श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1044 गुर ते गिआनु नाम रतनु पाइआ ॥ मनसा मारि मन माहि समाइआ ॥ आपे खेल करे सभि करता आपे देइ बुझाई हे ॥५॥ सतिगुरु सेवे आपु गवाए ॥ मिलि प्रीतम सबदि सुखु पाए ॥ अंतरि पिआरु भगती राता सहजि मते बणि आई हे ॥६॥ दूख निवारणु गुर ते जाता ॥ आपि मिलिआ जगजीवनु दाता ॥ जिस नो लाए सोई बूझै भउ भरमु सरीरहु जाई हे ॥७॥ आपे गुरमुखि आपे देवै ॥ सचै सबदि सतिगुरु सेवै ॥ जरा जमु तिसु जोहि न साकै साचे सिउ बणि आई हे ॥८॥ {पन्ना 1044} पद्अर्थ: गुर ते = गुरू से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मनसा = मनीषा, मन का फुरना। मारि = मार के। मन माहि = मन में ही। समाइआ = लीन हो गया, भटकने से हट गया। सभि = सारे। देइ = देता है। बुझाई = समझ।5। आपु = स्वै भाव। मिलि = मिल के। सबदि = गुरू के शबद से। राता = रंगा हुआ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सहजि मते = आत्मिक अडोलता में टिकने वाली मति के कारण। बणि आई = प्रभू से प्रीति बन आई है।6। जाता = पहचाना। जगजीवनु = जगत का जीवन प्रभू। भउ = डर। भरमु = भटकना। सरीरहु = शरीर में से।7। जिस नो: संबंधक 'नो' के कारण 'जिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी में। जरा = बुढ़ापा। जमु = मौत, आत्मिक मौत। जोहि न साकै = देख नहीं सकता। सिउ = साथ।8। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू से आत्मिक जीवन की सूझ और परमात्मा का कीमती नाम हासिल कर लेता है, वह अपने मन के फुरने को मार के अंतरात्मे ही लीन रहता है, उसको परमात्मा स्वयं ही यह समझ बख्श देता है कि सारे खेल परमात्मा स्वयं ही कर रहा है।5। हे भाई! जो मनुष्य स्वै भाव दूर करके गुरू की शरण पड़ता है, वह मनुष्य प्रीतम प्रभू को मिल के गुरू के शबद द्वारा आत्मिक आनंद लेता है। उसके अंदर परमात्मा का प्यार बना रहता है, वह मनुष्य परमात्मा की भक्ति में रंगा रहता है। आत्मिक अडोलता वाली बुद्धि के कारण प्रभू के साथ उसकी प्रतीति बनी रहती है।6। हे भाई! गुरू के द्वारा जिस मनुष्य ने दुखों के नाश करने वाले प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल ली, सब दातें देने वाला और जगत का आसरा प्रभू स्वयं उसको आ मिला। वही मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त करता है, जिसको प्रभू स्वयं भक्ति में जोड़ता है। उस मनुष्य के अंदर से हरेक किस्म का डर हरेक भ्रम दूर हो जाता है।7। हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं ही गुरू के सन्मुख रखता है जिस को स्वयं ही भक्ति की दाति देता है, वह मनुष्य गुरू की शरण पड़ा रहता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद में जुड़ा रहता है। सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ उसकी ऐसी प्रीति बन जाती है कि उस प्रीति को ना बुढ़ापा और ना ही आत्मिक मौत देख सकते हैं (भाव, ना वह प्रीति कभी कमजोर होती है और ना ही वहाँ विकारों को आने का मौका मिलता है)।8। त्रिसना अगनि जलै संसारा ॥ जलि जलि खपै बहुतु विकारा ॥ मनमुखु ठउर न पाए कबहू सतिगुर बूझ बुझाई हे ॥९॥ सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ साचै नामि सदा लिव लागी ॥ अंतरि नामु रविआ निहकेवलु त्रिसना सबदि बुझाई हे ॥१०॥ सचा सबदु सची है बाणी ॥ गुरमुखि विरलै किनै पछाणी ॥ सचै सबदि रते बैरागी आवणु जाणु रहाई हे ॥११॥ सबदु बुझै सो मैलु चुकाए ॥ निरमल नामु वसै मनि आए ॥ सतिगुरु अपणा सद ही सेवहि हउमै विचहु जाई हे ॥१२॥ {पन्ना 1044} पद्अर्थ: त्रिसना = माया का लालच। जलै = जल रहा है (एक वचन)। जलि जलि = बार बार जल के। खपै = दुखी हो रहा है। मनमुखु = मन का मुरीद। कबहू = कभी भी। बूझ = आत्मिक जीवन की सूझ।9। सेवनि = (बहुवचन) जो सेवते हैं, जो शरण आते हैं। से = (बहुवचन) वह। नामि = नाम में। साचै नामि = सदा स्थिर प्रभू के नाम में। लिव = लगन। निहकेवलु = वासना रहित, पवित्र। सबदि = शबद से।10। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सची = सदा स्थिर रहने वाली। गुरमुखि = उस मनुष्य ने जो गुरू के सन्मुख रहता है। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह में। रते = रंगे हुए। बैरागी = माया के मोह से उपराम। आवणु जाणु = पैदा होना मरना। रहाई = समाप्त हो जाता है।11। बूझै = समझ लेता है। चुकाऐ = दूर कर लेता है। मनि = मन में। आऐ = आ के। सद = सदा। सेवहि = सेवते हैं (बहुवचन)। विचहु = अंदर से।12। अर्थ: हे भाई! जगत माया की तृष्णा की आग में जल रहा है, विकारों में जल-जल के बहुत दुखी हो रहा है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस आग से बचाव का) रास्ता कभी भी नहीं पा सकता। (वही मनुष्य बचाव का राह पाता है जिसको) गुरू आत्मिक जीवन की सूझ देता है।8। हे भाई! वह मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं, जो गुरू की शरण पड़ते हैं, सदा-स्थिर प्रभू के नाम में उनकी सुरति सदा जुड़ी रहती है। उनके अंदर परमात्मा का पवित्र करने वाला नाम सदा टिका रहता है, गुरू के शबद से (उन्होंने अपने अंदर से) तृष्णा (की आग) बुझा ली होती है।10। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले किसी विरले मनुष्य ने ये बात समझ ली है कि सदा-स्थिर पदार्थ गुरू-शबद ही है, सदा-स्थिर वस्तु सिफत-सालाह की बाणी ही है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में रंगे रहते हैं, वे माया से उपराम रहते हैं, उनका पैदा होना मरना (चक्कर) समाप्त हो जाता है।11। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद को समझ लेता है (भाव, अपनी बुद्धि का हिस्सा बना लेता है) वह (अपने अंदर विकारों की) मैल दूर कर लेता है। परमात्मा का पवित्र नाम उसके मन में आ बसता है। जो मनुष्य सदा अपने गुरू की शरण पड़े रहते हैं, उनके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है।12। गुर ते बूझै ता दरु सूझै ॥ नाम विहूणा कथि कथि लूझै ॥ सतिगुर सेवे की वडिआई त्रिसना भूख गवाई हे ॥१३॥ आपे आपि मिलै ता बूझै ॥ गिआन विहूणा किछू न सूझै ॥ गुर की दाति सदा मन अंतरि बाणी सबदि वजाई हे ॥१४॥ जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥ कोइ न मेटै धुरि फुरमाइआ ॥ सतसंगति महि तिन ही वासा जिन कउ धुरि लिखि पाई हे ॥१५॥ अपणी नदरि करे सो पाए ॥ सचै सबदि ताड़ी चितु लाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती भीखिआ नामु दरि पाई हे ॥१६॥१॥ {पन्ना 1044} पद्अर्थ: ते = से। बूझै = (सही जीवन की राह) समझता है। ता = तब। दरु = (प्रभू का) दरवाजा। सूझै = सूझाता है, दिखाई देता है। कथि = कह के। कथि कथि = (औरों को) व्याख्यान कर कर के। लूझै = (अंदर से तृष्णा की आग में) जलता रहता है।13। आपे = आप ही। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। दाति = बख्शिश। अंतरि = अंदर। सबदि = गुरू के शबद से। वजाई = प्रभाव डाला।14। धुरि = प्रभू की हजूरी से। मेटै = मिट सकता। तिन ही वासा = उनका ही निवास। कउ = को। लिखि = लिख के। पाई = (ये दाति भाग्यों में) डाल दी है।15। नदरि = मेहर की निगाह। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी के द्वारा। ताड़ी = समाधि में, एकाग्रता में। भीखिआ = खैर, भिक्षा। दरि = प्रभू के दर से।16। अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरू से (सही जीवन राह का उपदेश) समझ लेता है, तब उसको परमात्मा का दर दिखाई देता है (भाव, यह दिखाई दे जाता है कि हरी-नाम ही प्रभू-मिलाप का वसीला है उपाय है)। पर जो मनुष्य नाम से टूटा हुआ है वह (औरों को) व्याख्यान कर कर के (स्वयं अंदर से तृष्णा की आग में) जलता रहता है। हे भाई! गुरू के शरण पड़ने की बरकति यह है कि मनुष्य (अपने अंदर से माया की) तृष्णा (माया की) भूख दूर कर लेता है।13। पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही जीव को मिल जाए, तब ही वह (सही जीवन-राह को) समझता है। आत्मिक जीवन की सूझ के बिना मनुष्य को (माया की तृष्णा की भूख के बिना और) कुछ नहीं सूझता। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में गुरू की बख्शी (आत्मिक जीवन की सूझ की) दाति सदा बसती है, वह मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा की सिफत-सालाह का प्रभाव अपने अंदर बनाए रखता है (जैसे बज रहे बाजों के कारण कोई और छोटी मोटी आवाज नहीं सुनती)।14। (हे भाई! सारी खेल परमात्मा की रज़ा में हो रही है) धुर दरगाह से (रज़ा के अनुसार जीव के माथे पर जो लेख) लिखे जाते हैं, वही कर्म जीव कमाता रहता है। धुर से हुए हुकम को कोई जीव मिटा नहीं सकता। हे भाई! साध-संगति में उन मनुष्यों को ही बैठने का अवसर मिलता है, जिनके माथे पर धुर से लिख के यह बख्शिश सौंपी जाती है।15। हे भाई! (साध-संगति में टिकने की दाति) वह मनुष्य हासिल करता है, जिस पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में अपना मन जोड़ता है- यही है (उसकी जोगियों वाली) समाधि। हे भाई! (प्रभू का) दास नानक विनती करता है (कि वह मनुष्य प्रभू के) दर पर (हाजिर रह के) प्रभू के नाम की भिक्षा प्राप्त कर लेता है।16।1। मारू महला ३ ॥ एको एकु वरतै सभु सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ एको रवि रहिआ सभ अंतरि तिसु बिनु अवरु न कोई हे ॥१॥ लख चउरासीह जीअ उपाए ॥ गिआनी धिआनी आखि सुणाए ॥ सभना रिजकु समाहे आपे कीमति होर न होई हे ॥२॥ माइआ मोहु अंधु अंधारा ॥ हउमै मेरा पसरिआ पासारा ॥ अनदिनु जलत रहै दिनु राती गुर बिनु सांति न होई हे ॥३॥ आपे जोड़ि विछोड़े आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ सचा हुकमु सचा पासारा होरनि हुकमु न होई हे ॥४॥ {पन्ना 1044-1045} पद्अर्थ: सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है। सोई = वह ही। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। रवि रहिआ = व्यापक है। अंतरि = अंदर। अवरु = कोई और।1। जीअ = (शब्द 'जीउ' से बहुवचन)। आखि = कह के। समाहे = पहुँचाता है। आपे = आप ही। होर = किसी और तरफ से। कीमति = मूल्य।2। अंधु अंधारा = घोर अंधेरा। हउमै मेरा पासारा = अहंकार और ममता का पसारा। अनदिनु = हर रोज। जलत रहै = जलता रहता है।3। थापि = पैदा करके। उथापै = नाश करता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। होरनि = किसी और तरफ से।4। अर्थ: हे भाई! सिर्फ एक वह परमात्मा ही हर जगह मौजूद है। गुरू के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (इस भेद को) समझता है कि सब जीवों के अंदर एक परमात्मा ही व्यापक है, उस (परमात्मा) के बिना और कोई दूसरा नहीं।1। हे भाई! (उस परमात्मा ने ही) चौरासी लाख जूनियों के जीव पैदा किए हैं। समझदार मनुष्य और समाधियाँ लगाने वाले भी (यही बात) कह के सुना गए हैं। वह परमात्मा खुद ही सब जीवों को रिज़क पहुँचाता है। उस परमात्मा के बराबर की और कोई हस्ती नहीं है।2। हे भाई! (जगत में हर जगह) माया का मोह (भी प्रबल) है, (मोह के कारण जगत में) घोर अंधेरा बना हुआ है। (हर तरफ) अहंकार और ममता का पसारा पसरा हुआ है। जगत हर वक्त दिन-रात (तृष्णा की आग में) जल रहा है। गुरू की शरण के बिना शांति प्राप्त नहीं होती।3। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) जोड़ के (यहाँ परिवारों में इकट्ठे करके) खुद ही (इनको आपस से) विछोड़ देता है। आप ही पैदा करके आप ही नाश करता है। हे भाई! परमात्मा का हुकम अटल है, (उसके हुकम में पैदा हुआ यह) जगत-पसारा भी सच-मुच अस्तित्व वाला है। किसी और द्वारा (ऐसा) हुकम नहीं चलाया जा सकता।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |