श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1046 पड़ि पंडितु अवरा समझाए ॥ घर जलते की खबरि न पाए ॥ बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ पड़ि थाके सांति न आई हे ॥५॥ इकि भसम लगाइ फिरहि भेखधारी ॥ बिनु सबदै हउमै किनि मारी ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती भरमि भेखि भरमाई हे ॥६॥ इकि ग्रिह कुट्मब महि सदा उदासी ॥ सबदि मुए हरि नामि निवासी ॥ अनदिनु सदा रहहि रंगि राते भै भाइ भगति चितु लाई हे ॥७॥ मनमुखु निंदा करि करि विगुता ॥ अंतरि लोभु भउकै जिसु कुता ॥ जमकालु तिसु कदे न छोडै अंति गइआ पछुताई हे ॥८॥ {पन्ना 1046} पद्अर्थ: पढ़ि = पढ़ के। पंडितु = (एक वचन)। अवरा = औरों को। जलते की = जल रहें की। न पाईअै = नहीं पाया जा सकता।5। इकि = ('इक' का बहुवचन)। लगाइ = लगाय, लगा के। भेख धारी = साधूओं वाला पहरावा बरतने वाले। किनि = किसने? अनदिनु = हर रोज। भरमि = भटकना में। भेखि = धार्मिक पहरावे में।6। उदासी = निर्मोह। मुऐ = दुनिया से मरे हुए। नामि = नाम में। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। भै = अदब से। भाइ = प्रेम से।7। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। करि = कर के। विगुता = दुखी होता है। अंतरि जिसु = जिस के अंदर। भउकै = भौंकता है, और माया माँगता है। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। अंति = आखिर में।8। अर्थ: हे भाई! पंडित (धर्म पुस्तकें) पढ़ के औरों को समझाता है, पर (माया की तृष्णा-आग से अपना हृदय-) घर जल रहे का उसको पता नहीं लगता। हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना परमात्मा का नाम नहीं मिलता (नाम के बिना हृदय में ठंड नहीं पड़ सकती)। पंडित लोग (औरों को उपदेश करने के लिए धर्म पुस्तक) पढ़-पढ़ के थक गए, उनके अंदर शांति पैदा ना हुई।5। हे भाई! कई ऐसे हैं जो साधूओं वाला पहिरावा पहन के (शरीर पर) राख मल के चलते फिरते हैं। पर गुरू के शबद के बिना कोई भी मनुष्य अहंकार खत्म नहीं कर सका। (साधू-भेष में होते हुए भी) वह हर-वक्त दिन-रात (तृष्णा की आग में) जलते फिरते हैं, वह भरम में भेष के भुलेखे में भटकते फिरते हैं।6। पर, हे भाई! कई ऐसे हैं जो गृहस्त में परिवार में (रहते हुए ही) सदा निर्मोह हैं, वह गुरू के शबद की बरकति से माया के मोह से मरे हुए हैं, वह सदा प्रभू के नाम में लीन रहते हैं। वे हर वक्त सदा ही प्रभू के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं; प्रभू के अदब और प्यार के सदका वह प्रभू की भक्ति में चिक्त जोड़े रखते हैं।7। हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य (दूसरों की) निंदा कर कर के दुखी होता रहता है, उसके अंदर लोभ जोर डाले रखता है, जैसे कुक्ता (नित्य) भौंकता रहता है। हे भाई! आत्मिक मौत ऐसे मनुष्य की कभी मुक्ति नहीं करती, आखिर में मरने के वक्त भी वह यहां से हाथ मलता ही जाता है।8। सचै सबदि सची पति होई ॥ बिनु नावै मुकति न पावै कोई ॥ बिनु सतिगुर को नाउ न पाए प्रभि ऐसी बणत बणाई हे ॥९॥ इकि सिध साधिक बहुतु वीचारी ॥ इकि अहिनिसि नामि रते निरंकारी ॥ जिस नो आपि मिलाए सो बूझै भगति भाइ भउ जाई हे ॥१०॥ इसनानु दानु करहि नही बूझहि ॥ इकि मनूआ मारि मनै सिउ लूझहि ॥ साचै सबदि रते इक रंगी साचै सबदि मिलाई हे ॥११॥ आपे सिरजे दे वडिआई ॥ आपे भाणै देइ मिलाई ॥ आपे नदरि करे मनि वसिआ मेरै प्रभि इउ फुरमाई हे ॥१२॥ {पन्ना 1046} पद्अर्थ: सबदि = शबद में (लीन होने से)। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह में जुड़ने से। सची = सदा स्थिर रहने वाली। पति = इज्जत। मुकति = (लोभ आदि विकारों से) मुक्ति। को = कोई मनुष्य। प्रभि = प्रभू ने। बणत = मर्यादा।9। इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) कई। सिध = सिद्ध, योग साधनों में माहिर जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। वीचारी = चर्चा करने वाले। अहि = दिन। निसि = रात। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। बूझै = (सही जीवन राह) समझता है। भाइ = प्रेम से।10। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। करहि = करते हैं (बहुवचन)। बूझहि = (बहुवचन। बूझै = एकवचन)। मनूआ = कोझा मन। मारि = मार के। मनै सिउ = मन ही से। लूझहि = युद्ध करते हैं। इक रंगी = एक (प्रभू) के प्रेम रंग वाले।11। आपे = स्वयं ही, आप ही। सिरजे = पैदा करता है। दे = देता है। भाणै = रजा में। देइ मिलाई = मिला देता है। नदरि = मेहर की निगाह। मनि = मन में। मेरै प्रभि = मेरे प्रभू ने।12। अर्थ: हे भाई! प्रभू ने ऐसी मर्यादा बना रखी है कि गुरू (की शरण पड़े) बिना कोई मनुष्य प्रभू का नाम प्राप्त नहीं कर सकता, और, नाम (जपे) बिना कोई मनुष्य (लोभ आदि विकारों से) निजात नहीं पा सकता। सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में जुड़ने से सदा कायम रहने वाली इज्जत मिल जाती है।9। हे भाई! कई (ऐसे हैं जो) योग-साधना में माहिर जोगी (कहलवाते) हैं, कई (अभी) जोग-साधना कर रहे हैं, कई चर्चा (आदि) करने वाले हैं। कई दिन-रात निरंकार के नाम में रंगे रहते हैं। जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं अपने चरणों में जोड़ लेता है वह (सही जीवन-राह) समझ लेता है। प्रभू की भक्ति और प्रभू के प्रेम की बरकति से (उसके अंदर से) हरेक किस्म का डर दूर हो जाता है।10। हे भाई! अनेकों प्राणी तीर्थों पर स्नान करते हैं, दान करते हैं (पर इन कर्मों से वे सही जीवन-राह) नहीं समझ सकते। कई ऐसे हैं जो अपने मन को (विकारों की तरफ से) मार के सदा मन के साथ ही युद्ध करते रहते हैं। वे एक प्रभू के प्रेम-रंग वाले बँदे सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में रति रहते हैं। गुरू के शबद के द्वारा सदा कायम रहने वाले परमात्मा में उनका मेल हुआ रहता है।11। (पर, हे भाई! जीवों के वश की बात नहीं)। प्रभू स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही इज्जत देता है; खुद ही अपनी रज़ा के अनुसार (जीवों को अपने चरणों में) जोड़ लेता है। प्रभू खुद ही मेहर की निगाह करता है और जीव के मन में आ बसता है- प्रभू ने ऐसा ही हुकम कायम किया हुआ है।12। सतिगुरु सेवहि से जन साचे ॥ मनमुख सेवि न जाणनि काचे ॥ आपे करता करि करि वेखै जिउ भावै तिउ लाई हे ॥१३॥ जुगि जुगि साचा एको दाता ॥ पूरै भागि गुर सबदु पछाता ॥ सबदि मिले से विछुड़े नाही नदरी सहजि मिलाई हे ॥१४॥ हउमै माइआ मैलु कमाइआ ॥ मरि मरि जमहि दूजा भाइआ ॥ बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई मनि देखहु लिव लाई हे ॥१५॥ जो तिसु भावै सोई करसी ॥ आपहु होआ ना किछु होसी ॥ नानक नामु मिलै वडिआई दरि साचै पति पाई हे ॥१६॥३॥ {पन्ना 1046} पद्अर्थ: सेवहि = सेवा करते हैं, शरण पड़ते हैं। से = वह (बहुवचन)। साचे = ठहरे हुए आत्मिक जीवन वाले। मनमुख = मन के मुरीद व्यक्ति। सेवि न जाणनि = सेवा करनी नहीं जानते, शरण पड़ना नहीं जानते। काचे = कमजोर आत्मिक जीवन वाले। आपे = स्वयं ही। करि = कर के। जिउ भावै = जैसे उसको अच्छा लगे।13। जुगि = युग में। जुगि जुगि = हरेक युग में। साचा = सदा कायम रहने वाला। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। गुर सबदु = गुरू का शबद। पछाता = कद्र समझता है। सबदि = शबद में। नदरी = मेहर की निगाह से। सहजि = आत्मिक अडोलता में।14। मैलु = विकारों की मैल। कमाइआ = इकट्ठी की। मरि = मर के। मरि मरि = बार बार मर के। जंमहि = पैदा होते हैं (बहुवचन)। दूजा = दूसरा पासा, माया का मोह। भाइआ = प्यारा लगता है। मुकति = मुक्ति, खलासी। मनि = मन मे। लाई = लगा के। मनि लिव लाई = मन में लिव लगा के, मन में गहरी विचार करके।15। तिसु = उस (प्रभू) को। भावै = अच्छा लगता है। करसी = वह करेगा। आपहु = अपने आप से, जीव के अपने उद्यम से। होसी = होगा। नानक = हे नानक! दरि साचै = सदा कायम रहने वाले प्रभू के दर पर।16। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के दर पर पहुँचते हैं, वे मनुष्य ठहराव वाले आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। पर मन के मुरीद गुरू के दर पर पहुँचना नहीं जानते, वे कमजोर जीवन वाले रह जाते हैं। (पर, जीवों के भी क्या वश?) करतार स्वयं ही यह करिश्मे कर कर के देख रहा है। जैसे उसको अच्छा लगता है, वह वैसे ही जीवों को कारे लगा रहा है।13। हे भाई! हरेक युग में सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही (नाम की दाति) देने वाला है। (जिसको यह दाति देता है वह मनुष्य) बड़ी किस्मत से गुरू के शबद (की कद्र) को समझ लेता है। जो मनुष्य गुरू के शबद में लीन हो जाते हैं वे वहाँ से फिर विछुड़ते नहीं। हे भाई! प्रभू उन्हें अपनी मेहर की निगाह से आत्मिक अडोलता में मिलाए रखता है।14। हे भाई! जो मनुष्य माया के अहंकार के कारण विकारों की मैल इकट्ठी करते रहते हैं, वे सदा जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं, उन्हें वह दूसरा पासा ही प्यारा लगता है। पर, तुम बेशक अपने मन में गहरी विचार करके देख लो, गुरू की शरण पड़े बिना (विकारों की मैल से) निजात नहीं मिल सकती।15। हे भाई! (ये सारी जगत-खेल प्रभू के हाथ में है) जो कुछ उसको अच्छा लगता है, वही वह करेगा। जीव के अपने प्रयासों से ना अब तक कुछ हो सका ह ैना ही आगे कुछ हो सकेगा। हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मिल जाता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के दर पर आदर प्राप्त करता है।16।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |