श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला १ ॥ अरबद नरबद धुंधूकारा ॥ धरणि न गगना हुकमु अपारा ॥ ना दिनु रैनि न चंदु न सूरजु सुंन समाधि लगाइदा ॥१॥ खाणी न बाणी पउण न पाणी ॥ ओपति खपति न आवण जाणी ॥ खंड पताल सपत नही सागर नदी न नीरु वहाइदा ॥२॥ ना तदि सुरगु मछु पइआला ॥ दोजकु भिसतु नही खै काला ॥ नरकु सुरगु नही जमणु मरणा ना को आइ न जाइदा ॥३॥ ब्रहमा बिसनु महेसु न कोई ॥ अवरु न दीसै एको सोई ॥ नारि पुरखु नही जाति न जनमा ना को दुखु सुखु पाइदा ॥४॥ ना तदि जती सती बनवासी ॥ ना तदि सिध साधिक सुखवासी ॥ जोगी जंगम भेखु न कोई ना को नाथु कहाइदा ॥५॥ जप तप संजम ना ब्रत पूजा ॥ ना को आखि वखाणै दूजा ॥ आपे आपि उपाइ विगसै आपे कीमति पाइदा ॥६॥ ना सुचि संजमु तुलसी माला ॥ गोपी कानु न गऊ गुोआला ॥ तंतु मंतु पाखंडु न कोई ना को वंसु वजाइदा ॥७॥ करम धरम नही माइआ माखी ॥ जाति जनमु नही दीसै आखी ॥ ममता जालु कालु नही माथै ना को किसै धिआइदा ॥८॥ निंदु बिंदु नही जीउ न जिंदो ॥ ना तदि गोरखु ना माछिंदो ॥ ना तदि गिआनु धिआनु कुल ओपति ना को गणत गणाइदा ॥९॥ वरन भेख नही ब्रहमण खत्री ॥ देउ न देहुरा गऊ गाइत्री ॥ होम जग नही तीरथि नावणु ना को पूजा लाइदा ॥१०॥ ना को मुला ना को काजी ॥ ना को सेखु मसाइकु हाजी ॥ रईअति राउ न हउमै दुनीआ ना को कहणु कहाइदा ॥११॥ भाउ न भगती ना सिव सकती ॥ साजनु मीतु बिंदु नही रकती ॥ आपे साहु आपे वणजारा साचे एहो भाइदा ॥१२॥ बेद कतेब न सिम्रिति सासत ॥ पाठ पुराण उदै नही आसत ॥ कहता बकता आपि अगोचरु आपे अलखु लखाइदा ॥१३॥ जा तिसु भाणा ता जगतु उपाइआ ॥ बाझु कला आडाणु रहाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए माइआ मोहु वधाइदा ॥१४॥ विरले कउ गुरि सबदु सुणाइआ ॥ करि करि देखै हुकमु सबाइआ ॥ खंड ब्रहमंड पाताल अर्मभे गुपतहु परगटी आइदा ॥१५॥ ता का अंतु न जाणै कोई ॥ पूरे गुर ते सोझी होई ॥ नानक साचि रते बिसमादी बिसम भए गुण गाइदा ॥१६॥३॥१५॥ {पन्ना 1035-1036}

पद्अर्थ: अरबद = (अर्बुद) दस करोड़ (साल)। नरबद = न+अरबद, जिसके लिए शब्द 'अरबद' भी ना प्रयोग किया जा सके, गिनती से परे। धुंधूकारा = घोर अंधेरा।

(नोट: घोर अंधकार में पता नहीं चल सकता कि यहाँ क्या कुछ पड़ा है) उस हालत की बाबत कोई भी मनुष्य कुछ नहीं बता सकता।

धरणि = धरती। गगना = आकाश। रैनि = रात। सुंन = शून्य। सुंन समाधि = वह समाधि जिसमें प्रभू के अपने आप के बिना और कुछ भी नहीं था।1।

खाणी = जगत उत्पक्ति के चार श्रोत: अण्डज, उत्भुज, जेरज और सेतज। बाणी = जीवों की चार बाणियाँ। ओपति = उत्पक्ति। खपति = नाश, प्रलय। सपत = सप्त, सात। सागर = समुंद्र।2।

तदि = तब। मछु = मातृ लोक। पइआला = पाताल। खै = क्ष्य, नाश करने वाला। काला = काल।3।

महेसु = शिव। को = कोई जीव।4।

सती = उच्च आचरण बनाने का प्रयत्न करने वाला। जती = जत धारण करने का यतन करने वाला। बनवासी = जंगल में रहने वाला त्यागी। सिध = जोग साधना में सिद्धहस्त जोगी। साधिक = साधना करने वाला। सुख वासी = सुखों में रहने वाला, गृहस्ती। जंगम = शिव उपासक जोगियों का एक वेश। नाथु = जोगियों का गुरू।5।

संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के साधन। गोपी = ग्वालनि। कानु = कृष्ण। गुोआला = गायों का रखवाला, गोपाला । वंसु = बाँसुरी।7।

(नोट: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ो' और 'ु' लगी हुई हैं, असल शब्द 'गोआला' है, यहाँ पढ़ना है 'गुआला')।

माखी = शहद, मीठी। आखी = आँखों से। ममता = अपनत्व, ये ख्याल कि मेरी चीज है।8।

बिंदु = उस्तति, वडिआई, खुशमद। माछिंदे = मछिन्द्र नाथ । कुल ओपति = कुलों की उत्पक्ति। गणत = लेखा।9।

देउ = देवता।10।

मसाइकु = शेख। राउ = राजा। रईअति = प्रजा।11।

सिव = शिव, चेतंन। सकती = जड़ पदार्थ। बिंदु = वीर्य। रकती = रक्त, लहू।12।

कतेब = पश्चिमी मजहबों की किताबें (कुरान, अंजील, तौरेत व जंबूर)। उदै = सूरज का चढ़ना। आसत = सूरज का डूबना, अस्त। अगोचरु = अ+गो+चर। जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच न हो सके (गो = इन्द्रियां। चर = पहुँच)।13।

तिसु भाणा = उस प्रभू को अच्छा लगा। आडाणु = पसारा। रहाइआ = टिकाया।14।

गुरि = गुरू ने। देखै = संभाल करता है। अरंभे = बनाए। गुपतहु = गुप्त हालत से।15।

ते = से। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। बिसमादी = हैरान। बिसम = हैरान।16।

अर्थ: (जगत की रचना से पहले बेअंत समय जिसकी गिनती के वास्ते) अरबद नरबद (शब्द भी नहीं बरते जा सकते, ऐसे) घोर अंधेरे की हालत थी (भाव, ऐसे हालात थे) जिसके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। तब ना धरती थी, ना आकाश था, ना ही कहीं बेअंत प्रभू का हुकम चल रहा था। तब ना दिन था, ना रात थी, ना चाँद था, ना सूरज था। तब परमात्मा अपने आप में ही (माना ऐसी) समाधि लगाए बैठा था जिसमें कोई किसी किस्म का फुरना नहीं था।1।

जब ना जगत-रचना की चार-खाणियाँ थीं ना जीवों की चार बाणियाँ थीं। तब ना हवा थी, ना पानी था, ना उत्पक्ति थी ना पर्लय था, ना जन्म था ना मरना था। तब ना धरती के नौ-खण्ड थे ना पाताल था, ना सात-समुंद्र थे ना ही नदियों में पानी बह रहा था।2।

तब ना स्वर्ग-लोक था, ना मातृ-लोक था और ना ही पाताल था। तब ना कोई दोज़क था ना बहिश्त था, ना ही मौत लाने वाला काल था। तब ना स्वर्ग था ना नर्क था, ना जनम था ना मरण था, ना कोई पैदा होता था ना कोई मरता था।3।

तब ना कोई ब्रहमा था ना विष्णू था और ना ही शिव था। तब एक परमात्मा ही परमात्मा था, और कोई व्यक्ति नहीं था दिखता। तब ना कोई स्त्री था ना ही कोई मर्द था तब ना कोई जाति थी ना ही किसी जाति में कोई जन्म लेता था। ना कोई दुख भोगने वाला जीव ही था।4।

तब ना कोई जती था ना कोई सती था ना ही कोई त्यागी था। तब ना कोई सिद्ध था ना साधिक थे और ना ही कोई गृहस्ती था। तब ना कोई जोगियों का ना जंगमों का भेष था, ना ही कोई जोगियों का गुरू कहलवाने वाला था।5।

तब ना कहीं जप हो रहे थे ना तप हो रहे थे, ना कहीं संजम साधे जा रहे थे ना व्रत रखे जा रहे थे ना ही पूजा की जा रही थी। तब कोई ऐसा जीव नहीं था जो परमात्मा के बिना किसी और का जिक्र कर सकता। तब परमात्मा खुद ही अपने आप में प्रकट हो के खुश हो रहा था और अपने बड़प्पन का मूल्य खुद ही डालता था।6।

तब ना कहीं स्वच्छता रखी जा रही थी, ना कहीं कोई संजम किया जा रहा था, ना कहीं तुलसी की माला थी। तब ना कहीं कोई गोपी था ना कोई कान्हा था, ना कोई गऊ थी ना गऊऔं का (रखवाला) ग्वाला था। तब ना कोई तंत्र-मंत्र आदि पाखण्ड था ना ही कोई बाँसुरी बजा रहा था।7।

तब ना कहीं धार्मिक कर्म-काण्ड ही थे ना कहीं मीठी माया थी। तब ना कहीं कोई (ऊँची-नीची) जाति थी और ना ही किसी जाति में कोई जन्म लेता आँखों से देखा जा सकता था। तब ना कहीं माया थी ना ममता का जाल था, ना कहीं किसी के सिर पर काल (कूकता था)। ना कोई जीव किसी का सिमरन-ध्यान धरता था।8।

तब ना कहीं निंदा थी ना खुशामद थी, ना कोई जीवात्मा थी ना कोई जिंद थी। तब ना गोरख था ना माछिन्द्र नाथ था। तब ना कहीं (धार्मिक पुस्तकों की) ज्ञान-चर्चा थी ना कहीं समाधि-स्थित ध्यान था, तब ना कहीं कुलों की उत्पक्ति थी और ना ही कोई (अच्छी कुल में पैदा होने का) मान करता था।9।

तब ना कोई ब्राहमण खत्री आदि वर्ण थे ना कहीं जोगी-जंगम आदि भेख थे। तब ना कोई देवता था ना ही देवताओं के मन्दिर थे। तब ना कोई गऊ थी ना कहीं गायत्री थी। ना कहीं हवन थे ना यज्ञ हो रहे थे, ना कहीं तीर्थों का स्नान था और ना कोई (देव-) पूजा कर रहा था।10।

तब ना कोई मौलवी था ना काज़ी था, ना कोई शेख था ना हाज़ी था। तब ना कहीं प्रजा थी ना कोई राजा था, ना कहीं दुनियावी अहंकार था, ना ही कोई इस तरह की बातें ही करने वाला था।11।

तब ना कहीं प्रेम था ना कहीं भक्ति थी, ना कहीं जड़ था ना चेतन्न था। ना कहीं कोई सज्जन था ना मित्र था, ना कहीं पिता का वीर्य था ना माता का रक्त ही था। तब परमात्मा स्वयं ही शाह था स्वयं ही शाहूकार (वणज करने वाला), तब उस सदा-स्थिर प्रभू को यही कुछ अच्छा लगता था।12।

तब ना कहीं शास्त्र-स्मृतियाँ और वेद थे, ना कहीं कुरान अंजील आदि पश्चिमी पुस्तकें थीं। तब कहीं पुराणों का पाठ भी नहीं थे। तब ना कहीं सूरज का चढ़ना था ना डूबना था। तब ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाला परमात्मा खुद ही बोलने-चालने वाला था, खुद ही अदृश्य था, और खुद ही अपने आप को प्रकट करने वाला था।13।

जब उस परमात्मा को अच्छा लगा तब उसने जगत पैदा कर दिया। इस सारे जगत-पसारे को उसने (किसी दिखाई देते) सहारे के बिना ही (अपनी-अपनी जगह) टिका दिया। तब उसने ब्रहमा विष्णू और शिव भी पैदा कर दिए, (जगत में) माया का मोह भी बढ़ा दिया।14।

जिस किसी विरले व्यक्ति को गुरू ने उपदेश सुनाया (उसे ये समझ आ गई कि) परमात्मा जगत पैदा करके खुद ही संभाल कर रहा है, हर जगह उसका ही हुकम चल रहा है। उस परमात्मा ने स्वयं ही खंड-ब्रहमंड पाताल आदिक बनाए हैं और वह स्वयं ही गुप्त अवस्था से प्रकट हुआ है।15।

पूरे गुरू के माध्यम से ये समझ आ जाती है कि कोई भी जीव परमात्मा की ताकत का अंत नहीं जान सकता। हे नानक! जो लोग उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (के नाम-रंग) में रंगे जाते हैं वह (उसकी बेअंत ताकत और करिश्मे देख-देख के) हैरान ही हैरान होते हैं और उसके गुण गाते रहते हैं।16।3।15।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh