श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 1048 मारू महला ३ ॥ सचु सालाही गहिर ग्मभीरै ॥ सभु जगु है तिस ही कै चीरै ॥ सभि घट भोगवै सदा दिनु राती आपे सूख निवासी हे ॥१॥ सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ आपे आइ वसिआ घट अंतरि तूटी जम की फासी हे ॥२॥ किसु सेवी तै किसु सालाही ॥ सतिगुरु सेवी सबदि सालाही ॥ सचै सबदि सदा मति ऊतम अंतरि कमलु प्रगासी हे ॥३॥ देही काची कागद मिकदारा ॥ बूंद पवै बिनसै ढहत न लागै बारा ॥ कंचन काइआ गुरमुखि बूझै जिसु अंतरि नामु निवासी हे ॥४॥ {पन्ना 1048} पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। सालाही = मैं सिफत सालाह करता हूँ। गहिर = गहरा, अथाह। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। तिस ही: 'तिसु' की 'ु' की मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। कै चीरै = के पल्ले में, के हुकम में। सभि = सारे। सभि घट भोगवै = सारे शरीरों को भोग रहा है, सारे शरीरों में मौजूद है। आपे = स्वयं ही। सूख निवासी = सुखों का निवास स्थान, सुखों का श्रोत।1। साहिबु = मालिक। सची = सदा कायम रहने वाली। नाई = (स्ना) महिमा, वडिआई। परसादी = कृपा से। मंनि = मन में। वसाई = बसाया जाता है। घट अंतरि = हृदय में। जम की फासी = मौत का फंदा, जनम मरण का चक्कर।2। सेवी = मैं शरण पड़ू। तै = और। सालाही = मैं सलाहूँ। सबदि = गुरू के शबद से। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी से। कमलु = हृदय कमल फूल। प्रगासी = खिला रहता है।3। देही = शरीर। काची = नाशवंत। कागद मिकदारा = कागज़ की तरह। बारा = चिर, समय। कंचन = सोना, सोने की तरह सुंदर अरोग्य। काइआ = काया। गुरमुखि = गुरू से।4। अर्थ: हे भाई! मैं तो उस अथाह और बड़े जिगरे वाले परमात्मा की सिफत सालाह करता हूँ जो सदा कायम रहने वाला है, सारा जगत जिस के हुकम में चल रहा है, जो सारे शरीर में मौजूद है और जो खुद ही सारे सुखों का श्रोत है।1। हे भाई! मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उसकी महिमा भी सदा कायम रहने वाली है। गुरू की कृपा से उसको मन में बसाया जा सकता है। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू खुद ही (मेहर कर के) आ बसता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।2। (हे भाई! अगर तू पूछे कि) मैं किस की सेवा करता हूँ और किसकी सिफत-सालाह करता हूँ (तो इसका उक्तर यह है कि) मैं सदा गुरू की शरण पड़ा रहता हूँ और गुरू के शबद से (परमात्मा की) सिफत-सालाह करता हूं। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी की बरकति से मनुष्य की बुद्धि सदा श्रेष्ठ रहती है और मनुष्य के अंदर उसका हृदय-कमल फूल खिला रहता है। हे भाई! मनुष्य का ये सारा शरीर कागज़ की तरह नाशवंत है, (जैसे कागज़ के ऊपर पानी की एक) बूँद पड़ जाए तो (कागज़) गल जाता है (इसी तरह इस शरीर का) नाश होते हुए भी देर नहीं लगती। पर जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के (सही जीवन राह) समझ लेता है जिस के अंदर परमात्मा का नाम बस जाता है, उसका ये शरीर (विकारों से बचा रह के) शुद्ध सोना बना रहता है।4। सचा चउका सुरति की कारा ॥ हरि नामु भोजनु सचु आधारा ॥ सदा त्रिपति पवित्रु है पावनु जितु घटि हरि नामु निवासी हे ॥५॥ हउ तिन बलिहारी जो साचै लागे ॥ हरि गुण गावहि अनदिनु जागे ॥ साचा सूखु सदा तिन अंतरि रसना हरि रसि रासी हे ॥६॥ हरि नामु चेता अवरु न पूजा ॥ एको सेवी अवरु न दूजा ॥ पूरै गुरि सभु सचु दिखाइआ सचै नामि निवासी हे ॥७॥ भ्रमि भ्रमि जोनी फिरि फिरि आइआ ॥ आपि भूला जा खसमि भुलाइआ ॥ हरि जीउ मिलै ता गुरमुखि बूझै चीनै सबदु अबिनासी हे ॥८॥ {पन्ना 1048} पद्अर्थ: सचा = सदा (पवित्र) रहने वाला। कारा = लकीरें। भोजनु = खुराक। सचु = सदा स्थिर प्रभू। आधारा = आसरा, सहारा। त्रिपति = तृप्ति, संतोख। पावनु = पवित्र। जितु = जिस में। घटि = हृदय में। जितु घटि = जिस हृदय में।5। हउ = मैं। तिन = उनसे। साचै = सदा स्थिर प्रभू में। गावहि = (बहुवचन) गाते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागे = जाग हुए, (माया के हमलों की ओर से) सचेत रह के। अंतरि = अंदर। रसना = जीभ। रसि = रस में। रासी = रसी हुई, भीगी हुई।6। चेता = मैं याद करता हूँ। पूजा = पूजूँ, मैं पूजा करता हूँ। सेवी = सेवा करूँ। पूरे गुरि = पूरे गुरू ने। सभु = हर जगह। सचै नामि = सदा स्थिर प्रभू के नाम में।7। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। फिरि फिरि = बार बार। खसमि = पति ने। भूला = गलत राह पर पड़ गया। भुलाइआ = गलत रास्ते पर डाल दिया। जा = जब। ता = तब। गुरमुखि = गुरू से। चीनै = परखता है।8। अर्थ: हे भाई! जिस हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, वह हृदय (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहता है उसका हृदय सदा पवित्र है, वह हृदय ही सदा (स्वच्छ) रहने वाला चौका है, प्रभू-चरणों में बनी हुई लगन उस चौके की लकीरें हैं (जो विकारों को, बाहर से आ के चौके को भ्रष्ट करने से अपवित्र करने से रोकते हैं)। ऐसे हृदय की खुराक परमात्मा का नाम है, सदा स्थिर परमात्मा ही उस हृदय की खुराक है।5। हे भाई! मैं उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा में जुड़े रहते हैं, जो हर वक्त (माया के हमलों से) सचेत रह के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। उनके अंदर सदा टिके रहने वाला आनंद बना रहता है, उनकी जीभ नाम-रस में रसी रहती है।6। हे भाई! मैं तो परमात्मा का नाम ही सदा याद करता हूँ, मैं किसी और की पूजा नहीं करता। मैं एक परमात्मा की ही सेवा-भगती करता हूँ, किसी और दूसरे की सेवा मैं नहीं करता। हे भाई! (जिस मनुष्य को) पूरे गुरू ने सदा कायम रहने वाला हरी परमात्मा हर जगह दिखा दिया, वह सदा-स्थिर प्रभू के नाम में लीन रहता है।7। हे भाई! जीव भटक-भटक के बार-बार जूनियों में पड़ा रहता है, (जीव के भी क्या वश?) जब मालिक प्रभू ने इसे गलत राह पर डाल दिया, तो ये जीव भी भटक गया। हे भाई! जब परमात्मा इसको मिलता है (इस पर दया करता है) तब गुरू की शरण पड़ कर ये (सही जीवन-राह) समझता है, तब अविनाशी प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी को (अपने हृदय में) तोलता है।8। कामि क्रोधि भरे हम अपराधी ॥ किआ मुहु लै बोलह ना हम गुण न सेवा साधी ॥ डुबदे पाथर मेलि लैहु तुम आपे साचु नामु अबिनासी हे ॥९॥ ना कोई करे न करणै जोगा ॥ आपे करहि करावहि सु होइगा ॥ आपे बखसि लैहि सुखु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१०॥ इहु तनु धरती सबदु बीजि अपारा ॥ हरि साचे सेती वणजु वापारा ॥ सचु धनु जमिआ तोटि न आवै अंतरि नामु निवासी हे ॥११॥ हरि जीउ अवगणिआरे नो गुणु कीजै ॥ आपे बखसि लैहि नामु दीजै ॥ गुरमुखि होवै सो पति पाए इकतु नामि निवासी हे ॥१२॥ {पन्ना 1048} पद्अर्थ: कामि = काम (के कीचड़) से। क्रोधि = क्रोध (के कीचड़) से। भरे = लिबड़े हुए। अपराधी = भूलनहार। बोलह = हम बोलें। लै = लेकर। किआ मुहु लै = कौन से मुँह ले के? किस मुँह से? बाधी = की। तुम आपे = तूने खुद ही। साचु = सदा स्थिर।9। करणै जोगा = कर सकने की समर्था वाला। आपे करहि = तू खुद ही करता है। बखसि लैहि = जिस पर तू दयावान होता है। नामि = नाम में। निवासी = निवास रखने वाला।10। सबदु अपारा = बेअंत प्रभू की सिफत सालाह (का बीज)। बीज = (क्रिया)। सेती = साथ। सचु धनु = सदा कायम रहने वाला (नाम-) धन। जंमिआ = उग पड़ा, पैदा हो गया। तोटि = कमी। अंतरि = अंदर।11। हरि जीउ = हे प्रभू! नो = को। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सो = वह मनुष्य। पति = इज्जत। इकतु = एक में। नामि = नाम में। इकतु नामि = सिर्फ एक नाम में।12। अर्थ: हे प्रभू! हम भूलनहार जीव काम-क्रोध (के कीचड़) से लिबड़े रहते हैं। तेरे आगे अर्ज करते हुए ही शर्म आती है। ना हमारे अंदर कोई गुण हैं, ना हमने कोई सेवा- भगती की है। (पर तू सदा दयालु है, मेहर कर) तू खुद हम डूब रहे पत्थरों को (विकारों में डूब रहे पत्थर-दिलों को) अपने नाम में लगा ले। तेरा नाम ही सदा अटल है और नाश रहित है।9। हे प्रभू! (तेरी प्रेरणा के बिना) कोई भी जीव कुछ नहीं कर सकता, करने की समर्था भी नहीं रखता। जगत में वही कुछ हो सकता है जो तू खुद ही करता है और (जीवों से) करवाता है। जिस मनुष्य पर तू ही दयावान होता है, वह आत्मिक आनंद पाता है और सदा ही तेरे नाम में लीन रहता है।10। हे भाई! (अपने) इस शरीर को धरती बना, इस में बेअंत प्रभू की सिफत-सालाह के बीज डाल। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ ही (उसके नाम का) वणज-व्यापार किया कर। (इस तरह) सदा कायम रहने वाला (नाम-) धन पैदा होता है, उसमें कभी कमी नहीं होती। (जो मनुष्य यह उद्यम करता है, उसके) अंदर परमात्मा का नाम सदा बसा रहता है।11। हे प्रभू जी! गुण-हीन जीव में गुण पैदा कर, तू स्वयं ही मेहर कर और इसको अपना नाम बख्श। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है, वह (लोक-परलोक में) इज्जत कमाता है; वह सदा प्रभू के नाम में लीन रहता है।12। अंतरि हरि धनु समझ न होई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ गुरमुखि होवै सो धनु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१३॥ अनल वाउ भरमि भुलाई ॥ माइआ मोहि सुधि न काई ॥ मनमुख अंधे किछू न सूझै गुरमति नामु प्रगासी हे ॥१४॥ मनमुख हउमै माइआ सूते ॥ अपणा घरु न समालहि अंति विगूते ॥ पर निंदा करहि बहु चिंता जालै दुखे दुखि निवासी हे ॥१५॥ आपे करतै कार कराई ॥ आपे गुरमुखि देइ बुझाई ॥ नानक नामि रते मनु निरमलु नामे नामि निवासी हे ॥१६॥५॥ {पन्ना 1048-1049} पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। परसादी = कृपा से। कोई = कोई विरला। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। पाऐ = पा लेता है। सद = सदा। नामि = नाम में।13। अनल = आग, तृष्णा की आग। वाउ = हवा, तृष्णा का झख्खड़। भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत रास्ते पर पड़ जाता है। मोहि = मोह के कारण। सुधि = सूझ, आत्मिक जीवन की सूझ। काई = रक्ती भर भी। मनमुख = मन के मुरीद को। गुरमति = गुरू की मति पर चलने से।14। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। सूते = गाफिल हुए रहते हैं। न समालहि = संभालते नहीं, विकारों से नहीं बचाते। घरु = हृदय गृह। अंतिम = आखिर। विगूते = दुखी होते हैं। पर = पराई। करहि = करते हैं (बहुवचन)। जालै = जलाती है (एक वचन)। दुखे = दुख में ही।15। आपे = स्वयं ही। करतै = करतार ने। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रख के। देइ = देता है। बुझाई = समझ। नानक = हे नानक! नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। नामे नामि = नाम ही नाम में, सदा नाम में ही।16। अर्थ: हे भाई! हरेक मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम-धन मौजूद है, पर मनुष्य को ये समझ नहीं है। कोई विरला मनुष्य गुरू की कृपा से (यह भेद) समझता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह (अपने अंदर यह) धन पा लेता है, फिर वह सदा ही नाम में टिका रहता है।13। हे भाई! (जगत में तृष्णा की) आग (जल रही है), (तृष्णा का) तूफान (मच रहा है), भटकना में पड़ कर मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। माया के मोह के कारण मनुष्य को रक्ती भर भी (इस गलती की) समझ नहीं होती। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले अंधे मनुष्य को (आत्मिक जीवन के बारे में) कुछ नहीं सूझता। जो मनुष्य गुरू की मति लेता है उसके अंदर परमात्मा का नाम चमक पड़ता है।14। हे भाई! मन के मुरीद मनुष्य अहंकार में माया (के मोह) में (सही जीवन से) गाफिल हुए रहते हैं, (विकारों से) हो रहे हमलों से वे अपना हृदय-घर नहीं बचाते, आखिर दुखी रहते है। (हे भाई! मन के मुरीद मनुष्य) दूसरों की निंदा करते हैं (अपने अंदर की) चिंता उनको बहुत जलाती रहती है, वे सदा ही दुखों में पड़े रहते हैं।15। (पर, हे भाई! मनमुखों के भी क्या वश?) करतार ने खुद ही उनसे (ये निंदा की) कार सदा करवाई है। करतार खुद ही गुरू के सन्मुख करके मनुष्य को (सही आत्मिक जीवन की) समझ देता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, उनका मन पवित्र हो जाता है। वे सदा परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं।16।5। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |