श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला १ ॥ सुंन कला अपर्मपरि धारी ॥ आपि निरालमु अपर अपारी ॥ आपे कुदरति करि करि देखै सुंनहु सुंनु उपाइदा ॥१॥ पउणु पाणी सुंनै ते साजे ॥ स्रिसटि उपाइ काइआ गड़ राजे ॥ अगनि पाणी जीउ जोति तुमारी सुंने कला रहाइदा ॥२॥ सुंनहु ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सुंने वरते जुग सबाए ॥ इसु पद वीचारे सो जनु पूरा तिसु मिलीऐ भरमु चुकाइदा ॥३॥ सुंनहु सपत सरोवर थापे ॥ जिनि साजे वीचारे आपे ॥ तितु सत सरि मनूआ गुरमुखि नावै फिरि बाहुड़ि जोनि न पाइदा ॥४॥ सुंनहु चंदु सूरजु गैणारे ॥ तिस की जोति त्रिभवण सारे ॥ सुंने अलख अपार निरालमु सुंने ताड़ी लाइदा ॥५॥ सुंनहु धरति अकासु उपाए ॥ बिनु थमा राखे सचु कल पाए ॥ त्रिभवण साजि मेखुली माइआ आपि उपाइ खपाइदा ॥६॥ सुंनहु खाणी सुंनहु बाणी ॥ सुंनहु उपजी सुंनि समाणी ॥ उतभुजु चलतु कीआ सिरि करतै बिसमादु सबदि देखाइदा ॥७॥ सुंनहु राति दिनसु दुइ कीए ॥ ओपति खपति सुखा दुख दीए ॥ सुख दुख ही ते अमरु अतीता गुरमुखि निज घरु पाइदा ॥८॥ साम वेदु रिगु जुजरु अथरबणु ॥ ब्रहमे मुखि माइआ है त्रै गुण ॥ ता की कीमति कहि न सकै को तिउ बोले जिउ बोलाइदा ॥९॥ सुंनहु सपत पाताल उपाए ॥ सुंनहु भवण रखे लिव लाए ॥ आपे कारणु कीआ अपर्मपरि सभु तेरो कीआ कमाइदा ॥१०॥ रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥ जनम मरण हउमै दुखु पाइआ ॥ जिस नो क्रिपा करे हरि गुरमुखि गुणि चउथै मुकति कराइदा ॥११॥ सुंनहु उपजे दस अवतारा ॥ स्रिसटि उपाइ कीआ पासारा ॥ देव दानव गण गंधरब साजे सभि लिखिआ करम कमाइदा ॥१२॥ गुरमुखि समझै रोगु न होई ॥ इह गुर की पउड़ी जाणै जनु कोई ॥ जुगह जुगंतरि मुकति पराइण सो मुकति भइआ पति पाइदा ॥१३॥ पंच ततु सुंनहु परगासा ॥ देह संजोगी करम अभिआसा ॥ बुरा भला दुइ मसतकि लीखे पापु पुंनु बीजाइदा ॥१४॥ ऊतम सतिगुर पुरख निराले ॥ सबदि रते हरि रसि मतवाले ॥ रिधि बुधि सिधि गिआनु गुरू ते पाईऐ पूरै भागि मिलाइदा ॥१५॥ इसु मन माइआ कउ नेहु घनेरा ॥ कोई बूझहु गिआनी करहु निबेरा ॥ आसा मनसा हउमै सहसा नरु लोभी कूड़ु कमाइदा ॥१६॥ सतिगुर ते पाए वीचारा ॥ सुंन समाधि सचे घर बारा ॥ नानक निरमल नादु सबद धुनि सचु रामै नामि समाइदा ॥१७॥५॥१७॥ {पन्ना 1037-1038}

पद्अर्थ: अपरंपर = वह प्रभू जो परे से परे है, जिससे परे और कुछ भी नहीं। अपरंपरि = अपरंपर ने, उस प्रभू ने जिससे परे और कुछ भी नहीं। सुंन = (शून्य), वह जिसके बिना और शून्य ही शून्य है, वह प्रभू जिसके बिना कुछ भी नहीं, प्रभू आप ही आप है। संन अपरंपरि = उस परमात्मा ने जिससे परे और कुछ भी नहीं और जो सिर्फ आप ही आप है। कला = सक्ता। धरी = धारण की हुई है। निरालमु = (निरालम्ब) जो अपने सहारे स्वयं ही है, जिसको किसी और सहारे की जरूरत नहीं (आलंब = सहारा)। अपार = जिसका परला किनारा नहीं पाया जा सकता। सुंनहु सुंनु = निरोल शून्य हालत, पूरी तरह से वह हालत जब उसके अपने आपे के बिना और कुछ भी नहीं होता।1।

सुंनै ते = शून्य से ही, निरोल अपने आप से ही। काइआ गढ़ राजे = शरीर किलों के राजे, जीव। जीउ = जीवात्मा। सुंने = शून्य में ही, निरोल अपने आप में ही।2।

महेसु = शिव। वरते = बीत गए। सबाऐ = सारे। पद = अवस्था, आत्मिक अवस्था। वीचारे = अपने सोच मण्डल में टिकाता है। पूरा = जो गलती बिल्कुल नहीं करता।3।

सपत सरोवर = सात सरोवर (पांच ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि)। जिनि = जिस परमात्मा ने। वीचारे = अपने सोच मण्डल में रखता है। तितु = उस में। सत सरि = शांति के सर में। तितु सत सरि = उस शांति के सर (प्रभू) में। बाहुड़ि = दोबारा।4।

गैणारे = आकाश। सुंने = शून्य में ही, निरोल अपने आप में ही।5।

सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। कल = कला, सक्ता। मेखुली = तड़ागी। खपाइदा = नाश करता है।6।

सुंनहु = शून्य से ही, निरोल अपने आप से ही। उपजी = पैदा हुई। सुंनि = निरोल उसके अपने आप में। सिरि = सिर से, सबसे पहले। उतभुज चलतु = उत्भुज का तमाशा, जैसे धरती में से बनस्पति अपने आप ही उग पड़ती है इस तरह का जगत रचना का करिश्मा। करतै = करतार ने। बिसमादु = हैरान करने वाला चरित्र। सबदि = अपने शबद (हुकम) द्वारा।7।

दुइ = दोनों। ओपति = उत्पक्ति। खपति = नाश, पर्लय। अमरु = जिसको मौत ना आए, जिसको आत्मिक मौत छू ना सके। अतीत = (माया के प्रभाव से) परे लांघा हुआ।8।

रिगु = ऋग वेद। जुजरु = यजुर्वेद। ब्रहमे मुखि = ब्रहमा के मुँह से। ता की = उस (परमात्मा) की।9।

सपत = 'सात। लिव लाऐ = लिव लगा के, ध्यान से। अपरंपरि = अपरंपर ने। सभु = हरेक जीव।10।

रज तम सत = माया के तीनों गुण। कल = कला। छाया = आसरा, साया। गुणि चउथै = चौथे गुण में।11।

दानव = दैत्य। गण = शिव जी के खास उपासक। गंधरब = गंधर्व, देवताओं के रागी। सभि = सारे।12।

गुर की पउड़ी = गुरू के बताए हुए राह पर चलना। कोई = कोई विरला। पराइण = आसरा। जुगह जुगंतरि = अनेकों जुगों से। पति = इज्जत।13।

पंच ततु = पाँच तत्वों से बना शरीर। देह = शरीर। संजोगी = संजोग से, संबंध बनने से। दुइ = दोनों। मसतकि = माथे पर।14।

निराले = निर्लिप। सतिगुर पुरख सबदि रते = जो बंदे सतिगुर पुरख के शबद में रंगे रहते हैं। हरि रसि = हरी के रस में। रिधि सिधि = आत्मिक ताकतें। गुरू ते = गुरू से।15।

कउ = को। घनेरा = बहुत। निबेरा = फैसला। निबेरा करहु = (माया का नेह) खत्म कर दो। मनसा = (मनीषा, desire, wish) कामना। सहसा = सहम।16।

ते = से। वीचार = प्रभू के गुणों की विचार। सचे घर बारा = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की हजूरी। नादु = राग। धुनि = रौंअ। रामै नामि = परमात्मा के नाम में।17।

अर्थ: उस परमात्मा ने, जिससे परे और कुछ भी नहीं और जो निरोल स्वयं ही स्वयं है, अपनी ताकत खुद ही बनाई हुई है। वह अपर और अपार प्रभू अपने सहारे आप ही है (उसे किसी और आसरे की आवश्यक्ता नहीं पड़ती)। वह परमात्मा सिर्फ वह हालत भी खुद ही पैदा करता है जब उसके अपने आपे के बिना और कुछ भी नहीं होता, और आप ही अपनी कुदरति रच के देखता है।1।

हवा पानी (आदि तत्व) वह निरोल अपने आप से पैदा करता है। सृष्टि पैदा करके (अपने आप से ही) शरीर और शरीर-किलों के राजे (जीव) पैदा करता है। हे प्रभू! आग पानी आदि तत्वों के बने शरीर में जीवात्मा तेरी ही ज्योति है। तू निरोल अपने आप में अपनी शक्ति टिकाए रखता है।2।

ब्रहमा विष्णू शिव निरोल अपने आप से ही परमात्मा ने पैदा किए। सारे अनेकों जुग निरोल उसके अपने आप में ही बीतते गए। जो मनुष्य इस (हैरान कर देने वाली) हालत को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है वह (और और आसरे ढूँढने की) गलती नहीं करता। ऐसे पूर्ण मनुष्य की संगति करनी चाहिए वह औरों की भटकना भी दूर कर देता है।3।

परमात्मा ने (जीवों की पाँच ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि - इन) सात सरोवरों को भी अपने आप से ही बनाया है। जिस परमात्मा ने जीव पैदा किए हैं वह स्वयं ही उनको अपनी सोच मण्डल में रखता है। जिस मनुष्य का मन गुरू की शरण पड़ कर उस शांति के सर (प्रभू) में स्नान करता है, वह दोबारा जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ता।4।

चाँद सूरज आकाश भी प्रभू के निरोल अपने ही आप से बने। उसकी अपनी ही ज्योति सारे तीनों भवनों में पसर रही है। वह अदृष्ट और बेअंत परमात्मा निरोल अपने आप में किसी अन्य आसरे से बेमुहताज रहता है, और अपने ही आप में मस्त रहता है।5।

परमात्मा ने धरती आकाश निरोल अपने आप से ही पैदा किए। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू अपनी ताकत के सहारे ही बिना किसी और स्तम्भ के टिकाए रखता है। तीनों भवन पैदा करके परमात्मा स्वयं ही इनको माया की तड़ागी (में बाँधे रखता है)। स्वयं ही पैदा करता है स्वयं ही नाश करता है।6।

प्रभू निरोल अपने आप से ही जीव-उत्पक्ति की चार खाणियां बनाता है और जीवों की बाणी रचता है। उसके निरोल अपने आप से ही सृष्टि पैदा होती है और उसके आपे में ही समा जाती है। सबसे पहले करतार ने जगत-रचना का कुछ ऐसा करिश्मा रचा जैसे धरती में बनस्पति अपने आप उग पड़ती है। अपने हुकम से यह हैरान करने वाला तमाशा दिखा देता है।7।

निरोल अपने आप से ही परमात्मा ने दोनों दिन और रात बना दिए। खुद ही जीवों को जनम और मरण, सुख और दुख देता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर सुखों-दुखों से निर्लिप हो जाता है वह अटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है, वह उस घर को ढूँढ लेता है जो सदा उसका अपना बना रहता है (भाव, वह सदा के लिए प्रभू के चरणों में जुड़ जाता है)।8।

ब्रहमा के द्वारा साम, ऋग, यजुर व अर्थव- ये चारों वेद प्रभू ने अपने आप से ही प्रकट किए, माया के तीन गुण भी उसके अपने आप से ही पैदा हुए। कोई जीव उस परमात्मा का मूल्य नहीं आँक सकता। जीव उसी तरह ही बोल सकता है जैसे जीव प्रभू स्वयं प्रेरणा करता है।9।

प्रभू ने निरोल अपने आप से ही सात पाताल (और सात आकाश) पैदा किए, निरोल अपने आप से ही तीनों भवन बना के पूरे ध्यान से उनकी संभाल करता है। उस परमात्मा ने जिससे परे और कुछ भी नहीं है खुद ही जगत रचना का आरम्भ किया।

हे प्रभू! हरेक जीव तेरा ही प्रेरित हुआ कर्म करता है।10।

(माया के तीन गुण) रजो तमो और सतो (हे प्रभू!) तेरी ही ताकत के आसरे बने। जीवों के वास्ते पैदा होना और मरना तूने स्वयं ही बनाए, अहंकार का दुख भी तूने स्वयं ही (जीवों के अंदर) डाल दिया है।

परमात्मा जिस जीव पर मेहर करता है उसको गुरू की शरण डाल के (तीनों गुणों से ऊपर) चौथी अवस्था में पहुँचाता है और (माया के मोह से) मुक्ति देता है।11।

प्रभू के निरोल अपने आप से ही (विष्णू के) दस अवतार पैदा हुए। (निरोल अपने आप से ही परमात्मा ने) सृष्टि पैदा करके यह जगत-पसारा फैलाया। देवते, दैत्य, शिव के गण, (देवताओं के रागी) गंधर्व- ये सारे ही निरोल अपने आप से पैदा किए। सब जीव धुर से ही प्रभू के हुकम में ही अपने किए कर्मों के लिखे संस्कारों के अनुसार कर्म कमा रहे हैं।12।

जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (परमात्मा की इस बेअंत कला को) समझता है (वह उसकी याद से नहीं टूटता, और) उसको कोई रोग (विकार) पोह नहीं सकता। पर कोई विरला व्यक्ति गुरू की बताई हुई इस (सिमरन की) सीढ़ी (का भेद) समझता है। जुगों जुगों से ही (गुरू की यह सीढ़ी जीवों की) मुक्ति का साधन बनी आ रही है। (जो मनुष्य सिमरन की इस सीढ़ी का आसरा लेता है) वह विकारों से निजात हासिल कर लेता है और प्रभू की दरगाह में इज्जत पाता है।13।

पाँच तत्वों से बना हुआ ये मनुष्य का शरीर निरोल प्रभू के अपने आप से ही प्रकट हुआ। इस शरीर के संयोग के कारण जीव कर्मों में व्यस्त हो जाता है। प्रभू के हुकम अनुसार ही जीव के किए अच्छे और बुरे कर्मों के संस्कार उसके माथे पर लिखे जाते हैं, इस तरह जीव पाप और पुन्य (के बीज) बीजता है (और उनका फल भोगता है)।14।

जो मनुष्य सतिगुरू पुरख के शबद में रति रहते हैं जो प्रभू के नाम-रस में मस्त रहते हैं, वह मनुष्य ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं, वे माया के प्रभाव से निर्लिप रहते हैं।

आत्मिक शक्तियाँ ऊँची बुद्धि और परमात्मा के साथ गहरी सांझ (की दाति) गुरू से ही मिलती है। अच्छे भाग्यों से गुरू (शरण आए जीव को प्रभू-चरणों में) जोड़ देता है।15।

हे ज्ञानवान पुरुषो! इस मन को माया का बहुत मोह चिपका रहता है; (इसके राज़ को) समझो और इस मोह को खत्म करो। जो मनुष्य लोभ के प्रभाव तहत नित्य माया के मोह का धंधा ही करता रहता है उसको (दुनियां की) आशाएं-कामनाएं-अहंकार-सहम (आदि) चिपके रहते हैं।16।

जो मनुष्य गुरू से परमात्मा के गुणों की विचार (की दाति) प्राप्त कर लेता है, वह उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू की हजूरी में टिका रहता है, उसके चरणों में सुरति जोड़ के रखता है। हे नानक! उस मनुष्य के अंदर सदा-स्थिर प्रभू बसा रहता है सिफत-सालाह की रौंअ बनी रहती है जीवन को पवित्र करने वाला राग (जैसा) होता रहता है। वह मनुष्य सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।17।5।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh