ॥ नामु विसारि कहा सुखु पावहि ॥ त्रिहु गुण अंतरि खपहि खपावहि नाही पारि उतारा हे ॥१४॥ कूकर सूकर कहीअहि कूड़िआरा ॥ भउकि मरहि भउ भउ भउ हारा ॥ मनि तनि झूठे कूड़ु कमावहि दुरमति दरगह हारा हे ॥१५॥ सतिगुरु मिलै त मनूआ टेकै ॥ राम नामु दे सरणि परेकै ॥ हरि धनु नामु अमोलकु देवै हरि जसु दरगह पिआरा हे ॥१६॥ राम नामु साधू सरणाई ॥ सतिगुर बचनी गति मिति पाई ॥ नानक हरि जपि हरि मन मेरे हरि मेले मेलणहारा हे ॥१७॥३॥९॥ {पन्ना 1029-1030}

मसतकि = माथे पर। सिरि = सिर पर। बोहिथु = जहाज। नामि = नाम से।8।

कलत्र = स्त्री। जगि = जगत में। हेतु = हित, मोह। पासारा = खिलारा। सतिगुरि = सतिगुरू ने।9।

कूड़ि = माया के मोह में। दाझै = जलता है। पड़ि = पड़ कर। भाही = आग में। दाणा = दानशमंद, समझदार। सारा = श्रेष्ठ।10।

सभि = सारे। मारगि = रास्ते पर। कंडा = अहंकार का काँटा। पाइ = पाय, पैर में। गडई = चुभता। मूले = बिल्कुल।11।

खेहू = राख में। छीजै = छिजता है, कमजोर होता है। सैलु = शैल, पत्थर, पहाड़। करण पलाव = (करुणाप्रलाप) तरले, कीरने, तरस भरे विलाप। अवतारा = पैदा होता।12।

बिखु = जहर। भुइअंगम = साँप। इनि = इस ने। पतीआरा = पतीजता।13।

साकत = माया ग्रसित मनुष्य। धावहि = दौड़ते हैं। विसारि = बिसार के।14।

कूकर = कुत्ते। सूकर = सूअर। भउकि = भौंक के। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। भउ भउ भउ = भटक भटक के। हारा = थक जाते हैं।15।

टेकै = आसरा देता है। परेकै = पड़े हुए को।16।

सधू = गुरू। गति = हालत। मिति = मर्यादा। मन = हे मन!।17।

जिस मनुष्य के माथे पर सिर पर (पापों के) कलॅर का बहुत सारा भार रखा हो, वह संसार-समुंद्र में से कैसे पार लांघेगा? दुनिया के आरम्भ से ही जुगों में आदि से ही सतिगुरू जहाज है जो जीवों को परमात्मा के नाम में जोड़ के पार लंघा देता है।8।

जगत में माया का मोह रूप पसारा पसरा हुआ है, (सब जीवों का) पुत्र से स्त्री से मोह है प्यार है (पर यह मोह आत्मिक मौत का कारण बनता है), इस आत्मिक मौत के फंदे सतिगुरू ने (उस मनुष्य के गले में) तोड़ डाले हैं जो गुरू के सन्मुख रह के मूल-प्रभू को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है।9।

जो जीव-स्त्री माया के मोह में (पड़ कर आत्मिक जीवन की पूँजी) लुटा बैठती है, वह (सही जीवन राह से भटक के) कई और राहों में भटकती फिरती है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है वह तृष्णा की आग में पड़-पड़ कर जलता है (दुखी होता है)। (इस रोग से बचाने के लिए) गुरू (जो) बहुत समझदार (हकीम) है आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम देता है। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर) नाम जपो (इसी में) श्रेष्ठ सुख है।10।

जिस मनुष्य पर गुरू प्रसन्न होता है उसके (हृदय में) सदा-स्थिर हरी-नाम पक्का कर देता है, उसके सारे दुख मिटा देता है, उसको जिंदगी के सही रास्ते पर डाल देता है। सतिगुरू जिस मनुष्य का रखवाला बनता है (जिंदगी के राहों में गुजरते हुए) उसके पैरों में काँटा नहीं चुभता (उसको अहंकार का काँटा दुखी नहीं करता)।11।

अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पत्थर दिल ही रहता है कभी (भक्ति-भाव में) नहीं भीगता, सारी उम्र माया के मोह में ही उसका शरीर आखिर नाश हो जाता है (उसका श्रेष्ठ मनुष्य जीवन) राख में मिल जाता है। (जीवन का समय बीत जाने पर अगर वह) बहुत सारे तरले भी करे (तो किसी अर्थ के नहीं) वह कभी नर्क में और कभी स्वर्ग में पैदा ही होता रहता है (भाव, जनम-मरण के चक्कर में पड़ कर दुख-सुख भोगता रहता है)।12।

(गुरू की शरण पड़े बिना) माया के मोह-रूपी साँप का जहर जीवों के अंदर टिका रहता है (और जीवों को आत्मिक मौत मारता रहता है)। इसने दुविधा में डाल के अनेकों घर गला दिए हैं (मोह ने प्रभू के बिना और ही आसरों की झाक में पड़ कर अनेकों जीवन बर्बाद कर दिए हैं)। गुरू के बिना मनुष्य के हृदय में प्रभू-चरणों के प्रति प्रीति पैदा नहीं होती। जो मनुष्य (गुरू के द्वारा) परमात्मा के भक्ति-रंग में रंगे जाते हैं उनका मन प्रभू की याद में प्रसन्न रहता है।13।

माया-ग्रसित जीव माया इकट्ठी करने की खातिर बहुत दौड़-भाग करते हैं (क्योंकि वे इसी में सुख तलाशने की आशा रखते हैं) पर परमात्मा का नाम भुला के आत्मिक आनंद कहाँ से ले सकते हैं? वे माया के तीन गुणों में ही फसे रह के दुखी होते हैं (औरों को भी) दुखी करते हैं। दुखों के इस समुंद्र में से वे दूसरे छोर पर नहीं पहुँच सकते।14।

निरे झूठ के व्यापारी व्यक्ति (देखने में तो मनुष्य हैं, पर दरअसल वे) कुत्ते और सूअर ही (अपने आपको कहलवाते हैं) (क्योंकि कुक्तों और सूअरों की तरह माया की खातिर) भौंक-भौंक के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, सारी उम्र भटकते-भटकते थक टूट जाते हैं। उनके मन में माया का मोह, उनके शरीर में माया का मोह, सारी उम्र वह मोह की कमाई ही करते हैं। इस बुरी मति के पीछे लग के परमात्मा की दरगाह में वे जीवन-बाज़ी हार जाते हैं।15।

अगर सतिगुरू मिल जाए तो मनुष्य को परमात्मा का नाम दे के उसके (डोलते) मन को सहारा देता है। गुरू उसको परमात्मा का नाम-रूप अमूल्य (कीमती) धन देता है, परमात्मा की सिफत-सालाह (की दाति) देता है (जिसकी बरकति से उसको) प्रभू की दरगाह में आदर-प्यार मिलता है।16।

गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा का नाम मिलता है। गुरू के वचनों पर चलने से ये समझ आ जाती है कि परमात्मा कैसा (दयालु) है और कितना बड़ा (बेअंत) है। हे नानक! (अपने मन को समझा और कह-) हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जप (नाम जपने वाले भाग्यशाली को) मेलनहार प्रभू अपने चरणों में मिला देता है।17।3।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh