श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1050 ब्रहमा बिसनु महेसु वीचारी ॥ त्रै गुण बधक मुकति निरारी ॥ गुरमुखि गिआनु एको है जाता अनदिनु नामु रवीजै हे ॥१३॥ बेद पड़हि हरि नामु न बूझहि ॥ माइआ कारणि पड़ि पड़ि लूझहि ॥ अंतरि मैलु अगिआनी अंधा किउ करि दुतरु तरीजै हे ॥१४॥ बेद बाद सभि आखि वखाणहि ॥ न अंतरु भीजै न सबदु पछाणहि ॥ पुंनु पापु सभु बेदि द्रिड़ाइआ गुरमुखि अम्रितु पीजै हे ॥१५॥ आपे साचा एको सोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ नानक नामि रते मनु साचा सचो सचु रवीजै हे ॥१६॥६॥ {पन्ना 1050} पद्अर्थ: महेसु = शिव। वीचारी = बिचार के देख ले। बधक = बँधक, बँधे हुए। मुकति = (आत्मिक मौत से) खलासी। निरारी = अलग। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। अनदिनु = हर रोज। रवीजै = सिमरना चाहिए।13। पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। कारणि = की खातिर। पढ़ि = पढ़ के। लूझहि = जलते हैं, खिझते हैं। अंतरि = अंदर। किउ करि = कैसे? दुतरु = (दुष्तर) मुश्किल से तैरा जा सकने वाला। तरीजै = तैरा जा सकता है।14। बेद बाद = वेदों के झगड़े, वेदों की बहसें। सभि = सारे (पंडित लोग)। आखि = कह के। वखाणहि = व्याख्या करते हैं। अंतरु = अंदरूनी, हृदय। न भीजै = नहीं भीगता, नहीं खिलता। सभु = सारा, निरा। बेदि = वेद ने। द्रिढ़ाइआ = दृढ़ करवाया है, बार बार ताकीद की है, बार बार ध्यान दिलवाया है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से ही। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस। पीजै = पीया जा सकता है।15। आपे = स्वयं ही। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सोई = वही। अवरु = कोई और। नामि = नाम में। रते = रति हुए, रंगे हुए। साचा = अडोल, अहिल। सचो सचु = सिर्फ सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही। रवीजै = सिमरना चाहिए।16। अर्थ: हे भाई! बिचार के देख लो - ब्रहमा हो, विष्णू हो, शिव हो (कोई भी हो, जो प्राणी) माया के तीन गुणों में बँधे हुए हैं (आत्मिक मौत से) मुक्ति (उनसे) अलग हो जाती है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है वह सिर्फ यही आत्मिक जीवन की सूझ हासिल करता है कि हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए।13। हे भाई! (पंण्डित लोग) वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ते हैं, (पर अगर वे) परमात्मा के नाम को (जीवन का मनोरथ) नहीं समझते, तो वे माया (कमाने) के लिए ही (वेदा आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़-पढ़ के (माया के कम चढ़ावे को देख कर अंदर-अंदर से ही) खिझते रहते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर (माया के मोह की) मैल है (वह वेद-पाठी पंडित भी हो, तो भी) वह अंधा बेसमझ है, इस तरह यह दुश्तर संसार-समुंद्र तैरा नहीं जा सकता।14। हे भाई! सारे (पण्डित लोक) वेद (आदि धम्र पुस्तकों) की चर्चा उचार के (औरों के सामने) व्याख्या करते हैं, (इस तरह) ना (उनका अपना) हृदय भीगता है, ना ही वे सिफत सालाह की बाणी की कद्र समझते हैं। हे भाई! वेदों ने बार-बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि कौन सा पुन्य कर्म है और कौन सा 'पाप कर्म' है। आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल तो गुरू के शरण पड़ कर ही पीया जा सकता है।15। हे भाई! (अपने जैसा) सिर्फ वह परमत्मा स्वयं ही है जो सदा कायम रहने है, उसके बिना (उस जैसा) है उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे गए हैं, उनका मन अडोल हो जाता है। (इस वासते, हे भाई! ) सदा कायम रहने वाले परमात्मा को ही सिमरना चाहिए।16।6। मारू महला ३ ॥ सचै सचा तखतु रचाइआ ॥ निज घरि वसिआ तिथै मोहु न माइआ ॥ सद ही साचु वसिआ घट अंतरि गुरमुखि करणी सारी हे ॥१॥ सचा सउदा सचु वापारा ॥ न तिथै भरमु न दूजा पसारा ॥ सचा धनु खटिआ कदे तोटि न आवै बूझै को वीचारी हे ॥२॥ सचै लाए से जन लागे ॥ अंतरि सबदु मसतकि वडभागे ॥ सचै सबदि सदा गुण गावहि सबदि रते वीचारी हे ॥३॥ सचो सचा सचु सालाही ॥ एको वेखा दूजा नाही ॥ गुरमति ऊचो ऊची पउड़ी गिआनि रतनि हउमै मारी हे ॥४॥ {पन्ना 1050} पद्अर्थ: सचै = सदा कायम रहने वाले (प्रभू) ने। सचा = सदा कायम रहने वाला। निज घरि = अपने घर में, अपने स्वरूप में। तिथै = उसी स्वै स्वरूप में, उस 'निज घर' में। सद = सदा। घट अंतरि = हृदय में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। सारी = श्रेष्ठ। करणी = (करणीय) करने योग्य काम।1। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। तिथै = उस सौदे में, उस व्यापार में। भरमु = भटकना। दूजा पसारा = माया का पसारा। खटिआ = कमाया। तोटि = कमी, घाटा। को = कोई। वीचारी = विचारवान।2। लाऐ = (इस सौदे व्यापार में) लगा दिए। से = वह (बहुवचन)। अंतरि = (उनके) अंदर। सबदु = सिफत सालाह की बाणी। मसतकि = माथे पर। सबदि = शबद से, बाणी के द्वारा। गावहि = गाते हैं। रते = रंगे हुए।3। सालाही = मैं सालाहूँ। वेखा = देखूँ। गुरमति = गुरू की मति पर चल के। गिआनि = ज्ञान से। रतनि = रतन से। गिआनि रतनि = ज्ञान रतन से, श्रेष्ठ ज्ञान से।4। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने (अपने 'निज घर' में बैठने के लिए) सदा कायम रहने वाला तख्त बना रखा है, उस स्वै-स्वरूप में वह अडोल बैठा है, वहाँ माया का मोह असर नहीं कर सकता। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य (हरी-नाम जपने का) श्रेष्ठ करने-योग्य कर्म करता है, उसके हृदय में वह सदा-स्थिर प्रभू हमेशा के लिए आ बसता है।1। हे भाई! नाम-धन कमाना ही सदा-स्थिर सौदा है सदा-स्थिर व्यापार है, उस सौदे-व्यापार में कोई भटकना नहीं, कोई माया का पसारा नहीं। यह सदा-स्थिर नाम-धन कमाने से कभी घाटा नहीं पड़ता। पर इस बात को कोई विरला विचारवान ही समझता है।2। हे भाई! (इस नाम-धन के व्यापार में) वही मनुष्य लगते हैं, जिनको सदा-स्थिर परमात्मा ने स्वयं लगाया है। उनके हृदय में गुरू का शबद बसता है, उनके माथे पर अच्छे भाग्य जाग उठते हैं। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद से सदा हरी-गुण गाते रहते हैं, वह मनुष्य गुरू-शबद (के रंग) में रंगे रहते हैं, वह उच्च विचार के मालिक बन जाते हैं।3। हे भाई! मैं तो सदा उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की ही सिफत-सालाह करता हूँ। मैं तो (हर जगह) सिर्फ उस परमात्मा को ही देखता हूँ, (मुझे उसके बिना) कोई और नहीं (दिखाई देता)। हे भाई! गुरू की मति पर चल कर (परमात्मा की सिफत-सालाह करनी - यह ही परमात्मा के चरणों तक पहुँचने के लिए) सबसे ऊँची सीढ़ी है। इस श्रेष्ठ ज्ञान की बरकति से मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार मार खत्म कर देता है।4। माइआ मोहु सबदि जलाइआ ॥ सचु मनि वसिआ जा तुधु भाइआ ॥ सचे की सभ सची करणी हउमै तिखा निवारी हे ॥५॥ माइआ मोहु सभु आपे कीना ॥ गुरमुखि विरलै किन ही चीना ॥ गुरमुखि होवै सु सचु कमावै साची करणी सारी हे ॥६॥ कार कमाई जो मेरे प्रभ भाई ॥ हउमै त्रिसना सबदि बुझाई ॥ गुरमति सद ही अंतरु सीतलु हउमै मारि निवारी हे ॥७॥ सचि लगे तिन सभु किछु भावै ॥ सचै सबदे सचि सुहावै ॥ ऐथै साचे से दरि साचे नदरी नदरि सवारी हे ॥८॥ {पन्ना 1050} पद्अर्थ: सबदि = गुरू के शबद से। सचु = सदा स्थिर प्रभू। मनि = मन में। जा = अथवा, जब। तुधु = तुझे। भाइआ = अच्छा लगा। तिखा = तृष्णा, प्यास। निवारी = दूर कर दी।5। सभु = सारा। आपे = आप ही। विरलै किन ही = किसी विरले ने ही (किन ही = 'जिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। चीना = पहचाना। सचु = सदा स्थिर हरी नाम (का सिमरन)। सारी = श्रेष्ठ।6। प्रभ भाई = प्रभू को अच्छी लगी। सबदि = शबद की बरकति से। हरेक = मिटा दी। सद = सदा। अंतरु = हृदय, अंदरूनी। सीतलु = शांत। मारि = मार के।7। सचि = सदा स्थिर प्रभू के नाम में। सभु किछु = (परमात्मा का किया) हरेक काम। सचै सबदे = सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी से। सुहावै = सुंदर जीवन वाला बन जाता है। अैथै = इस लोक में। से = वह (बहुवचन)। दरि = प्रभू के दर पर। साचे = सुर्खरू। नदरी = मेहर की निगाह करने वाला प्रभू।8। अर्थ: हे प्रभू! जिस मनुष्य ने गुरू के शबद की बरकति से (अपने अंदर से) माया का मोह जला डाला, जब वह मनुष्य तुझे अच्छा लग पड़ा तब तेरा सदा-स्थिर नाम उस के मन में बस गया। हे भाई! जिस मनुष्य ने (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लिया, माया की तृष्णा दूर कर ली, उसको अभूल परमात्मा की सारी कार अभूल प्रतीत होने लग गई।5। हे भाई! माया का सारा मोह परमात्मा ने स्वयं ही पैदा किया है, पर ये बात किसी उस विरले ने ही पहचानी है जो गुरू के सन्मुख रहता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ जाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के नाम सिमरन की कमाई करता है, उसको नाम-सिमरन वाली कार ही श्रेष्ठ लगती है।6। हे भाई! जिस मनुष्य ने वह कार करनी आरम्भ कर दी जो मेरे प्रभू को पसंद आती है (जिस मनुष्य ने प्रभू की रजा में चलना आरम्भ कर दिया), जिसने गुरू के शबद द्वारा (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लिया, माया की तृष्णा मिटा ली, गुरू की मति पर चल कर उसका हृदय सदा ही शांत रहता है।7। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में जुड़ते हैं, उनको परमात्मा का किया हुआ हरेक काम भला प्रतीत होता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी से सदा-स्थिर प्रभू में टिक के मनुष्य अपना जीवन सुंदर बना लेता है। (सिमरन की बरकति से जो मनुष्य) इस लोक में सुर्खरू हो जाते हैं, वे मनुष्य प्रभू की हजूरी में भी सुर्खरू हो जाते हैं। मेहर की निगाह वाले परमात्मा की मेहर की नज़र उनका जीवन सँवार देती है।8। बिनु साचे जो दूजै लाइआ ॥ माइआ मोह दुख सबाइआ ॥ बिनु गुर दुखु सुखु जापै नाही माइआ मोह दुखु भारी हे ॥९॥ साचा सबदु जिना मनि भाइआ ॥ पूरबि लिखिआ तिनी कमाइआ ॥ सचो सेवहि सचु धिआवहि सचि रते वीचारी हे ॥१०॥ गुर की सेवा मीठी लागी ॥ अनदिनु सूख सहज समाधी ॥ हरि हरि करतिआ मनु निरमलु होआ गुर की सेव पिआरी हे ॥११॥ से जन सुखीए सतिगुरि सचे लाए ॥ आपे भाणे आपि मिलाए ॥ सतिगुरि राखे से जन उबरे होर माइआ मोह खुआरी हे ॥१२॥ {पन्ना 1050} पद्अर्थ: बिनु साचे = सदा स्थिर प्रभू से टूटके। दूजै = माया (के प्यार) में। सबाइआ = सारे। जापै नाही = समझ नहीं पड़ती।9। साचा सबदु = सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगा। पूरबि = पूर्बले जनम में। लिखिआ = किए कर्मों के संस्कार। तिनी = उन्होंने। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं (बहुवचन)। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में। रते = रंगे हुए। वीचारी = ऊँची सूझ वाले।10। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज समाधी = आत्मिक अडोलता वाली समाधि।11। सतिगुरि = गुरू ने। सचे = सचि, सदा स्थिर प्रभू में। लाऐ = जोड़ दिए। आपे = स्वयं ही। भाणे = अच्छे लगे। से = वह (बहुवचन)। उबरे = बच गए। होर = बाकी की दुनिया।12। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू (के नाम) से टूट कर जो मनुष्य माया के प्यार में मस्त रहता है, उसको माया के मोह के सारे दुख (चिपके रहते हैं), माया के मोह का बहुत सारा दुख उसको बना रहता है। गुरू की शरण के बिना ये समझ नहीं आती कि दुख कैसे दूर हो और सुख कैसे मिले।9। हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी प्यारी लगने लग जाती है, वही मनुष्य पूर्बले जनम में किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार (नाम सिमरन की) कमाई करते हैं। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सेवा-भक्ति करते हैं, सदा-स्थिर प्रभू को सिमरते हैं, सदा-स्थिर प्रभू के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, और ऊँची सूझ वाले हो जाते हैं।10। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू की (बताई) सेवा प्यारी लगती है, वह हर वक्त आत्मिक आनंद पाता है, उसकी आत्मिक अडोलता वाली समाधि बनी रहती है, परमात्मा का नाम जपते उसका मन पवित्र हो जाता है, गुरू की शरण पड़े रहना उसको अच्छा लगता है।11। हे भाई! जिन मनुष्यों को गुरू ने सदा-स्थिर प्रभू की याद में जोड़ दिया, वे सुखी जीवन व्यतीत करते हैं, (ये परमात्मा की अपनी ही मेहर है, प्रभू को) स्वयं ही (ऐसे मनुष्य) अच्छे लगे, और, स्वयं ही उसने (अपने चरणों में) जोड़ लिए। हे भाई! गुरू ने जिन मनुष्यों की रक्षा की, वे मनुष्य (माया के मोह से) बच गए, बाकी की दुनिया माया के मोह का संताप ही (सारी उम्र) सहती रही।12। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |