श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला १ ॥ घरि रहु रे मन मुगध इआने ॥ रामु जपहु अंतरगति धिआने ॥ लालच छोडि रचहु अपर्मपरि इउ पावहु मुकति दुआरा हे ॥१॥ जिसु बिसरिऐ जमु जोहणि लागै ॥ सभि सुख जाहि दुखा फुनि आगै ॥ राम नामु जपि गुरमुखि जीअड़े एहु परम ततु वीचारा हे ॥२॥ हरि हरि नामु जपहु रसु मीठा ॥ गुरमुखि हरि रसु अंतरि डीठा ॥ अहिनिसि राम रहहु रंगि राते एहु जपु तपु संजमु सारा हे ॥३॥ राम नामु गुर बचनी बोलहु ॥ संत सभा महि इहु रसु टोलहु ॥ गुरमति खोजि लहहु घरु अपना बहुड़ि न गरभ मझारा हे ॥४॥ सचु तीरथि नावहु हरि गुण गावहु ॥ ततु वीचारहु हरि लिव लावहु ॥ अंत कालि जमु जोहि न साकै हरि बोलहु रामु पिआरा हे ॥५॥ सतिगुरु पुरखु दाता वड दाणा ॥ जिसु अंतरि साचु सु सबदि समाणा ॥ जिस कउ सतिगुरु मेलि मिलाए तिसु चूका जम भै भारा हे ॥६॥ पंच ततु मिलि काइआ कीनी ॥ तिस महि राम रतनु लै चीनी ॥ आतम रामु रामु है आतम हरि पाईऐ सबदि वीचारा हे ॥७॥ सत संतोखि रहहु जन भाई ॥ खिमा गहहु सतिगुर सरणाई ॥ आतमु चीनि परातमु चीनहु गुर संगति इहु निसतारा हे ॥८॥ साकत कूड़ कपट महि टेका ॥ अहिनिसि निंदा करहि अनेका ॥ बिनु सिमरन आवहि फुनि जावहि ग्रभ जोनी नरक मझारा हे ॥९॥ साकत जम की काणि न चूकै ॥ जम का डंडु न कबहू मूकै ॥ बाकी धरम राइ की लीजै सिरि अफरिओ भारु अफारा हे ॥१०॥ बिनु गुर साकतु कहहु को तरिआ ॥ हउमै करता भवजलि परिआ ॥ बिनु गुर पारु न पावै कोई हरि जपीऐ पारि उतारा हे ॥११॥ गुर की दाति न मेटै कोई ॥ जिसु बखसे तिसु तारे सोई ॥ जनम मरण दुखु नेड़ि न आवै मनि सो प्रभु अपर अपारा हे ॥१२॥ गुर ते भूले आवहु जावहु ॥ जनमि मरहु फुनि पाप कमावहु ॥ साकत मूड़ अचेत न चेतहि दुखु लागै ता रामु पुकारा हे ॥१३॥ सुखु दुखु पुरब जनम के कीए ॥ सो जाणै जिनि दातै दीए ॥ किस कउ दोसु देहि तू प्राणी सहु अपणा कीआ करारा हे ॥१४॥ हउमै ममता करदा आइआ ॥ आसा मनसा बंधि चलाइआ ॥ मेरी मेरी करत किआ ले चाले बिखु लादे छार बिकारा हे ॥१५॥ हरि की भगति करहु जन भाई ॥ अकथु कथहु मनु मनहि समाई ॥ उठि चलता ठाकि रखहु घरि अपुनै दुखु काटे काटणहारा हे ॥१६॥ हरि गुर पूरे की ओट पराती ॥ गुरमुखि हरि लिव गुरमुखि जाती ॥ नानक राम नामि मति ऊतम हरि बखसे पारि उतारा हे ॥१७॥४॥१०॥ {पन्ना 1030-1031}

पद्अर्थ: घरि = घर में, अपने आप में, अडोलता में। मुगध = हे मूर्ख! अंतरगति = अंदर ही टिके रह के। धिआने = ध्यान से, सुरति जोड़ के। रचहु = लीन रहो। अपरंपरि = अपरंपर (प्रभू) में, उस प्रभू में जो परे से परे है।1।

जमु = मौत, आत्मिक मौत। जोहणि लागै = देखने लग पड़ता है। सभि = सारे। फुनि = दोबारा, उनकी जगह। आगै = जीवन राह में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। जीअड़े = हे जिंदे! परम ततु = सबसे बड़ा मूल्य, परमात्मा।2।

अंतरि = (अपने) अंदर। अहि = दिन। निसि = रात। राम रंगि = परमात्मा के रंग में। सारा = श्रेष्ठ।3।

टोलहु = ढूँढो। घरु = वह जगह जहाँ हमेशा टिके रह सकें। बहुड़ि = बार बार।4।

स्चु = सदा स्थिर रहने वाला। तीरथि = तीर्थ पर। ततु = मूल प्रभू। अंत कालि = आखिरी समय में। जमु = मौत (का डर)।5।

दाणा = समझदार। जिसु अंतरि = जिस (गुरू) के अंदर। सबदि = प्रभू की सिफत सालाह में। मेलि = संगति में। भै भारा = डर सहम का भार।6।

मिलि = मिल के। काइआ = शरीर। तिसु महि = उस (शरीर) में। लै चीनी = चीन्ह ले, पहचान ले। सबदि = गुरू के शबद से।7।

जन भाई = हे भाई जनो! संतोखि = संतोख में। गहहु = ग्रहण करो। चीनि = पहचान के। परातमु = पर आतमु, परम आत्मा, परमात्मा।8।

कूड़ = माया का मोह। टेक = आसरा। ग्रभ = गर्भ।9।

काणि = डर। चूकै = खत्म होती। बीजै = ली जाती है, वसूल की जाती है। अफरिओ = अहंकारी के (सिर पर)। अफारा = असहि।10।

को साकतु = कौन सा साकत? भवजलि = भवजल में। पारु = परला किनारा। पारि = परले किनारे का।11।

सोई = वह (प्रभू) ही। मनि = मन में। अपर = जिससे परे और कोई नहीं।12।

ते = से। भूले = टूटे हुए, भटके हुए। अचेत = गाफिल, बेपरवाह। ता = से।13।

जिनि दाते = जिस दाते ने। कउ = को। प्राणी = हे प्राणी! सहु = सहार। करारा = सख्त।14।

ममता = अपनत्व। बिखु = जहर। छारु = राख।15।

अकथु = वह प्रभू जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते। मनहि = मन ही, मन में ही। चलता = भटकता। ठाकि = रोक के। घरि अपुनै = अपने घर में।16।

पराती = पहचानी। गुरमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह गुरू की ओर है। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।17।

अर्थ: हे अंजान मूर्ख मन! अडोलता में टिका रह। अपने अंदर ही टिका रह के और सुरति जोड़ के प्रभू का नाम जप। (हे मन! माया का) लालच छोड़ के उस प्रभू में लीन रह जो परे से परे है (जिससे आगे कोई और हस्ती नहीं है)। इसी तरह तू (माया की लालच से) मुक्ति पाने का रास्ता तलाश लेगा।1।

जिस प्रभू के भूल जाने से मौत घूरने लग जाती है सारे सुख दूर हो जाते हैं और उनकी जगह जीवन-पथ में दुख ही दुख पैदा हो जाते हैं, हे जिंदे! गुरू की शरण पड़ कर उस प्रभू का नाम जप, और जगत के मूल प्रभू को अपनी सोच-मण्डल में टिका के रख।2।

हे जिंदे! सदा परमात्मा का नाम जप (जपने से ही समझ पड़ेगी कि नाम जपने का) मीठा स्वाद है। गुरू की शरण पड़ कर ये नाम-रस अपने ही अंदर अनुभव किया जा सकता है। (हे भाई!) दिन-रात परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहो, ये नाम-रंग ही श्रेष्ठ जप है, श्रेष्ठ तप है, श्रेष्ठ संयम है।3।

(हे भाई!) गुरू की बाणी के द्वारा परमात्मा का नाम सिमरो (आत्मिक आनंद मिलेगा, पर ये आनंद साध-संगति में प्राप्त होता है) साध-संगति में जा के इस आनंद की तलाश करो। गुरू की मति पर चल कर अपना वह आत्मिक ठिकाना ढूँढो जहाँ पहुँच के दोबारा जनम-मरण के चक्कर में ना पड़ना पड़े।4।

सदा-स्थिर प्रभू का नाम (सिमरो), परमात्मा के गुण गाओ (यही है तीर्थ-स्नान, इस) तीरथ में स्नान करो। परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़ो, परमात्मा के गुणों को विचारो। प्यारे प्रभू का नाम सिमरो, आखिरी समय मौत का डर छू नहीं सकेगा।5।

गुरू अकाल-पुरख (का रूप) है, सब दातें देने के समर्थ है, बहुत समझदार है, उसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभू हमेशा बसता है, वह परमात्मा की सिफत-सालाह में हमेशा लीन रहता है। वह गुरू जिस मनुष्य को अपनी संगति में मिलाता है उस (के सिर) पर से जमों का डर दूर हो जाता है।6।

(हे भाई! अपने) इस शरीर में, जो परमात्मा ने पाँच (विरोधी) तत्वों को मिला के बनाया है, परमात्मा का नाम-रतन खोज के तलाश ले। (ज्यों-ज्यों) गुरू के शबद द्वारा विचार करें, (त्यों-त्यों ये समझ आ जाती है कि) आत्मा और परमात्मा एक-रूप हैं।7।

हे भाई! जनो! सेवा और संतोष में जीवन बिताओ। गुरू की शरण पड़ कर दूसरों की ज्यादती सहने का गुण ग्रहण करो। अपनी आत्मा को पहचान के दूसरों की आत्मा को भी पहचानो। गुरू की संगति में रहने से ये निर्णय आता है।8।

माया-ग्रसित लोग माया के मोह में और छल में (अपने जीवन का) आसरा (तलाशते हैं), वह दिन-रात अनेकों किस्मों की पराई निंदा करते रहते हैं। सिमरन से वंचित रह कर वे (इस निंदा आदि कर कर के गलत रास्ते पड़ कर) जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाते हैं, गरभ-जून के नर्कों में पड़ते हैं।9।

माया-ग्रसित जीवों के अंदर से जम का डर दूर नहीं होता, जम की सजा उनके सिर से नहीं टलती। अहंकारियों के सिर पर (विकारों का) असहि भार टिका रहता है (यह, मानो, उनके सिर पर कर्जा है) धर्मराज के इस कर्जे का लेखा उनके पास से लिया ही जाता है।10।

गुरू की शरण के बिना कोई भी माया-ग्रसित जीव (माया-मोह के समुंद्र से) पार नहीं लांघ सकता (माया की मस्ती के कारण वह) 'हउ हउ मैं मैं' करता संसार-समुंद्र में डूबा रहता है। गुरू के बिना कोई मनुष्य (इस समुंद्र का) परला किनारा नहीं ढूँढ सकता। परमात्मा का नाम जपना चाहिए, (नाम जपने से ही) उस पार के किनारे पर पहुँचा जा सकता है।11।

जिस मनुष्य पर गुरू बख्शिश करता है उसको (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है, कोई आदमी गुरू की इस बख्शिश के राह में रुकावट नहीं डाल सकता। (गुरू की मेहर से) जिस मनुष्य के मन में वह अपर-अपार प्रभू आ बसता है जनम-मरण का दुख उसके नजदीक नहीं फटकता।12।

हे भाई! अगर गुरू के दर से टूटे रहोगे तो (संसार में बार-बार) पैदा होते मरते रहोगे, जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहोगे और पाप-कर्म करते रहोगे। माया-ग्रसित मूर्ख गाफिल मनुष्य परमात्मा को याद नहीं करते, जब कोई दुख व्यापता है तो उस वक्त 'हाय राम! हाय राम!' पुकारते हैं।13।

हे प्राणी! पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के अनुसार दुख-सुख भोगे जाते हैं, इस भेद को वही परमात्मा जानता है जिसने (जिसने ये दुख-सुख भोगने के लिए) दिए हैं। हे प्राणी! (होने वाले दुखों के कारण) तू किसी और को दोष नहीं दे सकता, ये अपने ही किए कर्मों का कठोर फल सह।14।

जीव दुनियां की आशाओं और मन के मायावी फुरनों में बँधा चला आ रहा है, (जन्म-जन्मांतरों से) अहंम् और ममता अहंकार-भरी बातें करता आ रहा है। 'ये माया मेरी है ये माया मेरी है'- यह कह-कह के यहाँ से अपने साथ भी कुछ नहीं ले जा सकता। विकारों की राख और विकारों का जहर ही लाद लेता है (जो इसके आत्मिक जीवन को मार देता है)।15।

हे भाई जनो! परमात्मा की भक्ति करो। उस परमात्मा को याद करते रहो जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते, (इस तरह ये विकारी) मन (रॅब) मन में ही लीन हो जाएगा। हे भाई! इस मन को जो (माया के पीछे) उठ-उठ के भागता है रोक के अपने अडोल आत्मिक ठिकाने में काबू कर के रखो। (इस तरह) सारे दुख काटने के समर्थ प्रभू दुख दूर कर देगा।16।

जिस मनुष्य ने परमात्मा की और पूरे गुरू की शरण की कद्र पहचान ली है, जिस ने गुरू के सन्मुख हो के गुरू के द्वारा परमात्मा में सुरति जोड़नी सीख समझ ली है, हे नानक! परमात्मा के नाम में जुड़ के उसकी मति श्रेष्ठ हो जाती है, परमात्मा उस पर मेहर करता है और उसको (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है।17।4।10।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh