श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1038

मारू महला १ ॥ जह देखा तह दीन दइआला ॥ आइ न जाई प्रभु किरपाला ॥ जीआ अंदरि जुगति समाई रहिओ निरालमु राइआ ॥१॥ जगु तिस की छाइआ जिसु बापु न माइआ ॥ ना तिसु भैण न भराउ कमाइआ ॥ ना तिसु ओपति खपति कुल जाती ओहु अजरावरु मनि भाइआ ॥२॥ तू अकाल पुरखु नाही सिरि काला ॥ तू पुरखु अलेख अगम निराला ॥ सत संतोखि सबदि अति सीतलु सहज भाइ लिव लाइआ ॥३॥ त्रै वरताइ चउथै घरि वासा ॥ काल बिकाल कीए इक ग्रासा ॥ निरमल जोति सरब जगजीवनु गुरि अनहद सबदि दिखाइआ ॥४॥ ऊतम जन संत भले हरि पिआरे ॥ हरि रस माते पारि उतारे ॥ नानक रेण संत जन संगति हरि गुर परसादी पाइआ ॥५॥ तू अंतरजामी जीअ सभि तेरे ॥ तू दाता हम सेवक तेरे ॥ अम्रित नामु क्रिपा करि दीजै गुरि गिआन रतनु दीपाइआ ॥६॥ पंच ततु मिलि इहु तनु कीआ ॥ आतम राम पाए सुखु थीआ ॥ करम करतूति अम्रित फलु लागा हरि नाम रतनु मनि पाइआ ॥७॥ ना तिसु भूख पिआस मनु मानिआ ॥ सरब निरंजनु घटि घटि जानिआ ॥ अम्रित रसि राता केवल बैरागी गुरमति भाइ सुभाइआ ॥८॥ अधिआतम करम करे दिनु राती ॥ निरमल जोति निरंतरि जाती ॥ सबदु रसालु रसन रसि रसना बेणु रसालु वजाइआ ॥९॥ बेणु रसाल वजावै सोई ॥ जा की त्रिभवण सोझी होई ॥ नानक बूझहु इह बिधि गुरमति हरि राम नामि लिव लाइआ ॥१०॥ ऐसे जन विरले संसारे ॥ गुर सबदु वीचारहि रहहि निरारे ॥ आपि तरहि संगति कुल तारहि तिन सफल जनमु जगि आइआ ॥११॥ घरु दरु मंदरु जाणै सोई ॥ जिसु पूरे गुर ते सोझी होई ॥ काइआ गड़ महल महली प्रभु साचा सचु साचा तखतु रचाइआ ॥१२॥ चतुर दस हाट दीवे दुइ साखी ॥ सेवक पंच नाही बिखु चाखी ॥ अंतरि वसतु अनूप निरमोलक गुरि मिलिऐ हरि धनु पाइआ ॥१३॥ तखति बहै तखतै की लाइक ॥ पंच समाए गुरमति पाइक ॥ आदि जुगादी है भी होसी सहसा भरमु चुकाइआ ॥१४॥ तखति सलामु होवै दिनु राती ॥ इहु साचु वडाई गुरमति लिव जाती ॥ नानक रामु जपहु तरु तारी हरि अंति सखाई पाइआ ॥१५॥१॥१८॥ {पन्ना 1038-1039}

पद्अर्थ: आइ न जाई = आय न जाई, ना पैदा होता है ना मरता है। देखा = मैं देखता हूँ। जुगति = जीवन की जाच। समाई = एक हुई है। निरालमु = (निरालम्ब) जिसको किसी आसरे की आवश्क्ता नहीं। राइआ = राजा, परमात्मा।1।

छाइआ = छाया, परछाई, अक्स, प्रतिबिंब। भराउ = भाई। कमाइआ = कामा, नौकर। ओपति = जनम। खपति = नाश। अजरावरु = (अजर+अवरु)। अजर = जरा रहित, जिसको बुढ़ापा ना आ सके। अवरु = श्रेष्ठ। मनि = (जगत के जीवों के) मन में।2।

सिरि = सिर पर। अलेख = जिसकी तस्वीर ना बनाई जा सके। अगंम = अपहुँच। पुरखु = सब जीवों में व्यापक। सत = दान, सेवा। सत संतोखि = सेवा और संतोख में (रह के)। सबदि = गुरू के शबद में (जुड़ के)। सीतलु = ठंडा, शांत। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = भाव से। सहज भाइ = आत्मिक अडोलता के भाव से, पूर्ण आत्मिक अडोलता में (टिक के)।3।

वरताइ = वरता के, बाँट के, पसारा पसार के। घरि = घर में। बिकाल = (काल के विपरीत) जन्म। ग्रासा = ग्रास, भोजन मुँह में डालने की एक मात्रा। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभू। गुरि = गुरू ने। अनहद = एक रस। सबदि = शबद से।4।

माते = मस्त। रेण = चरणों की धूड़।5।

सभि = सारे। गुरि = गुरू ने। दीपाइआ = रौशन किया।6।

तनु = शरीर। आतम राम = सर्व व्यापक ज्योति। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल।7।

भूख पिआस = माया की भूख प्यास। रसि = स्वाद में। बैरागी = विरक्त। भाइ = प्रेम में। सुभाइआ = सुंदर लगा जाता है।8।

अधिआतम = (अध्यातम = the Supreme Spirit or the relation between the Supreme and the individual soul) जीवात्मा और परमात्मा का परस्पर गहरा संबंध बनाने वाले। निरंतरि = (निर+अंतर = having no intervening space) एक रस। रसालु = (रस+आलस) रस का घर, आत्मिक आनंद देने वाला। रसन रसि = रसों के रस में, महा श्रेष्ठ रस में। रसना = जीभ। बेणु = बँसरी।9।

त्रिभवण सोझी = तीनों भवनों में व्यापक प्रभू की सूझ। गुरमति = गुरू की मति से।10।

निरारे = निर्लिप। जगि = जगत में।11।

गुर ते = गुरू से। महल महली = महल का मालिक। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।12।

चतुर दस हट = चौदह भवन रूप हाट। दीवे दुइ = दो दीए, सूरज और चँद्रमा। साखी = गवाह। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। वसतु अनूप = वह चीज जिस जैसी और कोई नहीं। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए।13।

तखति = तख्त पर, सिंहासन पर, हृदय तख्त पर। लाइक = यौग्य, हकदार। पंच = पाँचों कामादिक। पाइक = सेवक। सहसा = सहम। भरमु = भटकना।14।

लिव जाती = लिव से सांझ डाल ली। तरु तारी = तैराकी करो, ऐसा तैरो, संसार समुंद्र से पार लांघने के प्रयत्न करो। सखाई = मददगार।15।

अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मुझे दीनों पर दया करने वाला परमात्मा दिखाई देता है। वह कृपा का श्रोत प्रभू ना पैदा होता है, ना मरता है। सब जीवों के अंदर (उसी की सिखलाई हुई) जीवन-जाच गुप्त रूप में बरत रही है (भाव, हरेक जीव उसी परमात्मा के आसरे जी रहा है, पर) वह पातशाह स्वयं और आसरों से बेमुथाज रहता है।1।

(दरअसल सदा टिकी रहने वाली हस्ती तो परमात्मा स्वयं है) जगत उस परमात्मा की छाया है (जब चाहे अपनी इस परछाई को अपने आप में ही गायब कर लेता है। वह परमात्मा का ना कोई पिता ना माँ, ना कोई बहिन ना भाई ना ही कोई सेवक। ना उसको जनम ना मौत, ना उसकी कोई कुल ना कोई जाति। उसको बुढ़ापा नहीं व्याप सकता, वह महान श्रेष्ठ हस्ती है (जगत के सब जीवों के) मन में वही प्यारा लगता है।2।

हे प्रभू! तू सब जीवों में व्यापक हो के भी मौत-रहित है, तेरे सिर पर मौत सवार नहीं हो सकती। तू सर्व-व्यापक है। जिस मनुष्य ने सेवा-संतोख (वाले जीवन) में (रह के) गुरू के शबद (में जुड़ के) पूरन अडोल आत्मिक अवस्था में (टिक के) तेरे चरणों में सुरति जोड़ी है उस का हृदय ठंडा-ठार हो जाता है।3।

माया के तीन गुणों का पसारा पसार के प्रभू स्वयं (इसके ऊपर) चौथे घर में टिका रहता है (जहाँ तीन गुणों की पहुँच नहीं हो सकती)। जनम और मरन उसने एक ग्रास कर लिए हुए हैं (उसको ना जनम है ना मौत)। सारे जीवों में परमात्मा की पवित्र ज्योति (प्रकाश कर रही है), वह जगत की जिंदगी का सहारा है। जिस मनुष्य को गुरू ने एक-रस अपने शबद में जोड़ा है उसको उस (जगजीवन) का दीदार करवा दिया है।4।

जो लोग परमात्मा के प्यारे हैं वे श्रेष्ठ जीवन वाले हैं वह संत हैं वह भले हैं, वह परमात्मा के नाम-रस में मस्त रहते हैं, परमात्मा उन्हें संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है। हे नानक! उन संत-जनों की संगति कर उनके चरणों की धूड़ ले, उन्होंने गुरू की किरपा से परमात्मा को पा लिया है।5।

हे प्रभू! सारे जीव तेरे (ही पैदा किए हुए) हैं, तू सबके दिल की जानने वाला है। हे प्रभू! हम जीव तेरे दर के सेवक हैं, तू हम सबको दातें देने वाला है। कृपा करके हमें आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम दे। (जिसके ऊपर तू कृपा करता है) गुरू ने उसके ऊपर तेरे ज्ञान का रत्न रौशन कर दिया है।6।

(सर्व-व्यापक परमात्मा की रजा में) पाँच तत्वों ने मिल के यह (मनुष्य का) शरीर बनाया, जिस मनुष्य ने उस सर्व-व्यापक प्रभू को पा लिया उसके अंदर आत्मिक आनंद बन गया। (परमात्मा के साथ संबंध बनाने वाले उसके) कामों को उसके उद्यम को वह नाम-फल लगा जिस ने उसको आत्मिक जीवन बख्शा, उसने अपने मन में ही परमात्मा का नाम-रतन पा लिया।7।

जिस मनुष्य का मन (परमात्मा की याद में) पतीज जाता है उसको माया की भूख-प्यास नहीं रहती, वह निरंजन को सब जगह हरेक घट में पहचान लेता है। वह आत्मिक जीवन देने वाले सिर्फ नाम-रस में ही मस्त रहता है, दुनिया के रसों से उपराम रहता है। गुरू की मति से परमात्मा के प्रेम में जुड़ के उसका आत्मिक जीवन सुंदर लगने लग जाता है।8।

वह मनुष्य दिन-रात वही कर्म करता है जो उसकी जिंद को परमात्मा के साथ जोड़े रखते हैं, वह परमात्मा की पवित्र ज्योति को हर जगह एक-रस पहचान लेता है। सब रसों के श्रोत गुरू-शबद को (वह अपने हृदय में बसाता है)। उसकी जीभ महान श्रेष्ठ रस नाम में (रसी) रहती है। वह (अपने अंदर आत्मिक आनंद की, मानो) एक रसीली बाँसुरी बजाता है।9।

पर यह रसीली बाँसुरी वही मनुष्य बजा सकता है जिसको तीन भवनों में व्यापक परमात्मा की सूझ पड़ जाती है। हे नानक! तू भी गुरू की मति ले के यह सलीका सीख ले। जिस किसी ने भी गुरू की मति ली है उसकी सुरति परमात्मा के नाम में जुड़ी रहती है।10।

जगत में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो गुरू के शबद को अपनी सुरति में टिकाते हैं और (दुनियां में विचरते हुए भी माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं। वह संसार-समुंद्र से खुद पार लांघ जाते हैं, अपनी कुलों को और उनको भी पार लंघा लेते हैं जो उनकी संगति करते हैं। जगत में ऐसे लोगों का आना लाभदायक है।11।

वही व्यक्ति परमात्मा का घर परमात्मा का दर परमात्मा का महल पहचान लेता है जिसको पूरे गुरू से (ऊँची) समझ मिलती है। उसको समझ आ जाती है कि ये शरीर परमात्मा के किले हैं महल हैं। वह महलों का मालिक प्रभू सदा-स्थिर रहने वाला है (मनुष्य का शरीर) उसने अपने बैठने के लिए तख़्त बनाया हुआ है।12।

यह बेमिसाल और अमूल्य नाम-धन हरेक शरीर महल के अंदर मौजूद है। अगर गुरू मिल जाए तो अंदर से ही यह धन प्राप्त हो जाता है। (जिनको यह नाम-धन मिल जाता है वह प्रभू के जाने-माने सेवक कहलवाते हैं) वह जाने-पहचाने सेवक (फिर) उस माया-जहर को नहीं चखते जो आत्मिक मौत लाती है (वे अटल आत्मिक जीवन के मालिक बन जाते हैं) चौदह लोक और चाँद व सूरज इस बात के गवाह हैं।13।

जो मनुष्य गुरू की मति पर चलता है उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसकी सेवक बन के उसके वश में रहती हैं, वह हृदय-तख़्त पर बैठने-योग्य हो जाता है और हृदय-तख़्त पर बैठा रहता है (भाव, ना उसकी ज्ञानेन्द्रियां माया की तरफ डोलती हैं ना ही उसका मन विकारों की ओर जाता है)। जो परमात्मा सृष्टि के आदि से भी पहले का है जुगों से भी आदि से है, अब भी मौजूद है और सदा के लिए कायम रहेगा वह परमात्मा गुरू की मति पर चलने वाले मनुष्य के अंदर प्रकट होकर उसका सहम और उसकी भटकना दूर कर देता है।14।

हृदय-तख़्त पर बैठे मनुष्य को दिन-रात आदर मिलता है। जिस मनुष्य ने गुरू की मति पर चल कर परमात्मा के चरणों के साथ लिव की सांझ डाल ली उसको ये आदर सदा के लिए मिला रहता है ये इज्जत सयदा के लिए मिली रहती है।

हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा का नाम जपो। (संसार समुंद्र से पार लांघने के लिए सिमरन की) तैराकी तैरो। जो मनुष्य सिमरन करता है वह उस हरी को मिल जाता है जो आखिर तक साथी बना रहता है।15।1।18।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh