श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1047 मारू महला ३ ॥ जो आइआ सो सभु को जासी ॥ दूजै भाइ बाधा जम फासी ॥ सतिगुरि राखे से जन उबरे साचे साचि समाई हे ॥१॥ आपे करता करि करि वेखै ॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥ गुरमुखि गिआनु तिसु सभु किछु सूझै अगिआनी अंधु कमाई हे ॥२॥ मनमुख सहसा बूझ न पाई ॥ मरि मरि जमै जनमु गवाई ॥ गुरमुखि नामि रते सुखु पाइआ सहजे साचि समाई हे ॥३॥ धंधै धावत मनु भइआ मनूरा ॥ फिरि होवै कंचनु भेटै गुरु पूरा ॥ आपे बखसि लए सुखु पाए पूरै सबदि मिलाई हे ॥४॥ {पन्ना 1047} पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। जासी = चला जाएगा। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) अन्य के प्यार में। भाइ = भाय, प्यार। बाधा = बँधा हुआ। जम = मौत, आत्मिक मौत। सतिगुरि = गुरू ने। उबरे = बच गए। साचे = साचि, सदा स्थिर प्रभू में।1। आपे = स्वयं ही। लेखै = लेख में, प्रवानगी में। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। अंधु = अंधों वाला काम।2। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। सहसा = सहम। बूझ = (आत्मिक जीवन की) सूझ। मरि = मर के। जंमै = पैदा होता है (एक वचन)। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले। नामि = नाम में। सहसे = आत्मिक अडोलता में। साचि = सदा स्थिर प्रभू में।3। धंधै = धंधे में, दुनिया की व्यस्तता में। धावत = दौड़ते हुए। मनूरा = जला हुआ लोहे का चूरा। कंचन = सोना। भेटै = मिलता है। पूरै सबदि = पूरन प्रभू की सिफत सालाह में।4। अर्थ: हे भाई! जो भी जीव (जगत में) पैदा होता है वह हरेक ही (अवश्य इस जगत से) कूच (भी) कर जाता है, (पर) माया के मोह के कारण (जीव) आत्मिक मौत के बँधनों में बँध जाता है। गुरू ने जिनकी रक्षा की, वह मनुष्य (माया के मोह से) बच निकलते हैं; वे सदा ही सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहते हैं।1। हे भाई! (ये सारा खेल) करतार स्वयं ही कर कर के देख रहा है; जिस मनुष्य पर वह मेहर की निगाह करता है वही मनुष्य उसकी परवानगी में है। जिस मनुष्य को गुरू के द्वारा आत्मिक जीवन की सूझ पड़ जाती है उसको (आत्मिक जीवन के बारे में) हरेक बात की समझ आ जाती है। ज्ञान से वंचित मनुष्य अंधों वाले काम ही करता रहता है।2। हे भाई! मन के मुरीद मनुष्य को (हर वक्त कोई ना कोई) सहम (खाए जाता है, क्योंकि) उसको आत्मिक जीवन की समझ नहीं होती वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, वह अपना मानस जन्म व्यर्थ गवा जाता है। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, वे आत्मिक आनंद पाते हैं, वे आत्मिक अडोलता में सदा-स्थिर प्रभू में हर वक्त टिके रहते हैं।3। हे भाई! दुनियां के धंधों में दौड़-भाग करते हुए मनुष्य जला हुआ लोहा बन जाता है (ऐसे जला रहता है जैसे जला हुआ लोहा), पर जब उसे पूरा गुरू मिलता है, तब वह दोबारा (शुद्ध) सोना बन जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं बख्शिश करता है वह मनुष्य आत्मिक आनंद पाता है, वह पूरन प्रभू की सिफत-सालाह में लीन रहता है।4। दुरमति झूठी बुरी बुरिआरि ॥ अउगणिआरी अउगणिआरि ॥ कची मति फीका मुखि बोलै दुरमति नामु न पाई हे ॥५॥ अउगणिआरी कंत न भावै ॥ मन की जूठी जूठु कमावै ॥ पिर का साउ न जाणै मूरखि बिनु गुर बूझ न पाई हे ॥६॥ दुरमति खोटी खोटु कमावै ॥ सीगारु करे पिर खसम न भावै ॥ गुणवंती सदा पिरु रावै सतिगुरि मेलि मिलाई हे ॥७॥ आपे हुकमु करे सभु वेखै ॥ इकना बखसि लए धुरि लेखै ॥ अनदिनु नामि रते सचु पाइआ आपे मेलि मिलाई हे ॥८॥ {पन्ना 1047} पद्अर्थ: दुरमति = खोटी मति वाली जीव स्त्री। बुरी = खराब। बुरिआरि = बुराई का ठिकाना। अउगणिआरी = अवगुणों भरी। कची = कमजोर, सदा बहकने वाली। मुखि = मुँह से।5। कंत न भावै = कंत को पसंद नहीं आती। जूठी = गंदी। जूठु = गंद, गंदा काम। साउ = आनंद। मूरखि = (स्त्री लिंग) मूर्ख जीव स्त्री। बूझ = (आत्मिक जीवन की) समझ।6। खोटु = खोटा काम। सीगारु = श्रृंगार, शारीरिक सजावट। पिर न भावै = पिर को नहीं भाती। रावै = मिला रहता है। सतिगुरि = गुरू ने। मिलि = (अपने साथ) मिला के।7। सभु = हर जगह। लेखै बखसि लऐ = लेखे में बख्श लेता है, लेखा नहीं पूछता। अनदिनु = हर रोज। नामि = नाम में। सचु = सदा स्थिर प्रभू। आपे = स्वयं ही।8। अर्थ: हे भाई! खोटी मति वाली जीव स्त्री झूठ में बुराई में मस्त रहती है, वह बुराई का अड्डा बनी रहती है, वह सदा ही अवगुणों से भरी रहती है। उसकी मति सदा (विकारों में) बहकती है, वह मुँह से कठोर वचन बोलती है, खोटी मति के कारण उसको परमात्मा का नाम नसीब नहीं होता।5। हे भाई! अवगुण-भरी जीव-स्त्री पति-प्रभू को अच्छी नहीं लगती, मन की गंदी वह जीव-स्त्री सदा गंदा काम ही करती है, वह मूर्ख जीव-स्त्री पति-रूप के मिलाप का आनंद नहीं जानती। गुरू के बिना उसको आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती।6। हे भाई! खोटी मति वाली जीव-स्त्री सदा खोट से भरी रहती है सदा खोट ही कमाती है (खोटा काम करती है), (दुराचारिन स्त्री की तरह वह बाहर से धार्मिक) सजावट करती है, पर पति-प्रभू को पसंद नहीं आती। गुणवान जीव-स्त्री को पति-प्रभू सदा मिला रहता है, उसको गुरू (-चरणों) में मिला के (अपने साथ) मिलाए रखता है।7। (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा हर जगह स्वयं ही हुकम कर के (अपने प्रेरित किए हुए जीवों का हरेक काम) देख रहा है। धुर से अपने हुकम में ही कई जीवों को लेखे में बख्श लेता है; वह जीव हर वक्त उसके नाम में रंगे रहते हैं, उन्हें वह सदा-स्थिर प्रभू मिला रहता है। प्रभू स्वयं ही उनको (गुरू से) मिला के अपने चरणों में जोड़े रखता है।8। हउमै धातु मोह रसि लाई ॥ गुरमुखि लिव साची सहजि समाई ॥ आपे मेलै आपे करि वेखै बिनु सतिगुर बूझ न पाई हे ॥९॥ इकि सबदु वीचारि सदा जन जागे ॥ इकि माइआ मोहि सोइ रहे अभागे ॥ आपे करे कराए आपे होरु करणा किछू न जाई हे ॥१०॥ कालु मारि गुर सबदि निवारे ॥ हरि का नामु रखै उर धारे ॥ सतिगुर सेवा ते सुखु पाइआ हरि कै नामि समाई हे ॥११॥ दूजै भाइ फिरै देवानी ॥ माइआ मोहि दुख माहि समानी ॥ बहुते भेख करै नह पाए बिनु सतिगुर सुखु न पाई हे ॥१२॥ {पन्ना 1047} पद्अर्थ: धातु = माया। मोह रसि = मोह के रस में। साची लिव = सदा स्थिर रहने वाली लगन। सहजि = आत्मिक अडोलता में। आपे = (प्रभू) स्वयं ही। करि = कर के।9। इकि = ('इक' का बहुवचन)। इकि जन = कई मनुष्य। इकि अभागे = कई बद्किस्मत जीव। मोहि = मोह में। करणा न जाई = किया नहीं जा सकता।10। कालु = मौत, आत्मिक मौत। सबदि = शबद से। निवारे = (स्वै भाव) दूर करता है। उर = हृदय। धारे राखै = बसाए रखता है। ते = से। नामि = नाम में। कै नामि = के नाम में।11। दूजै भाइ = माया के प्यार में। देवानी = पागल हुई दुनिया। माहि = में। समानी = ग्रसी रहती है। भेख = धार्मिक पहरावे।12 अर्थ: हे भाई! माया (जीव को) अहंकार में मोह के रस में लगाए रखती है। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को प्रभू-चरणों की सदा-स्थिर लगन आत्मिक अडोलता में टिकाए रखती है। पर, हे भाई! प्रभू स्वयं ही (जीव को अपने चरणों में) जोड़ता है, स्वयं ही यह खेल करके देख रहा है- ये समझ गुरू के बिना नहीं पड़ती।9। हे भाई! कई ऐसे मनुष्य हैं जो गुरू के शबद को विचार के (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं, कई ऐसे बद्किस्मत हैं जो सदा माया के मोह में गाफिल हुए रहते हैं। (पर, जीवों के भी क्या वश?) प्रभू खुद ही (सबमें व्यापक हो के सब कुछ) करता है, खुद ही (जीवों से) करवाता है (उसकी रजा के विरुद्ध) और कुछ भी किया नहीं जा सकता।10। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद से आत्मिक मौत को मार के (अपने अंदर से स्वै भाव) दूर करता है, और परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखता है, वह मनुष्य गुरू की शरण की बरकति से आत्मिक आनंद पाता है, परमात्मा के नाम में सदा टिका रहता है।11। हे भाई! जो जीव-स्त्री माया के मोह में झल्ली हुई भटकती फिरती है वह माया के मोह में और दुखों में ग्रसी रहती है; अगर वह बहुत सारे धार्मिक पहिरावे भी धारण कर ले, वह सुख प्राप्त नहीं कर सकती, गुरू की शरण पड़े बिना वह सुख नहीं मिल सकता।12। किस नो कहीऐ जा आपि कराए ॥ जितु भावै तितु राहि चलाए ॥ आपे मिहरवानु सुखदाता जिउ भावै तिवै चलाई हे ॥१३॥ आपे करता आपे भुगता ॥ आपे संजमु आपे जुगता ॥ आपे निरमलु मिहरवानु मधुसूदनु जिस दा हुकमु न मेटिआ जाई हे ॥१४॥ से वडभागी जिनी एको जाता ॥ घटि घटि वसि रहिआ जगजीवनु दाता ॥ इक थै गुपतु परगटु है आपे गुरमुखि भ्रमु भउ जाई हे ॥१५॥ गुरमुखि हरि जीउ एको जाता ॥ अंतरि नामु सबदि पछाता ॥ जिसु तू देहि सोई जनु पाए नानक नामि वडाई हे ॥१६॥४॥ {पन्ना 1047-1048} पद्अर्थ: जा = जब। जितु = जिस पर। जितु राहि = जिस राह पर। तितु राहि = उस राह पर। भावै = उसको अच्छा लगता है।13। किस नो: 'किसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। करता = पैदा करने वाला। भुगता = (जीवों में बैठ के) भोगने वाला। संजमु = परहेज, संकोच। जुगता = (सब पदार्थों में) मिला हुआ। मधु सूदन = (मधू दैत्य को मारने वाला, दैत्यों का नाश करने वाला) दुष्ट दमन परमात्मा।14। जिस दा: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'दा' के कारण हटा दी गई है। से = वे (बहुवचन)। जिनी = जिन्होंने। ऐको जाता = एक परमात्मा को ही (व्यापक) जाना है। घटि घटि = हरेक शरीर में। इकथै = किसी जगह में। गुपतु = छुपा हुआ। आपे = प्रभू स्वयं ही। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से।15। सबदि = गुरू के शबद से। देहि = देता है। नामि = नाम में। वडाई = इज्जत।16। अर्थ: हे भाई! जब (परमात्मा) स्वयं (ही जीवों से सब कुछ) करवा रहा है, तो उसके बिना किसी और के पास पुकार नहीं की जा सकती। जिस राह पर चलाना उसको अच्छा लगता है उस राह पर ही (जीवों को) चलाता है।13। हे भाई! परमात्म स्वयं ही (जीवों को) पैदा करने वाला है, खुद ही (जीवों में बैठ के पदार्थों को) भोगने वाला है। प्रभू खुद ही (पदार्थों के भोगने से) परहेज (करने वाला) है, स्वयं ही सब जीवों में और पदार्थों में व्यापक है। वह स्वयं ही पवित्र है, स्वयं ही दया करने वाला है, स्वयं ही विकारियों का नाश करने वाला है, (वह ऐसा है) जिसके हुकम की अवहेलना नहीं की जा सकती।14। हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जिन्होंने उस एक परमात्मा को (हर जगह) जाना है (जिन्होंने यह समझा है कि) जगत का सहारा दातार हरेक शरीर में बस रहा है। किसी जगह वह छुपा हुआ (बस रहा) है, किसी जगह प्रत्यक्ष दिखा दे रहा है-गुरू के द्वारा (ये निश्चय करके मनुष्य का) भ्रम और डर दूर हो जाता है (फिर ना कोई वैरी दिखता है और ना ही किसी से डर लगता है)।15। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है उसके अंदर प्रभू का नाम बसता है, वह गुरू के शबद के द्वारा परमात्मा को (हर जगह) पहचानता है। हे नानक! (कह-हे प्रभू!) जिस मनुष्य को तू अपना नाम देता है, वही मनुष्य तेरा नाम प्राप्त करता है। नाम से उसको (लोक-परलोक की) इज्जत प्राप्त होती है।16।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |