श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1031 मारू महला १ ॥ सरणि परे गुरदेव तुमारी ॥ तू समरथु दइआलु मुरारी ॥ तेरे चोज न जाणै कोई तू पूरा पुरखु बिधाता हे ॥१॥ तू आदि जुगादि करहि प्रतिपाला ॥ घटि घटि रूपु अनूपु दइआला ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि सभु तेरो कीआ कमाता हे ॥२॥ अंतरि जोति भली जगजीवन ॥ सभि घट भोगै हरि रसु पीवन ॥ आपे लेवै आपे देवै तिहु लोई जगत पित दाता हे ॥३॥ जगतु उपाइ खेलु रचाइआ ॥ पवणै पाणी अगनी जीउ पाइआ ॥ देही नगरी नउ दरवाजे सो दसवा गुपतु रहाता हे ॥४॥ चारि नदी अगनी असराला ॥ कोई गुरमुखि बूझै सबदि निराला ॥ साकत दुरमति डूबहि दाझहि गुरि राखे हरि लिव राता हे ॥५॥ अपु तेजु वाइ प्रिथमी आकासा ॥ तिन महि पंच ततु घरि वासा ॥ सतिगुर सबदि रहहि रंगि राता तजि माइआ हउमै भ्राता हे ॥६॥ इहु मनु भीजै सबदि पतीजै ॥ बिनु नावै किआ टेक टिकीजै ॥ अंतरि चोरु मुहै घरु मंदरु इनि साकति दूतु न जाता हे ॥७॥ दुंदर दूत भूत भीहाले ॥ खिंचोताणि करहि बेताले ॥ सबद सुरति बिनु आवै जावै पति खोई आवत जाता हे ॥८॥ कूड़ु कलरु तनु भसमै ढेरी ॥ बिनु नावै कैसी पति तेरी ॥ बाधे मुकति नाही जुग चारे जमकंकरि कालि पराता हे ॥९॥ जम दरि बाधे मिलहि सजाई ॥ तिसु अपराधी गति नही काई ॥ करण पलाव करे बिललावै जिउ कुंडी मीनु पराता हे ॥१०॥ साकतु फासी पड़ै इकेला ॥ जम वसि कीआ अंधु दुहेला ॥ राम नाम बिनु मुकति न सूझै आजु कालि पचि जाता हे ॥११॥ सतिगुर बाझु न बेली कोई ॥ ऐथै ओथै राखा प्रभु सोई ॥ राम नामु देवै करि किरपा इउ सललै सलल मिलाता हे ॥१२॥ भूले सिख गुरू समझाए ॥ उझड़ि जादे मारगि पाए ॥ तिसु गुर सेवि सदा दिनु राती दुख भंजन संगि सखाता हे ॥१३॥ गुर की भगति करहि किआ प्राणी ॥ ब्रहमै इंद्रि महेसि न जाणी ॥ सतिगुरु अलखु कहहु किउ लखीऐ जिसु बखसे तिसहि पछाता हे ॥१४॥ अंतरि प्रेमु परापति दरसनु ॥ गुरबाणी सिउ प्रीति सु परसनु ॥ अहिनिसि निरमल जोति सबाई घटि दीपकु गुरमुखि जाता हे ॥१५॥ भोजन गिआनु महा रसु मीठा ॥ जिनि चाखिआ तिनि दरसनु डीठा ॥ दरसनु देखि मिले बैरागी मनु मनसा मारि समाता हे ॥१६॥ सतिगुरु सेवहि से परधाना ॥ तिन घट घट अंतरि ब्रहमु पछाना ॥ नानक हरि जसु हरि जन की संगति दीजै जिन सतिगुरु हरि प्रभु जाता हे ॥१७॥५॥११॥ {पन्ना 1031-1032} पद्अर्थ: गुरदेव = हे गुर देव! हे सबसे बड़े देवते! हे प्रभू! मुरारी = (मुर+अरि, मुर दैत्य का वैरी) दैत्यों का नाश करने वाला। चोज = करिश्मे, तमाशे। पूरा = सारे गुणों का मालिक। बिधाता = पैदा करने वाला।1। आदि = जगत के आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। घटि घटि = (तू) हरेक घट में (है)। रूपु अनूपु = तेरा रूप ऐसा है कि उस जैसा कोई और रूप नहीं (अन+ऊप। ऊप = उपमा)। तेरो = तेरा।2। जोति जग जीवन = जगत के जीवन प्रभू की ज्योति। भली = शोभा दे रही है। सभि = सारे। तिहु लोई = तीनों भवनों में। लोई = लोक, भवन ('कहत कबीर सुनहु रे लोई'। रे लोई = हे जगत!)। जगत पित = जगत का पिता।3। उपाइ = पैदा करके। जीउ = जीवात्मा। पाइआ = रख दिया। देही = शरीर। दरवाजे = कान नाक आदि छेद, कर्म इन्द्रियां। दसवा = दसवाँ दरवाजा (जहाँ से गुजर के परमात्मा के घर पहुँचा जाता है)। रहाता = रखता है।4। चारि नदी = (हिंसा, मोह, लोभ व क्रोध = ये) चारों नदियां। असराला = भयानक। निराला = विरला, बिल्कुल अलग। साकत = माया ग्रसित जीव। दाझहि = जलते हैं। गुरि = गुरू ने। राता = रति हुआ, मस्त।5। अपु = (आप्) पानी। तेजु = आग। वाइ = वायु, हवा। पंच ततु = पाँच तत्वी शरीर। तिन महि = इन तत्वों के मेल में। घरि = इस शरीर घर में। रंगि राता = प्रभू के प्रेम रंग में रति। भ्राता = भ्रांति।6। पतीजै = प्रसन्न होता है, खिला रहता है। टेक = आसरा। चोरु = (विकारों में फसा हुआ) चोर मन। मुहै = लूटता है। इनि = इस ने। इनि साकति = इस साकत ने। दूतु = वैरी।7। दुंदर = शोर मचाने वाले। दूत = कामादिक वैरी। भीहाले = भयानक। बेताले = प्रेत। खिंचोताणि = अपनी अपनी तरफ खींचोतान। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।8। भसमै = भसम की, राख की। मुकति = मुक्ति, खलासी। जुग चारे = चारों युगों में ही, कभी भी । जम कंकरि = जम के किंकर (दास) ने, जम दूत ने। कालि = काल ने, आत्मिक मौत ने। पराता = पहचाना।9। छरि = दर पर। मिलहि = मिलती हैं। गति = हालत, दशा। करण पलाव = (करुणा प्रलाप) तरस भरे विलाप, तरले। मीनु = मछली। पराता = पड़ जाता है, फस जाता है।10। पड़ै = पड़ता है। जम वसि = जम के वश में। अंधु = (माया के मोह में) अंधा। दुहेला = दुखी। आजु कालि = आज भी कल भी, हर रोज। पचि जाता = खुआर होता है।11। बेली = मदद करने वाला, मित्र। अैथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में सललै = पानी में।12। उझड़ि = गलत रास्ते पर। मारगि = (ठीक) रास्ते पर। दुख भजन = दुखों को नाश करने वाला प्रभू। संगि = साथ। सखाता = सखा, साथी।13। ब्रहमै = ब्रहमा ने। इंद्रि = इन्द्र ने। महेसि = महेश ने। अलखु = (अलक्ष्य) अदृष्य, जिस के कोई खास चक्र चिन्ह नहीं। तिसहि = उस ने ही।14। परसनु = छोह, मेल। अहि = दिन। निसि = रात। निरमल = पवित्र। सबाई = सारी दुनिया में। घटि = (अपने) हृदय घट में।15। महा रसु = बड़े स्वाद वाला। जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। देखि = देख के। बैरागी = प्रेमी जीव। मनसा = मन का मायावी फुरना (मनीषा = इच्छा, ख्वाहिश)।16। से = वह लोग। परधाना = जाने माने हुए। तिन = उन लोगों ने। नानक = नानक को।17। अर्थ: हे प्रभू! मैं तेरी शरण आ पड़ा हॅूँ, तू (कामादिक) वैरियों को मारने वाला है, तू सब ताकतों का मालिक है, तू दया का श्रोत है। कोई जीव तेरे करिश्मों को समझ नहीं सकता, तू सब गुणों का मालिक है, तू सबमें व्यापक है, तू सृष्टि को पैदा करने वाला है।1। जगत के शुरू से ही जुगों के आरम्भ से ही तू (सब जीवों की) पालना करता आ रहा है, तू हरेक शरीर में मौजूद है, तेरा रूप ऐसा है कि उस जैसा और किसी का नहीं, तू दया का श्रोत है। जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू संसार की कार चला रहा है, हरेक जीव तेरा ही प्रेरित हुआ (कर्म) करता है।2। जगत के जीवन प्रभू की ज्योति हरेक के अंदर शोभा दे रही है, सारे शरीरों में व्यापक हो के प्रभू स्वयं ही अपने नाम का रस पी रहा है, भोग रहा है। यह हरी-नाम-रस स्वयं ही (जीवों में बैठा) ले रहा है, स्वयं ही (जीवों को यह नाम-रस) देता है। जगत का पिता प्रभू तीनों ही भवनों में मौजूद है और सब दातें दे रहा है।3। जगत पैदा करके प्रभू ने (मानो, एक) खेल बना दी है, हवा पानी आग (आदि तत्वों को इकट्ठा करके और शरीर बना के उस में) जीवात्मा टिका दी है। इस शरीर-नगरी को उसने नौ दरवाजे (तो प्रकट रूप में) लगा दिए हैं, (जिस दरवाजे से उसके घर में पहुँचते हैं) वह दसवाँ दरवाजा (उसने) गुप्त रखा हुआ है।4। (इस जगत में निर्दयता मोह लोभ और क्रोध) चार आग की भयानक नदियां हैं। पर कोई विरला मनुष्य जो गुरू की शरण पड़ता है वह गुरू के शबद में जुड़ के इस बात को समझता है, (वरना) माया-ग्रसित जीव बुरी मति के पीछे लग के (इन नदियों में) गोते खाते हैं जलते हैं। जिन्हें गुरू ने (इन अग्नि-नदियों से) बचा लिया वह परमात्मा में सुरति जोड़े रखते हैं।5। पानी आग हवा धरती और आकाश- इन पाँचों के मेल से परमात्मा ने पंच-तत्वी घर बना दिया है उस घर में जीवात्मास का निवास कर दिया है। जो जीव सतिगुरू के शबद में जुड़ते हैं वह माया के अहंकार और माया की खातिर भटकना छोड़ के परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं।6। जिस मनुष्य का ये मन गुरू के शबद में भीग जाता है (शबद में खुश हो के जुड़ता है) वह परमात्मा के नाम में जुड़ के प्रसन्न होता है, परमात्मा के नाम के बिना वह और कोई आसरा नहीं तलाशता। पर जो मनुष्य माया-ग्रसित है उसके अंदर (विकारी मन-) चोर का घर-घाट लुटता जाता है, इस माया-ग्रसित जीव ने इस चोर को पहचाना ही नहीं।7। जिस मनुष्य के अंदर शोर मचाने वाले और डरावने भूतों जैसे कामादिक वैरी बसते हों और वह भूत अपनी-अपनी तरफ को खिंचातानी कर रहे हों, वह मनुष्य गुरू के शबद में सुरति-सूझ से वंचित रह के पैदा होता मरता रहता है, अपनी इज्जत गवा लेता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।8। हे जीव! तू सारी उम्र झूठ (रूपी) कलॅर का ही (व्यापार करता है), शरीर भी आखिर राख की ढेरी हो जाने वाला है (तेरे पल्ले क्या पड़ा है?)। परमात्मा के नाम से टूट के तू अपनी इज्जत गवा लेता है। माया के मोह में बंधे हुए की मुक्ति प्रभू के नाम के बिना कभी भी नहीं हो सकेगी (ऐसे है जैसे) काल-जमदूत ने तुझे (खास तौर पर) पहचाना हुआ है (कि यह मेरा शिकार है)।9। (झूठ-कॅलर के व्यापारी को) जम के दर पर बँधे हुए को सजाएं मिलती हैं, उस (बिचारे) दुष्कर्मी का बुरा हाल होता है, बिलकता है, करुणाप्रलाप करता है (पर मोह के फंदे मे से मुक्ति नहीं मिलती) जैसे मछली कुंडी में फस जाती है।10। माया-ग्रसित माया के मोह में अंधा हुआ जीव जम के वश में पड़ा हुआ दुखी होता है, उसकी अपनी अकेली जान ही उस फंदे में फसी होती है। (वह माया-ग्रसित जीव प्रभू-नाम से वंचित रहता है, और) हरी-नाम के बिना मुक्ति का कोई तरीका नहीं सूझ सकता, नित्य (मोह के फंदे में ही) दखी होता है।11। सतिगुरू के बिना (जीवन-राह बताने वाला) कोई मददगार नहीं बनता (गुरू ही बताता है कि) लोक-परलोक में परमात्मा ही (जीव की) रक्षा करने वाला है। (सतिगुरू) मेहर कर के परमात्मा का नाम बख्शता है, इस तरह (जीव परमात्मा के चरणों में इस तरह मिल जाता है जैसे) पानी में पानी मिल जाता है।12। भूले हुए लोगों को शिक्षा दे के गुरू (सही जीवन-राह की) समझ बख्शता है, गलत राह पर जाते को (ठीक) राह पर डालता है। (हे भाई! तू) दिन-रात उस गुरू की बताई हुई कार कर। गुरू दुखों का नाश करने वाले परमात्मा में जोड़ के प्रभू के साथ मित्रता बना देता है।13। (संसारी जीव) गुरू की भक्ति की क्या कद्र जान सकते हैं? ब्रहमा ने, इन्द्र ने, शिव ने (भी यह कद्र) नहीं समझी। गुरू अलख (-प्रभू का रूप) है, उसको समझा नहीं जा सकता। गुरू जिस पर मेहर करता है वही (गुरू की) पहचान करता है।14। जिस मनुष्य के हृदय में (गुरू का) प्रेम है उसको (परमात्मा का) दीदार प्राप्त होता है, जिसकी प्रीति गुरू की बाणी के साथ बन गई उसको प्रभू-चरणों की छोह मिल जाती है। उसको सारी ही लोकाई में प्रभू की पवित्र ज्योति व्यापक दिखती है, गुरू की शरण पड़ कर उसको अपने हृदय में दिन-रात (ज्ञान का) दीया (जगमगाता) दिखता है।15। (गुरू के द्वारा मिला हुआ परमात्मा का) ज्ञान एक ऐसी (आत्मिक) खुराक है जो मीठी है और बहुत ही स्वादिष्ट है, जिसने यह स्वाद चखा है उसने परमात्मा के दीदार कर लिए हैं। जो प्रेमी (गुरू के द्वारा परमात्मा के) दर्शन करके उसके चरणों में जुड़ते हैं, उनका मन (अपनी) कामनाओं को मार के (सदा के लिए परमात्मा की याद में) लीन हो जाता है।16। जो मनुष्य सतिगुरू की बताई हुई सेवा करते हैं वह हर जगह आदर पाते हैं, वह हरेक शरीर के अंदर परमात्मा को बसता पहचान लेते हैं। (नानक की अरदास है कि) जिन लोगों ने सतिगुरू को परमात्मा का रूप समझ लिया है उन हरी के जनों की संगति नानक को भी मिल जाए (उनकी संगति में ही रह के) परमात्मा की सिफत-सालाह की दाति मिलती है।17।5।11। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |