श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1051 गुरमुखि साचा सबदि पछाता ॥ ना तिसु कुट्मबु ना तिसु माता ॥ एको एकु रविआ सभ अंतरि सभना जीआ का आधारी हे ॥१३॥ हउमै मेरा दूजा भाइआ ॥ किछु न चलै धुरि खसमि लिखि पाइआ ॥ गुर साचे ते साचु कमावहि साचै दूख निवारी हे ॥१४॥ जा तू देहि सदा सुखु पाए ॥ साचै सबदे साचु कमाए ॥ अंदरु साचा मनु तनु साचा भगति भरे भंडारी हे ॥१५॥ आपे वेखै हुकमि चलाए ॥ अपणा भाणा आपि कराए ॥ नानक नामि रते बैरागी मनु तनु रसना नामि सवारी हे ॥१६॥७॥ {पन्ना 1051} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सबदि = गुरू के शबद से। पछाता = पहचान लिया, सांझ डाल ली। तिसु = उस (परमात्मा) का। कुटंबु = परिवार। माता = माँ। ऐको ऐकु = वह स्वयं ही स्वयं। रविआ = व्यापक है। अंतरि = अंदर। आधारी = आसरा देने वाला।13। मेरा = ममता। दूजा = माया का मोह। भाइआ = पसंद आया। धुरि = धुर दरगाह से। खसमि = मालिक प्रभू ने। लिखि = लिख के। ते = से। साचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। कमावहि = कमाते हैं (बहुवचन)। साचै = सदा स्थिर प्रभू ने। दूख = सारे दुख। निवारी = दूर कर दिए हैं।14। जा = जब, अथवा। सुखु = आत्मिक आनंद। साचै = सदा स्थिर प्रभू में। सबदे = गुरू के शबद से। साचु कमाऐ = नाम सिमरन की कमाई करता है। अंदरु = हृदय। साचा = अडोल। भंडारी = खजाने।15। आपे = स्वयं ही। वेखै = देखता है। हुकमि = हुकम में। भाणा = रज़ा। नामि = नाम रंग में। रते = रंगे हुए। बैरागी = बैरागवान, माया से निर्लिप। रसना = जीभ। नामि = नाम ने।16। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर गुरू के शबद से सदा स्थिर परमात्मा के साथ सांझ डाल ली (उसको यह समझ आ गई कि) उस (परमात्मा) का ना कोई (खास) परिवार है ना उसकी माँ है, वह स्वयं ही स्वयं सब जीवों में व्यापक है और सब जीवों का आसरा है।13। हे भाई! (कई ऐसे हैं जिनको) अहंकार अच्छा लगता है, ममता प्यारी लगती है, माया का मोह पसंद है; पर मालिक-प्रभू ने धुर से ही यह मर्यादा चला रखी है कि कोई भी चीज़ (किसी के साथ) नहीं जाती। अभूल गुरू से (शिक्षा ले कर) जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कमाई करते हैं, सदा-स्थिर परमात्मा ने उनके सारे दुख दूर कर दिए।14। हे प्रभू! जब तू (किसी मनुष्य को अपने नाम की दाति) देता है (वह मनुष्य) सदा आत्मिक आनंद पाता है। गुरू के शबद से वह तेरे सदा-स्थिर स्वरूप में टिक के तेरा सदा-स्थिर नाम सिमरता है। उस मनुष्य का हृदय अडोल हो जाता है, उसका मन अडोल हो जाता है, उसका शरीर (विकारों से) अडोल हो जाता है, (उसके अंदर) भगती के भण्डारे भर जाते हैं।15। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों की) संभाल कर रहा है (सबको अपने) हुकम में चला रहा है, अपनी रज़ा (जीवों से) खुद कराता है। हे नानक! जो मनुष्य उसके नाम-रंग में रंगे रहते हैं वे माया से निर्लिप रहते हैं, उनके मन उनके तन उनकी जीभ को परमात्मा के नाम ने सुंदर बना दिया होता है।16।7। मारू महला ३ ॥ आपे आपु उपाइ उपंना ॥ सभ महि वरतै एकु परछंना ॥ सभना सार करे जगजीवनु जिनि अपणा आपु पछाता हे ॥१॥ जिनि ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सिरि सिरि धंधै आपे लाए ॥ जिसु भावै तिसु आपे मेले जिनि गुरमुखि एको जाता हे ॥२॥ आवा गउणु है संसारा ॥ माइआ मोहु बहु चितै बिकारा ॥ थिरु साचा सालाही सद ही जिनि गुर का सबदु पछाता हे ॥३॥ इकि मूलि लगे ओनी सुखु पाइआ ॥ डाली लागे तिनी जनमु गवाइआ ॥ अम्रित फल तिन जन कउ लागे जो बोलहि अम्रित बाता हे ॥४॥ {पन्ना 1051} पद्अर्थ: आपे = (प्रभू) स्वयं ही। आपु = अपने आप को। उपाइ = पैदा करके। उपंना = प्रगट हुआ है। महि = में। परछंना = गुप्त, छुपा हुआ, सूक्ष्म रूप में। सार = संभाल। जग जीवनु = जगत का आसरा प्रभू। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।1। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। महेसु = शिव। उपाऐ = पैदा किए। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक (जीव) के सिर पर। धंधै = धंधे में। जिसु भावै = जो उसे अच्छा लगे। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।2। आवागउणु = आवागवन, पैदा होना मरने का चक्कर। चितै = चितवता है। थिरु = टिका रहने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। सालाही = सलाहने योग्य। सद = सदा। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।3। इकि = (शब्द 'इकि' से बहुवचन) कई। मूलि = मूल में, आदि में, जगत के रचनहार में। ओनी = उन्होंने। डाली = डालियों में, शाखाओं में, मायावी पदार्थों में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। कउ = को। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। अंम्रित बाता = आत्मिक जीवन देने वाली बातें।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने सदा अपने जीवन को पड़ताला है (आत्मावलोकन किया है वह जानता है कि) परमात्मा स्वयं ही अपने आप को पैदा करके प्रकट हुआ, परमात्मा स्वयं ही सबके अंदर गुप्त रूप में व्यापक है और वह जगत का सहारा प्रभू सब जीवों की संभाल करता है।1। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर एक परमात्मा को हर जगह बसता पहचान लिया (वह समझता है कि) जिस परमात्मा ने ब्रहमा-विष्णू व शिव पैदा किए, वह स्वयं ही हरेक जीव को धंधे में लगाता है और जो उसको अच्छा लगता है उसको स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ता है।2। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू के शबद के साथ सांझ डाल ली (वह जानता है कि) यह जगत जनम-मरण का चक्कर ही है, यहाँ माया का मोह प्रबल है (जिसके कारण जीव) विकार चितवता रहता है। (यहाँ) सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही सदा सराहनीय है।3। हे भाई! कई ऐसे हैं जो जगत के रचनहार प्रभू की याद में जुड़े रहते हैं, वह आत्मिक आनंद पाते हैं। पर जो मनुष्य मायावी पदार्थों में लगे रहते हैं, उन्होंने अपना जीवन गवा लिया है। आत्मिक जीवन देने वाले फल उनको ही लगते हैं जो आत्मिक जीवन देने वाले (सिफत-सालाह के) बोल बोलते हैं।4। हम गुण नाही किआ बोलह बोल ॥ तू सभना देखहि तोलहि तोल ॥ जिउ भावै तिउ राखहि रहणा गुरमुखि एको जाता हे ॥५॥ जा तुधु भाणा ता सची कारै लाए ॥ अवगण छोडि गुण माहि समाए ॥ गुण महि एको निरमलु साचा गुर कै सबदि पछाता हे ॥६॥ जह देखा तह एको सोई ॥ दूजी दुरमति सबदे खोई ॥ एकसु महि प्रभु एकु समाणा अपणै रंगि सद राता हे ॥७॥ काइआ कमलु है कुमलाणा ॥ मनमुखु सबदु न बुझै इआणा ॥ गुर परसादी काइआ खोजे पाए जगजीवनु दाता हे ॥८॥ {पन्ना 1051} पद्अर्थ: किआ बोल बोलहि = हम क्या बोल बोल सकते हैं? हम बोलने लायक नहीं हैं, हमें बोलते हुए भी शर्म आती है। तोलहि = तू (सबके कर्मों को) जाँचता तोलता है। राखहि = तू रखता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला।5। जा = जब, अथवा। तुधु भाणा = तुझे अच्छा लगे। कारै = कार में। छोडि = छोड़ के। निरमलु = पवित्र। साचा = सदा कायम रहने वाला। कै सबदि = के शबद से।6। देखा = देखूँ। दूजी = माया की झाक वाली। दुरमति = खोटी मति। सबदे = शबद से। ऐकसु महि = एक अपने आप में। समाणा = लीन है। रंगि = मौज में। राता = मस्त।7। काइआ कमलु = शरीर में हृदय कमल फूल। मनमुख = मन के पीछे चलने वाला। इआणा = बेसमझ। परसादी = कृपा से। पाऐ = पा लेता है।8। अर्थ: हे प्रभू! हम जीव गुण-हीन हैं, (अपने बुरे कर्मों के कारण) हम बोलने के भी लायक नहीं हैं। तू सब जीवों (के कर्मों) को देखता है परखता है। जैसे तेरी रजा होती है तू हमें रखता है, हम उसी तरह रह सकते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य तेरे साथ ही सांझ डालता है।5। हे प्रभू! जब तुझे अच्छा लगे, तब तू (सब जीवों को) सच्ची कार में लगाता है, (जिनको लगाता है, वे) अवगुण छोड़ के तेरे गुणों में लीन हुए रहते हैं। हे भाई! प्रभू के गुणों में चिक्त जोड़ने से गुरू के शबद से वह पवित्र अविनाशी प्रभू ही (हर जगह) दिखता है।6। हे भाई! मैं जिधर देखता हूँ, उधर सिर्फ वह परमात्मा ही दिख रहा है। प्रभू के बिना किसी और को देखने के लिए खोटी मति गुरू के शबद से नाश हो जाती है। (शबद की बरकति से इस तरह दिख जाता है कि) अपने आप में परमात्मा आप ही समाया हुआ है, वह सदा अपनी मौज में रहता है।7। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला बेसमझ मनुष्य गुरू के शबद से सांझ नहीं डालता, (इस वास्ते उसके) शरीर में उसका हृदय-कमल-फूल कुम्हलाया रहता है। जो मनुष्य गुरू की कृपा से अपने शरीर को खोजता है (अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है) वह जगत के सहारे परमात्मा को पा लेता है।8। कोट गही के पाप निवारे ॥ सदा हरि जीउ राखै उर धारे ॥ जो इछे सोई फलु पाए जिउ रंगु मजीठै राता हे ॥९॥ मनमुखु गिआनु कथे न होई ॥ फिरि फिरि आवै ठउर न कोई ॥ गुरमुखि गिआनु सदा सालाहे जुगि जुगि एको जाता हे ॥१०॥ मनमुखु कार करे सभि दुख सबाए ॥ अंतरि सबदु नाही किउ दरि जाए ॥ गुरमुखि सबदु वसै मनि साचा सद सेवे सुखदाता हे ॥११॥ जह देखा तू सभनी थाई ॥ पूरै गुरि सभ सोझी पाई ॥ नामो नामु धिआईऐ सदा सद इहु मनु नामे राता हे ॥१२॥ {पन्ना 1051-1052} पद्अर्थ: कोट = किला, शरीर किला, शरीर। गह = पकड़ करने वाला। कोट गही के पाप = शरीर को ग्रसने वाले पाप। निवारे = दूर कर लेता है। राखै = रखता है। उह धारे = धर धारि, हृदय में टिका के। रंगु मजीठै = मजीठ का रंग। राता = रति हुआ, रंगा हुआ।9। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। गिआनु कथे = ज्ञान की बातें करता है। न होई = (उसके हृदय में ज्ञान) नहीं है, उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ नहीं है। ठउर = ठिकाना। सालाहे = सिफत सालाह करता है। जुगि जुगि = हरेक युग में।10। सभि = सारे। सबादे = सारे। अंदरि = अंदर, हृदय में। दरि = (प्रभू के) दर पर। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। सद = सदा। सेवे = सेवा भक्ति करता है।11। जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हॅँ। थाई = जगहों में। गुरि = गुरू से। नामो नामु = नाम ही नाम। धिआईअै = ध्याना चाहिए। नामे = नाम में ही।12। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को सदा अपने दिल में बसाए रखता है, वह (अपने अंदर से) शरीर को ग्रसने वाले पाप दूर कर लेता है। वह मनुष्य जिस (फल) की इच्छा करता है वह फल हासिल कर लेता है, उसका मन नाम-रंग में इस तरह रंगा रहता है जैसे मजीठ का (पक्का) रंग है।9। हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य ज्ञान की बातें तो करता है, (पर उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ) नहीं है। वह बार-बार जन्मों के चक्कर में पड़ा रहता है, उसे कहीं ठिकाना नहीं मिलता। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (गुरू से) आत्मिक जीवन की सूझ (प्राप्त करके) सदा परमात्मा की सिफत-सालाह करता है, उसको हरेक जुग में एक ही परमात्मा बसता समझ आता है।10। हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य वही काम करता है जिससे सारे दुख ही दुख घटित हों। उसके अंदर गुरू का शबद नहीं बसता, वह परमात्मा के दर पर नहीं पहुँच सकता। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के मन में गुरू का शबद बसता है सदा स्थिर प्रभू बसता है, वह सदा सुखों के दाते प्रभू की सेवा-भक्ति करता है।11। हे प्रभू! मैं जिधर देखता हूँ, तू सब जगहों में बसता मुझे दिखाई देता है, मुझे ये सारी समझ पूरे गुरू से मिली है। हे भाई! सदा ही सदा ही परमात्मा का नाम ही नाम सिमरना चाहिए। (जो मनुष्य सिमरता है उसका) यह मन नाम में ही रंगा जाता है।12। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |