श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1034 मारू महला १ ॥ दरसनु पावा जे तुधु भावा ॥ भाइ भगति साचे गुण गावा ॥ तुधु भाणे तू भावहि करते आपे रसन रसाइदा ॥१॥ सोहनि भगत प्रभू दरबारे ॥ मुकतु भए हरि दास तुमारे ॥ आपु गवाइ तेरै रंगि राते अनदिनु नामु धिआइदा ॥२॥ ईसरु ब्रहमा देवी देवा ॥ इंद्र तपे मुनि तेरी सेवा ॥ जती सती केते बनवासी अंतु न कोई पाइदा ॥३॥ विणु जाणाए कोइ न जाणै ॥ जो किछु करे सु आपण भाणै ॥ लख चउरासीह जीअ उपाए भाणै साह लवाइदा ॥४॥ जो तिसु भावै सो निहचउ होवै ॥ मनमुखु आपु गणाए रोवै ॥ नावहु भुला ठउर न पाए आइ जाइ दुखु पाइदा ॥५॥ निरमल काइआ ऊजल हंसा ॥ तिसु विचि नामु निरंजन अंसा ॥ सगले दूख अम्रितु करि पीवै बाहुड़ि दूखु न पाइदा ॥६॥ बहु सादहु दूखु परापति होवै ॥ भोगहु रोग सु अंति विगोवै ॥ हरखहु सोगु न मिटई कबहू विणु भाणे भरमाइदा ॥७॥ गिआन विहूणी भवै सबाई ॥ साचा रवि रहिआ लिव लाई ॥ निरभउ सबदु गुरू सचु जाता जोती जोति मिलाइदा ॥८॥ अटलु अडोलु अतोलु मुरारे ॥ खिन महि ढाहे फेरि उसारे ॥ रूपु न रेखिआ मिति नही कीमति सबदि भेदि पतीआइदा ॥९॥ हम दासन के दास पिआरे ॥ साधिक साच भले वीचारे ॥ मंने नाउ सोई जिणि जासी आपे साचु द्रिड़ाइदा ॥१०॥ पलै साचु सचे सचिआरा ॥ साचे भावै सबदु पिआरा ॥ त्रिभवणि साचु कला धरि थापी साचे ही पतीआइदा ॥११॥ वडा वडा आखै सभु कोई ॥ गुर बिनु सोझी किनै न होई ॥ साचि मिलै सो साचे भाए ना वीछुड़ि दुखु पाइदा ॥१२॥ धुरहु विछुंने धाही रुंने ॥ मरि मरि जनमहि मुहलति पुंने ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई मेलि न पछोताइदा ॥१३॥ आपे करता आपे भुगता ॥ आपे त्रिपता आपे मुकता ॥ आपे मुकति दानु मुकतीसरु ममता मोहु चुकाइदा ॥१४॥ दाना कै सिरि दानु वीचारा ॥ करण कारण समरथु अपारा ॥ करि करि वेखै कीता अपणा करणी कार कराइदा ॥१५॥ से गुण गावहि साचे भावहि ॥ तुझ ते उपजहि तुझ माहि समावहि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१६॥२॥१४॥ {पन्ना 1034} पद्अर्थ: पावा = पाऊँ, मैं पा सकूँ। भावा = मैं अच्छा लगूँ। भाइ = भाय, प्रेम से। भाणे = (जो) अच्छे लगे। भावहि = (उनको) अच्छा लगता है। करते = हे करतार! रसन = जीभ। रसाइदा = रसीली बनाता है।1। मुकतु = विकारों से स्वतंत्र। हरि = हे हरी! आप = स्वै भाव। गवाइ = गवाय, गवा के। अनदिनु = हर रोज।2। ईसरु = शिव। तपे = तप करने वाले।3। भाणै = मर्जी से, रजा में। साह = श्वास। लवाइदा = लेने देता है।4। निहचउ = जरूर। आपु = अपने आप को। गणाऐ = बड़ा जताता है। नावहु = नाम से।5। हंसा = जीव। तिसु विचि = उस (काया) में। अंम्रितु करि = नाम अमृत की बरकति से। पीवै = पी लेता है, खत्म कर लेता है। बाहुड़ि = फिर, दोबारा।6 सादहु = स्वाद से। भोगहु = माया के भोगों से। विगोवै = दुखी होता है। हरखहु = खुशी से।7। विहूणी = बगैर। सबाई = सारी दुनिया। साचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। जाता = पहचान लिया।8। फेरि = दोबारा, फिर। मिति = मर्यादा, माप, मिनती। भेदि = भेद के।9। साधिक = साधना करने वाले। जिणि = जीत के। साचु = सदा स्थिर नाम। द्रिढ़ाइदा = मन में पक्का करता है।10। सचिआरा = सच के वणजारे। साचे = सदा स्थिर प्रभू को। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में।11। किनै = किसी को भी। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। वीछुड़ि = विछुड़ के।12। धुराहु = धुर से ही। धाही = धाड़ें मार के (जोर से चिल्ला चिल्ला के)। मुहलति = जिंदगी का समय। पुंनै = पुग जाने पर।13। भुगता = भोगने वाला। त्रिपता = तृप्त हुआ। मुकता = भोगों से स्वतंत्र। मुकतीसरु = मुकती ईसर, मुक्ति का मालिक। चुकाइदा = समाप्त कर देता है।14। दाना कै सिरि = सब दानों के सिर पर, सब बख्शिशों से उक्तम। करण कारण = जगत को रचने वाला। वेखै = संभाल करता है। करणी = करने योग्य।15। से = वह लोग। ते = से। मिलि = मिल के।16। अर्थ: हे सदा-स्थिर (चिर-स्थाई) प्रभू! अगर मैं तुझे अच्छा लगूँ, तो ही तेरे दर्शन कर सकता हूँ, और तेरे प्रेम में (जुड़ के) तेरी भक्ति (कर सकता हूँ, तथा) तेरे गुण गा सकता हूँ। हे करतार! जो लोग तुझे प्यारे लगते हैं उन्हें तू प्यारा लगता है। तू स्वयं ही उनकी जीभ में (अपने नाम का) रस पैदा करता है।1। हे प्रभू! तेरे भगत तेरे दरबार में सुंदर लगते हैं। हे हरी! तेरे दास (माया के बँधनों से) स्वतंत्र हो जाते हैं। वे स्वै भाव मिटा के तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं, और हर रोज (हर समय) तेरा नाम सिमरते हैं।2। शिव, ब्रहमा अनेकों देवी-देवते, इन्द्र देवता, तपी लोग, ऋषि-मुनि -ये सब तेरी ही सेवा-भगती करते हैं (भाव, चाहे ये कितने ही बड़े गिने जाएं, पर तेरे सामने ये तेरे साधारण से सेवक हैं)। अनेकों जतधारी, और अनेकों ही बनों में बसने वाले त्यागी (तेरे गुण गाते हैं, पर तेरे गुणों का) कोई भी अंत नहीं पा सकता।3। जब तक परमात्मा स्वयं समझ ना बख्शे कोई जीव (परमात्मा की भगती करने की) सूझ प्राप्त नहीं कर सकता। परमात्मा जो कुछ करता है अपनी रजा में (अपनी मर्जी से) करता है। परमात्मा ने चौरासी लाख जूनियों में जीव पैदा किए हैं, वह अपनी मर्जी से ही इन जीवों को साँस लेने देता है (इनको जीवित रखता है)।4। (जगत में) वही कुछ अवश्य होता है जो उस करतार को अच्छा लगता है, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस अस्लियत को नहीं समझता, वह) अपने आप को बड़ा जताता है (और अहंकार में ही) दुखी होता है। परमात्मा के नाम से टूटा हुआ (मनमुख) कहीं आत्मिक शांति का ठिकाना नहीं पा सकता, पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है, और (इस चक्कर में ही) दुख पाता है।5। वह शरीर पवित्र है जिस में पवित्र (जीवन वाली) जीवात्मा बसती है (क्योंकि) उस (शरीर) में परमात्मा का नाम बसता है, (वह जीवात्मा सही अर्थों में) माया-रहित प्रभू का अंश है। प्रभू के नाम-अमृत की बरकति से वह मनुष्य अपने सारे दुख मिटा लेता है, और दोबारा वह कभी दुख नहीं पाता।6। बहुत ज्यादा (भोगों के) स्वादों से दुख ही मिलता है (क्योंकि) भोगों से (आखिर) रोग पैदा होते हैं और आखिर में मनुष्य दुखी होता है। (माया की) खुशियों से भी चिंता ही पैदा होती है जो कभी नहीं मिटती। परमात्मा की रज़ा में चले बिना मनुष्य भटकना में पड़ा रहता है।7। चिर-स्थाई रहने वाला परमात्मा सारी सृष्टि में गुप्त व्यापक है, पर इस बात से वंचित रह के सारी दुनिया भटक रही है। जिस मनुष्य ने गुरू का शबद, जो निर्भयता देने वाला है, अपने हृदय में बसाया है उसने सदा-स्थिर प्रभू को सदार सृष्टि में बसता पहचान लिया है। गुरू का शबद उसकी सुरति को परमात्मा की ज्योति में मिला देता है।8। मुर (आदि दैत्यों) का वैरी परमात्मा (मुरारी) चिर-स्थाई रहने वाला है, माया के मोह में कभी डोलने वाला नहीं, उसका स्वरूप कभी तोला-नापा नहीं जा सकता। वह (अपने रचे हुए जगत को) एक छिन में गिरा सकता है और दोबारा पैदा कर सकता है। उसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, उसके कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं कहे जा सकते, वह कितना बड़ा है और कैसा है- ये भी बयान से परे है। जो मनुष्य (अपने मन को गुरू के) शबद में भेद लेता है वह उस परमात्मा (की याद) में पतीज जाता है।9। मैं प्यारे प्रभू के उन दासों का दास हूँ जो उसके मिलने के प्रयत्न करते रहते हैं जो उस सदा-स्थिर परमात्मा के गुणों की विचार करते हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपना मान लेता है (भाव, नाम-जपने को जीवन का उद्देश्य निश्चत कर लेता है) वह (जगत में से जीवन की बाज़ी) जीत के जाता है। (पर ये खेलें जीव के अपने वश की नहीं) परमात्मा स्वयं ही अपना सदा-स्थिर नाम जीवों के दिल में दृढ़ कराता है।10। जिन मनुष्यों के पास चिर-स्थाई रहने वाला नाम है, वह उस सदा स्थ्रि प्रभू का रूप हो जाते हैं, वे चिर-स्थाई नाम के वनजारे हैं। जिस मनुष्य को प्रभू की सिफत-सालाह का शबद प्यारा लगता है वह सदा-स्थिर प्रभू को अच्छा लगता है। वह सदा-स्थिर प्रभू सारी सृष्टि में (व्यापक है), उसने अपनी सक्ता दे के सृष्टि रची है। (सदा-स्थिर नाम का वाणज्य कराने वाले मनुष्य) उस सदा-स्थिर प्रभू की याद में ही खुश रहता है।11। (वैसे तो) हरेक जीव कहता है कि परमात्मा सबसे बड़ा है पर सतिगुरू की शरण पड़े बिनाकिसी को सही समझ नहीं पड़ती। जो मनुष्य (गुरू से) सदा-स्थिर-प्रभू में जुड़ता है वह सदा-स्थिर-प्रभू को प्यारा लगता है। वह (उसके चरणों से विछुड़ता नहीं) विछुड़ के दुख नहीं पाता है।12। पर जो लोग आदि से ही प्रभू से विछुड़े चले आ रहे हैं वे ढाहें मार-मार के रोते आ रहे हैं। जब-जब जिंदगी का समय समाप्त हो जाता है वे मरते हैं पैदा होते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं (इस चक्कर में पड़े रहते हैं)। जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर करता है उसको (अपना नाम बख्श के) वडिआई देता है, उसको अपने चरणों में मिला लेता है, वह मनुष्य (दोबारा कभी नहीं विछुड़ता है) ना पछताता है।13। प्रभू स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है, (सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही सारे पदार्थों को भोगने वाला है, फिर खुद ही इन भोगों से तृप्त हो जानें वाला है और खुद ही पदार्थों के मोह से स्वतंत्र हो जाने वाला है। प्रभू स्वयं ही मुक्ति का मालिक है, स्वयें ही विकारों से मुक्ति की दाति देता है, स्वयं ही जीवों के अंदर से माया की ममता और माया के मोह को दूर करता है।14। परमात्मा इस जगत को रचने वाला है, सारी ताकतों का मालिक है और बेअंत है, वह जीवों को अपने गुणों की विचार बख्शता है और उसकी यह दाति उसकी और सब दातों से श्रेष्ठ है। सारी सृष्टि पैदा करके वह स्वयं ही इसकी संभाल करता है, और जीवों से वह कार करवाता है, जो कराने योग्य हो।15। जो जीव सदा-स्थिर प्रभू को प्यारे लगते हैं वे उसके गुण गाते हैं। हे प्रभू! सारे जीव-जंतु तुझसे पैदा होते हैं और तेरे में ही लीन हो जाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य चिर-स्थाई-प्रभू को सिमरता है (उसके दर पर) विनतियाँ करता है, वह उस सदा-स्थिर परमात्मा को मिल के आत्मिक आनंद पाता है।16।2।14। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |