श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1043 मारू सोलहे महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हुकमी सहजे स्रिसटि उपाई ॥ करि करि वेखै अपणी वडिआई ॥ आपे करे कराए आपे हुकमे रहिआ समाई हे ॥१॥ माइआ मोहु जगतु गुबारा ॥ गुरमुखि बूझै को वीचारा ॥ आपे नदरि करे सो पाए आपे मेलि मिलाई हे ॥२॥ आपे मेले दे वडिआई ॥ गुर परसादी कीमति पाई ॥ मनमुखि बहुतु फिरै बिललादी दूजै भाइ खुआई हे ॥३॥ हउमै माइआ विचे पाई ॥ मनमुख भूले पति गवाई ॥ गुरमुखि होवै सो नाइ राचै साचै रहिआ समाई हे ॥४॥ {पन्ना 1043-1044} पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में, बिना किसी खास यतन के। करि = कर के। आपे = स्वयं ही। हुकमे = हुकम में ही। रहिआ समाई = हर जगह मौजूद है।1। गुबारा = अंधेरा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला। को = कोई विरला। नदरि = मेहर की निगाह। सो पाऐ = वह मनुष्य (ये विचार) प्राप्त करता है। मेलि = (गुरू के साथ) मेल के।2। दे = देता है। परसादी = कृपा से। कीमति = कद्र, मूल्य। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली लुकाई। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) अन्य के प्यार में। खुआई = टूटी हुई है।3। विचे = (इस सृष्टि के) बीच में ही। मनमुख = मन का मुरीद जीव। भूले = गलत राह पर पड़े हुए। पति = इज्जत। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। नाइ = नाम में। रचै = मस्त रहता है। साचै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में। समाई = लीन।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपने हुकम से ये सृष्टि पैदा कर दी है। (जगत उत्पक्ति के काम) कर कर के अपनी वडिआई (स्वयं ही) देख रहा है। आप ही सब कुछ कर रहा है, (जीवों से) खुद ही करवा रहा है, अपनी रजा के अनुसार (सारी सृष्टि में) व्यापक हो रहा है।1। हे भाई! (सृष्टि में प्रभू स्वयं ही) माया का मोह पैदा करने वाला है (जिसने) जगत में घॅुप अंधेरा बना रखा है। इस विचार को गुरू के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य ही समझता है। हे भाई! जिस जीव पर प्रभू स्वयं ही मेहर की निगाह करता है, वही, यह सूझ प्राप्त करता है कि प्रभू स्वयं ही (गुरू से) मिला के (अपने चरणों में) मिलाता है।2। हे भाई! प्रभू स्वयं ही (मनुष्य को गुरू से) मिलाता है और इज्जत बख्शता है। गुरू की कृपा से (वह मनुष्य इस मानस जनम की) कद्र समझता है। मन की मुरीद दुनिया माया के प्यार के कारण (सही जीवन-राह से) टूटी हुई बहुत विलकती फिरती है।3। हे भाई! (यह सृष्टि पैदा करके प्रभू ने स्वयं ही) इसके बीच में ही अहंकार और माया पैदा कर दी है। मन के पीछे चलने वाली दुनिया ने (अहंकार माया के कारण) गलत रास्ते पर पड़ के अपनी इज्जत गवा ली है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है, वह परमात्मा के नाम में मस्त रहता है (और नाम की बरकति से वह) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |