श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आपे लाइ लए सो लागै ॥ गुर परसादी जम का भउ भागै ॥ अंतरि सबदु सदा सुखदाता गुरमुखि बूझै कोई हे ॥५॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ पुरबि लिखिआ सो मेटणा न जाए ॥ अनदिनु भगति करे दिनु राती गुरमुखि सेवा होई हे ॥६॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु जाता ॥ आपे आइ मिलिआ सभना का दाता ॥ हउमै मारि त्रिसना अगनि निवारी सबदु चीनि सुखु होई हे ॥७॥ काइआ कुट्मबु मोहु न बूझै ॥ गुरमुखि होवै त आखी सूझै ॥ अनदिनु नामु रवै दिनु राती मिलि प्रीतम सुखु होई हे ॥८॥ {पन्ना 1045}

पद्अर्थ: आपे = (प्रभू) आप ही। सो = वह मनुष्य। परसादी = कृपा से। जम = मौत। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। कोई = विरला।5।

मेलि = (गुरू से) मिला के। पुरबि = पूर्बले जनम में। सो = वह लेख। अनदिनु = हर रोज। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। सेवा = भगती।6।

सेवि = सेव के, शरण पड़ कर। जाता = पहचान लिया, सांझ डाल ली। आइ = आ के। मारि = मार के। निवारी = दूर कर ली। चीनि = पहचान के।7।

काइआ = शरीर। कुटंबु = परिवार। अखी = आँखों से। सूझै = सूझता है, दिख जाता है। रवै = सिमरता है। मिलि = मिल के।8।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, वह मनुष्य (प्रभू की भक्ति में) लगता है। गुरू की कृपा से (उसके अंदर से) मौत का डर दूर हो जाता है। उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद देने वाला गुरू-शबद बसा रहता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला ही कोई मनुष्य (इस भेद को) समझता है।5।

हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (पूर्बले लिखे अनुसार जीव को गुरू-चरणों में) जोड़ के (अपने साथ) मिलाता है। पूर्बले किए कर्मों के अनुसार जो लेख (माथे पर) लिखा जाता है, वह (जीव से) मिटाया नहीं जा सकता। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भगती करता है, गुरू की शरण पड़ने से ही भगती हो सकती है।6।

हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर सदा आत्मिक आनंद पाया जा सकता है, सबको दातें देने वाला प्रभू भी (गुरू की शरण पड़ने से) आप ही आ मिलता है। (गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार मार के तृष्णा की आग बुझा लेता है। हे भाई! गुरू के शबद को पहचान के ही सुख मिल सकता है।7।

हे भाई! (जिस मनुष्य को) शरीर का मोह (ग्रस रहा है) परिवार (का मोह ग्रस रहा है) (वह मनुष्य आत्मिक जीवन की खेल को) नहीं समझता। अगर मनुष्य गुरू की शरण पड़ जाए, तो इसको इन आँखों से सब कुछ दिखाई दे जाता है। वह मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा का नाम जपने लग जाता है, प्रीतम प्रभू को मिल के उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।8।

मनमुख धातु दूजै है लागा ॥ जनमत की न मूओ आभागा ॥ आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ बिनु गुर मुकति न होई हे ॥९॥ काइआ कुसुध हउमै मलु लाई ॥ जे सउ धोवहि ता मैलु न जाई ॥ सबदि धोपै ता हछी होवै फिरि मैली मूलि न होई हे ॥१०॥ पंच दूत काइआ संघारहि ॥ मरि मरि जमहि सबदु न वीचारहि ॥ अंतरि माइआ मोह गुबारा जिउ सुपनै सुधि न होई हे ॥११॥ इकि पंचा मारि सबदि है लागे ॥ सतिगुरु आइ मिलिआ वडभागे ॥ अंतरि साचु रवहि रंगि राते सहजि समावै सोई हे ॥१२॥ {पन्ना 1045}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। धातु = माया। दूजै = माया (के प्यार) में। जनमत = पैदा होते ही। की न = क्यों ना? आभागा = बद नसीब। आवत जात = पैदा होते मरते। मुकति = (जनम मरन के चक्कर में से) मुक्ति।9।

काइआ = शरीर। कुसुध = अपवित्र। सउ = सौ बार। धोवहि = धोते रहें। सबदि = शबद से। धोपै = धोई जाए। मूलि न = बिल्कुल नहीं।10।

पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। संघारहि = नाश करते रहते हैं। मरि = मर के। मरि मरि = मर मर के, बार बार मर के। जंमहि = पैदा होते हैं। वीचारहि = (बहुवचन) विचारते। गुबारा = अंधेरा। सुधि = सूझ।11।

इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) कई। मारि = मार के। सबदि = शबद में। आइ = आ के। अंतरि = हृदय में। साचु = सदा स्थिर प्रभू। रवहि = सिमरते हैं। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावै = लीन हो जाता है। सोई = वही मनुष्य।12।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को माया (ग्रसे रखती है, वह मनुष्य) माया (के आहर) में व्यस्त रहता है। पर वह बदनसीब पैदा होते ही क्यों ना मर गया? वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ा हुआ व्यर्थ जनम गवा जाता है। गुरू के बिना (इस चक्कर में से) खलासी नहीं होती।9।

हे भाई! वह शरीर अपवित्र है जिसको अहंकार की मैल लगी हुई है। अगर (ऐसे शरीर को तीर्थों आदि पर लोग) सौ-सौ बार भी धोते रहें, तो भी इसकी मैल दूर नहीं होती। (यदि मनुष्य का हृदय) गुरू के शबद से धोया जाय, तो शरीर पवित्र हो जाता है, दोबारा शरीर (अहंकार की मैल से) कभी गंदा नहीं होता।10।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद को अपने मन में नहीं बसाते, कामादिक पाँचों वैरी उनके शरीर को गलाते रहते हैं; और वे जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। उनके अंदर माया के मोह का अंधेरा पड़ा रहता है, उनको अपने आप की सूझ नहीं होती, वे ऐसे हैं जैसे सपने में हैं।11।

हे भाई! कई ऐसे भाग्यशाली हैं, जिनको गुरू आ मिला है, वे कामादिक पाँचों को मार के गुरू के शबद में लीन रहते हैं; अपने हृदय में सदा-स्थिर प्रभू को याद करते रहते हैं, वे प्रभू के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। (हे भाई! जो मनुष्य प्रेम-रंग में रंगा जाता है) वही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।12।

गुर की चाल गुरू ते जापै ॥ पूरा सेवकु सबदि सिञापै ॥ सदा सबदु रवै घट अंतरि रसना रसु चाखै सचु सोई हे ॥१३॥ हउमै मारे सबदि निवारे ॥ हरि का नामु रखै उरि धारे ॥ एकसु बिनु हउ होरु न जाणा सहजे होइ सु होई हे ॥१४॥ बिनु सतिगुर सहजु किनै नही पाइआ ॥ गुरमुखि बूझै सचि समाइआ ॥ सचा सेवि सबदि सच राते हउमै सबदे खोई हे ॥१५॥ आपे गुणदाता बीचारी ॥ गुरमुखि देवहि पकी सारी ॥ नानक नामि समावहि साचै साचे ते पति होई हे ॥१६॥२॥ {पन्ना 1045}

पद्अर्थ: चाल = जीवन चाल, जीवन जुगति। ते = से। जापै = सीखी जा सकती है। सबदि = शबद से, शबद में जुड़ने से ही। सिञापै = पहचाना जाता है। रवै = बसाए रखता है। घट अंतरि = हृदय में। रसना = जीभ से। रसु सचु = सदा स्थिर रस, सदा स्थिर नाम रस। चाखै = चखता है (एक वचन)।13।

मारे = समाप्त कर देता है। सबदि = शबद से। निवारे = स्वै भाव दूर करता है। उरि = हृदय में। रखै धारे = टिकाए रखता है। हउ = मैं। जाणा = मैं जानता। सहजे = अडोलता में, रज़ा में ही।14।

सहजु = आत्मिक अडोलता। किनै = किसी ने भी। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। सेवि = सिमर के। सबदि सच = सच्चे शबद में, सदा स्थिर की सिफत सालाह की बाणी में। राते = मस्त। सबदे = शबद द्वारा ही।15।

आपे = (तू) स्वयं ही। बीचारी = विचार के, योग्य समझ के। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। देवहि = तू देता है। पकी सारी = पक्की नर्दें, जीवन खेल में माहिर। नामि साचै = सदा स्थिर प्रभू के नाम में। समावहि = लीन रहते हैं। ते = से। पति = इज्जत।16।

अर्थ: हे भाई! गुरू वाली जीवन-जुगति गुरू से ही सीखी जा सकती है। गुरू के शबद में जुड़ा हुआ मनुष्य ही पूरन सेवक पहचाना जाता है; वही मनुष्य अपनी जीभ से सदा-स्थिर नाम-रस चखता रहता है और अपने हृदय में गुरू का शबद सदा बसाए रखता है।13।

हे भाई! (पूर्ण सेवक) गुरू के शबद के माध्यम से अपने अहंकार को मार मुकाता है, स्वै भाव को दूर कर देता है, और परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखता है। (पूर्ण सेवक यही यकीन रखता है-) एक परमात्मा के बिना मैं किसी और को (उस जैसा) नहीं समझता, जो कुछ उसकी रज़ा में हो रहा है वही ठीक हो रहा है।14।

हे भाई! गुरू की शरण के बिना किसी मनुष्य ने आत्मिक अडोलता प्राप्त नहीं की। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही इसको समझता है और सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू की बाणी में रति हुए मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू का सिमरन कर के गुरू के शबद के द्वारा ही अहंकार दूर कर लेते हैं।15।

हे प्रभू! तू स्वयं ही (योग्य पात्र) विचार के (जीवों को अपने) गुणों की दाति देने वाला है; जिन्हें तू गुरू के द्वारा (अपने गुणों की दाति) देता है वे इस जीवन-खेल में माहिर हो जाते हैं। हे नानक1 वह मनुष्य नाम में लीन रहते हैं, सदा-स्थिर प्रभू से ही उनको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है।16।2।

मारू महला ३ ॥ जगजीवनु साचा एको दाता ॥ गुर सेवा ते सबदि पछाता ॥ एको अमरु एका पतिसाही जुगु जुगु सिरि कार बणाई हे ॥१॥ सो जनु निरमलु जिनि आपु पछाता ॥ आपे आइ मिलिआ सुखदाता ॥ रसना सबदि रती गुण गावै दरि साचै पति पाई हे ॥२॥ गुरमुखि नामि मिलै वडिआई ॥ मनमुखि निंदकि पति गवाई ॥ नामि रते परम हंस बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥३॥ सबदि मरै सोई जनु पूरा ॥ सतिगुरु आखि सुणाए सूरा ॥ काइआ अंदरि अम्रित सरु साचा मनु पीवै भाइ सुभाई हे ॥४॥ {पन्ना 1045-1046}

पद्अर्थ: जग जीवन = जगत का जीवन, जगत का सहारा। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। ते = से। सबदि = गुरू के शबद से। पछाता = पहचाना जाता है। अमरु = हुकम। पतिसाही = राज। जुगु जुगु = हरेक युग में। सिरि = (हरेक जीव के) सिर पर। कार बणाई = करने योग्य कार मुकरॅर की हुई है।1।

जिनि = जिस (मनुष्य) ने। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। पछाता = पड़ताला। आपे = आप ही। आइ = आ के। रसना = जीभ। सबदि = शबद में। रती = रंगी हुई। गावै = गाता है (एक वचन)। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। पति = इज्जत।2।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नामि = नाम से। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। निंदकि = निंदक ने। नामि = नाम मे। परम हंस = सबसे ऊँचे हंस (दूध और पानी को अपनी चोंच से अलग अलग कर सकने वाले हँस की तरह भलाई और बुराई की परख कर सकने वाले मनुष्य)। बैरागी = माया से उपराम। निज घरि = अपने (असल) घर में।3।

सबदि = शबद से। मरै = (जो मनुष्य विकारों से) मरता है। आखि = कह के। सूरा = शूरवीर, सूरमा। काइआ = काया, शरीर। अंम्रित सरु = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल का तालाब (चश्मा)। साचा = सदा कायम रहने वाला। पीवै = पीता है। भाइ = भाय, प्यार से। सुभाई = सुभाय, प्रेम से।4।

अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सदा कायम रहने वाला है और (सारे) जगत का सहारा है, वही सब जीवों को दातें देने वाला है। गुरू की शरण पड़ने से, गुरू के शबद से ही उसके साथ गहरी सांझ पड़ सकती है। उसी का ही (जगत में) हुकम चल रहा है, उसी की ही (जगत में) राज सक्ता है। हरेक युग में हरेक जीव के सिर पर वही परमात्मा करने योग्य कार मुकरॅर करता आ रहा है।1।

हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना आरम्भ कर दिया, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन गया, सारे सुख देने वाला परमात्मा खुद ही उस मनुष्य से आ मिलता है। गुरू के शबद में रति हुई उस मनुष्य की जीभ सदा परमात्मा के गुण गाती रहती है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा के दर पर इज्जत प्राप्त करता है।2।

हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हरी-नाम की बरकति से (लोक-परलोक में) नाम कमाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले निंदक मनुष्य ने (सब जगह अपनी) इज्जत गवा ली है। हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगे रहने वाले मनुष्य परम हँस हैं, (असल) बैरागी हैं, वे हर वक्त परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़े रखते हैं।3।

हे भाई! (विकारों का मुकाबला सफलता के साथ करने वाले) शूरवीर गुरू ने कह कर (हरेक प्राणी को) सुना दिया है कि जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के विकारों की मार से बचा रहता है, (विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता, विकारों से विरक्त हुआ, विकारों की तरफ से मरा हुआ) वही मनुष्य पूर्ण है। हे भाई! उस मनुष्य के शरीर में ही सदा-स्थिर प्रभू के आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का चश्मा है (जिसमें से) उसका मन बड़े प्रेम-प्यार से (नाम-जल) पीता रहता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh