श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1033 मारू महला १ दखणी ॥ काइआ नगरु नगर गड़ अंदरि ॥ साचा वासा पुरि गगनंदरि ॥ असथिरु थानु सदा निरमाइलु आपे आपु उपाइदा ॥१॥ अंदरि कोट छजे हटनाले ॥ आपे लेवै वसतु समाले ॥ बजर कपाट जड़े जड़ि जाणै गुर सबदी खोलाइदा ॥२॥ भीतरि कोट गुफा घर जाई ॥ नउ घर थापे हुकमि रजाई ॥ दसवै पुरखु अलेखु अपारी आपे अलखु लखाइदा ॥३॥ पउण पाणी अगनी इक वासा ॥ आपे कीतो खेलु तमासा ॥ बलदी जलि निवरै किरपा ते आपे जल निधि पाइदा ॥४॥ धरति उपाइ धरी धरम साला ॥ उतपति परलउ आपि निराला ॥ पवणै खेलु कीआ सभ थाई कला खिंचि ढाहाइदा ॥५॥ भार अठारह मालणि तेरी ॥ चउरु ढुलै पवणै लै फेरी ॥ चंदु सूरजु दुइ दीपक राखे ससि घरि सूरु समाइदा ॥६॥ पंखी पंच उडरि नही धावहि ॥ सफलिओ बिरखु अम्रित फलु पावहि ॥ गुरमुखि सहजि रवै गुण गावै हरि रसु चोग चुगाइदा ॥७॥ झिलमिलि झिलकै चंदु न तारा ॥ सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा ॥ अकथी कथउ चिहनु नही कोई पूरि रहिआ मनि भाइदा ॥८॥ पसरी किरणि जोति उजिआला ॥ करि करि देखै आपि दइआला ॥ अनहद रुण झुणकारु सदा धुनि निरभउ कै घरि वाइदा ॥९॥ अनहदु वाजै भ्रमु भउ भाजै ॥ सगल बिआपि रहिआ प्रभु छाजै ॥ सभ तेरी तू गुरमुखि जाता दरि सोहै गुण गाइदा ॥१०॥ आदि निरंजनु निरमलु सोई ॥ अवरु न जाणा दूजा कोई ॥ एकंकारु वसै मनि भावै हउमै गरबु गवाइदा ॥११॥ अम्रितु पीआ सतिगुरि दीआ ॥ अवरु न जाणा दूआ तीआ ॥ एको एकु सु अपर पर्मपरु परखि खजानै पाइदा ॥१२॥ गिआनु धिआनु सचु गहिर ग्मभीरा ॥ कोइ न जाणै तेरा चीरा ॥ जेती है तेती तुधु जाचै करमि मिलै सो पाइदा ॥१३॥ करमु धरमु सचु हाथि तुमारै ॥ वेपरवाह अखुट भंडारै ॥ तू दइआलु किरपालु सदा प्रभु आपे मेलि मिलाइदा ॥१४॥ आपे देखि दिखावै आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ आपे जोड़ि विछोड़े करता आपे मारि जीवाइदा ॥१५॥ जेती है तेती तुधु अंदरि ॥ देखहि आपि बैसि बिज मंदरि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती हरि दरसनि सुखु पाइदा ॥१६॥१॥१३॥ {पन्ना 1033-1034} नोट: मारू दखणी-दखणी किस्म की मारू रागिनी। पद्अर्थ: काइआ = शरीर। गढ़ = किला। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। पुरि = पुर में, शहर में। गगनंदरि = गगन अंदर, गगन में, आकाश में, दिमाग में। निरमाइलु = निर्मल, पवित्र। आपु = अपने आप को। उपाइदा = प्रकट करता है, टिकाता है।1। हटनाले = बाजार (जहाँ साथ साथ हाट हैं)। छजे = छॅजे। लेवै = लेता है, खरीदता है। बजर कपाट = मजबूत दरवाजे। जड़ि जाणै = बंद करने जानता है।2। घर जाई = घर की जगह। नउ घर = नौ इन्द्रियाँ। दसवै = दसवें घर में।3। इक वासा = इकट्ठे बसाए हैं। जलि = पानी के साथ। निवरै = बुझ जाती है। जल निधि = समुंद्र (में)।4। धरमसाला = धर्म कमाने की जगह। उतपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। पवणै = स्वासों का।5। भार अठारह = सारी बनस्पति। ढुलै = झूलता है। पवणै = पवन का। ससि = चंद्रमा। सूरु = सूर्य।6। पंखी पंच = (गुरमुख वृक्ष के) पाँच ज्ञानेन्द्रिय पक्षी। उडरि = उड़ के। रवै = सिमरता है।7। झिलमिल = बड़ी चमक के साथ। झिलकै = झिलमिलाता है। गैणारा = आकाश। अकथी = वह अवस्था जिसका बयान ना हो सके। कथउ = मैं बताता हूँ।8। रुणझुणकारु = एक रस मीठी आवाज। वाइदा = बजाता है।9। अनहदु = एक रस, लगातार। छाजै = छा रहा है, पसर रहा है, व्यापक है।10। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से रहित। ऐकंकारु = एक अकाल पुरख।11। सतिगुरि = गुरू ने। अपर = जिससे परे कोई नही। परंपर = परे से परे।12। गहिर = गहरा। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। चीरा = पल्लार, पाट, खिलारा। जाचै = माँगती है। करमि = कृपा से।13। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। हाथि = हाथ में। भंडारै = खजाने में।14। उथापे = नाश करता है, उखेड़ता है।15। तेती = वह सारी (दुनिया)। बैसि = बैठ के। बिज मंदरि = पक्के मन्दिर में।16। अर्थ: (लोग अपने बसने के लिए शहर बसाते हैं और रक्षा के लिए किले बनाते हैं, इन) शहरों और किलों (की गिनती) में (मनुष्य का) शरीर भी एक शहर है (ये शहर परमात्मा ने अपने बसने के लिए बसाया है), इस शरीर में इसके दसम-द्वार में प्रभू का सदा-स्थिर निवास है। वह परमात्मा पवित्र-स्वरूप है, उसका ठिकाना सदा कायम रहने वाला है, वह स्वयं ही अपने आप को (शरीरों के रूप में) प्रकट करता है।1। इस (शरीर-) किले के अंदर ही, मानो, छॅजे और बाजार हैं जिनमें प्रभू खुद ही सौदा खरीदता है और संभालता है। (माया के मोह के) मजबूत किवाड़ भी अंदर जड़े हुए हैं, परमात्मा खुद ही ये किवाड़ बंद करने जानता है और खुद ही गुरू-शबद में (जीव को जोड़ के किवाड़) खुला देता है।2। इस (शरीर) किले गुफा में परमात्मा की रिहायश की जगह है। रज़ा के मालिक प्रभू ने अपने हुकम में ही (इस किले में) नौ घर बना दिए हैं (जो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं)। दसवें घर में (जो गुप्त है) सर्व-व्यापक लेखे से रहित और बेअंत प्रभू खुद बसता है। वह अदृश्य प्रभू स्वयं ही अपने आप के दर्शन करवाता है।3। (इस शरीर में उसने) हवा, पानी, आग (आदि तत्वों) को एक साथ बसा दिया है। (जगत रचना का) यह खेल और तमाश उसने खुद ही रचा हुआ है। जो जलती हुई आग उसकी कृपा से पानी से बुझ जाती है वही आग (बड़वा अग्नि) उसने समुंद्र में टिका रखी है।4। धरती पैदा करके परमात्मा ने इसको धर्म कमाने की स्थली बना दी है। जगत की उत्पक्ति और प्रलय करने वाला परमात्मा स्वयं ही है, पर खुद इस उत्पक्ति और प्रलय से निर्लिप रहता है। हर जगह (भाव, सब जीवों में) उसने श्वासों की खेल रची हुई है (भाव, श्वासों के आसरे जीव जीवित रखे हुए हैं), खुद ही (इन श्वासों की) ताकत खींच के (निकाल के शरीरों की खेल को) गिरा देता है।5। हे प्रभू! सारी सृष्टि की वनस्पति (तेरे आगे फूल भेटा करने वाली) तेरी मालिन है (जो हवा) फेरियाँ लेती है (भाव, हर तरफ चलती है, उस) वायु का (मानो) चवर (तेरे ऊपर) झूल रहा है। (अपने जगत-महल में) तूने खुद ही चाँद और सूरज (मानो) दो दीए (जला) रखे हैं, चँद्रमा के घर में सूरज समाया हुआ है (सूरज की किरणें चँद्रमा में पड़ कर चँद्रमा को रौशनी दे रही हैं)।6। गुरू (मानो) फल देने वाला वृक्ष है (इस वृक्ष से जो) गुरमुख आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त करते हैं, उनकी (ज्ञानेन्द्रियाँ) पक्षी उड़ के बाहर (विकारों की ओर) दौड़ते नहीं फिरते। गुरू के सन्मुख रहने वाला जीव-पक्षी आत्मिक अडोलता में रह कर नाम सिमरता है और प्रभू के गुण गाता है। प्रभू स्वयं ही उसको अपना नाम-रस (रूपी) चोग चुगाता है।7। ('सफल बिरख' अर्थात सफल वृक्ष गुरू से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त करने वाले गुरमुख के अंदर आत्म-प्रकाश पैदा होता है जो) ऐसा झिलमिल-झिलमिल करके चमकता है कि उसकी चमक तक ना चाँद, ना कोई तारा, ना सूरज की किरण, और ना ही आकाश की बिजली पहुँच सकती है (बराबरी कर सकती है)। (मैं उस प्रकाश का) बयान तो कर रहा हूँ (पर वह प्रकाश) बयान से बाहर है उसका कोई निशान नहीं दिया जा सकता। (जिस मनुष्य के अंदर वह प्रकाश अपना) ज़हूर करता है उसके मन को वह बहुत भाता है।8। (जिस मनुष्य के अंदर 'सफल बिरख' गुरू की मेहर से) ईश्वरीय ज्योति की किरण प्रकाशमान होती है उसके अंदर (आत्मिक) रौशनी होती है। दया का श्रोत प्रभू स्वयं ही यह करिश्मे कर कर के देखता है। (उस गुरमुख के अंदर, मानो) एक-रस मीठी-मीठी सुर वाला गीत चल पड़ता है जिसकी धुनि सदा (उसके अंदर जारी रहती है)। (वह गुरमुख अपने अंदर, मानो, ऐसा साज़) बजाने लग जाता है (जिसकी बरकति से) वह निडरता के आत्मिक ठिकाने में (टिक जाता है)।9। (उस गुरमुख के हृदय में) एक-रस (सिफत सालाह का बाजा बजता रहता है, उसके अंदर से) भटकनें और डर-सहम दूर हो जाते हैं (उसको प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा सारे संसार में मौजूद है और सब पर (अपनी रक्षा की) छाया कर रहा है। हे प्रभू! यह सारी रचना तेरी है (और तू ही इसकी रक्षा करने वाला है) - ('सफल बिरख' गुरू से नाम-फल प्राप्त करने वाला) गुरमुख ये बात समझ लेता है, वह गुरमुख तेरे गुण गाता है और तेरे दर पर शोभा पाता है।10। उस गुरमुख ने जान लिया है कि वह पवित्र स्वरूप परमात्मा ही सारी सृष्टि का आदि है और माया के प्रभाव से ऊपर है, उस जैसा दूसरा और कोई नहीं है। उस गुरमुख के मन में वही एक अकाल-पुरख बसता है और मन को प्यारा लगता है (इसकी बरकति से वह अपने अंदर से) हउमै-अहंकार दूर कर लेता है।11। जिस गुरमुख को सतिगुरू नें नाम-अमृत दिया उसने लेकर पीया उसको जगत में कहीं भी परमात्मा के बिना और कोई दूसरा नहीं दिखता, (उसके अंदर कोई मेर-तेर नहीं रह जाती)। (उस गुरमुख को निष्चय हो जाता है कि हर जगह) एक ही एक अपर-अपार परमात्मा स्वयं ही है, वह खुद ही (जीवों के कर्मों को) परख के (और पसंद करके उनको) अपने खजाने में मिला लेता है।12। हे गहरे और बड़े जिगरे वाले! तेरे साथ जान-पहचान डालनी और तेरे चरणों में जुड़ना ही सदा-स्थिर रहने वाला (उद्यम) है। (तू एक ऐसा बेअंत समुंद्र है कि) तेरे पसारे को कोई समझ नहीं सकता। जितनी भी सृष्टि है ये सारी की सारी तुझसे ही (हरेक पदार्थ) माँगती है। वह ही जीव कुछ प्राप्त करता है जिसको तेरी बख्शिश से कुछ मिलता है।13। हे बेपरवाह प्रभू! (लोग अपनी-अपनी समझ के अनुसार धार्मिक निहित कर्म करते हैं, पर) तेरे सदा-स्थिर-नाम का सिमरन ही असल धर्म है, और यह नाम तेरे कभी ना समाप्त होने वाले खजाने में मौजूद है। हे प्रभू! तू सदा दया का कृपा का घर है, सब का मालिक (प्रभू) है, तू खुद ही (अपने खजाने में से यह दाति दे के) अपनी संगति में मिला लेता है।14। प्रभू स्वयं ही (जीवों की) संभाल करके स्वयं ही (जीवों को) अपने दर्शन कराता है। खुद ही पैदा करता है खुद नाश करता है। करतार स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ता है, स्वयं ही (चरणों से) विछोड़ता है, स्वयं ही (किसी को) आत्मिक मौत मारता है, स्वयं ही आत्मिक जीवन देता है।15। ये जितनी भी सृष्टि है सारी की सारी तेरे हुकम के अंदर चल रही है। तू अपने सदा-स्थिर महल में बैठ के खुद ही सबकी संभाल कर रहा है। हे हरी! तेरा दास नानक तेरा चिर-स्थाई नाम सिमरता है (तेरे दीदार के लिए तेरे दर पर) विनती करता है (जिसको तेरा दीदार नसीब होता है, वह उस) दीदार की बरकति से आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।16।1।13। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |