श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नामे राता पवितु सरीरा ॥ बिनु नावै डूबि मुए बिनु नीरा ॥ आवहि जावहि नामु नही बूझहि इकना गुरमुखि सबदु पछाता हे ॥१३॥ पूरै सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ विणु नावै मुकति किनै न पाई ॥ नामे नामि मिलै वडिआई सहजि रहै रंगि राता हे ॥१४॥ काइआ नगरु ढहै ढहि ढेरी ॥ बिनु सबदै चूकै नही फेरी ॥ साचु सलाहे साचि समावै जिनि गुरमुखि एको जाता हे ॥१५॥ जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ साचा सबदु वसै मनि आए ॥ नानक नामि रते निरंकारी दरि साचै साचु पछाता हे ॥१६॥८॥ {पन्ना 1052}

पद्अर्थ: राता = रंगा हुआ। नामे = नाम रंग में। डूबि मुऐ = डूब के मर गए, विकारों में डूब के आत्मिक मौत मर गए। बिनु नीरा = पानी के बिना ही (विकारों का बिल्कुल ही मुकाबला करने-योग्य नहीं रहते)। आवहि = पैदा होते हैं। जावहि = मर जाते हैं। नही बूझहि = कद्र नहीं समझते। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के।13।

सतिगुरि = गुरू ने। बूझ = समझ। मुकति = विकारों से मुक्ति। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रंगि = प्रेम रंग में।14।

ढहि = ढह के। चूकै = खत्म होती। फेरी = जनम मरण का चक्कर। साचु = सदा स्थिर प्रभू। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।15।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

मनि = मन में। आऐ = आ के। नामि = नाम में। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। साचु पछाता = सदा स्थिर प्रभू के साथ सांझ डाल ली।16।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है, उसका शरीर (विकारों की मैल से) पवित्र रहता है; पर जो मनुष्य नाम से टूटे रहते हैं, वे (विकारों में) डूबके (आत्मिक मौत) मरे रहते हैं, वे विकारों का रक्ती भर भी मुकाबला नहीं कर सकते। जो मनुष्य हरी नाम की कद्र नहीं समझते, वे जगत में आते हैं और (खाली ही) चले जाते हैं। पर कई ऐसे हैं जो गुरू की शरण पड़ कर गुरू-शबद से सांझ डालते हैं।13।

हे भाई! पूरे गुरू ने (हमें ये) समझ बख्शी है कि परमात्मा के नाम के बिना किसी भी मनुष्य ने (विकारों से) मुक्ति हासिल नहीं की। जो मनुष्य हर वक्त नाम में लीन रहता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह प्रेम-रंग में रंगा रहता है।14।

हे भाई! यह शरीर-नगर (आखिर) गिर जाता है, और ढह-ढेरी हो जाता है। पर गुरू-शबद (को मन में बसाए) बिना (जीवात्मा का) जनम-मरण का चक्कर समाप्त नहीं होता। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है वह सदा-स्थिर परमात्मा की सिफत-सालाह करता रहता है, वह सदा-स्थिर (की याद) में लीन रहता है।15।

हे भाई! वही मनुष्य (सिफत-सालाह की दाति) हासिल करता है, जिस पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, सदा स्थिर परमात्मा की सिफत-सालाह का शबद उसके मन में आ बसता है। हे नानक! जो मनुष्य निरंकार के नाम में रंगे रहते हैं, जो सदा-स्थिर प्रभू के साथ सांझ डालते हैं वे उस सदा स्थिर के दर पर (कबूल हो जाते हैं)।16।8।

मारू सोलहे ३ ॥ आपे करता सभु जिसु करणा ॥ जीअ जंत सभि तेरी सरणा ॥ आपे गुपतु वरतै सभ अंतरि गुर कै सबदि पछाता हे ॥१॥ हरि के भगति भरे भंडारा ॥ आपे बखसे सबदि वीचारा ॥ जो तुधु भावै सोई करसहि सचे सिउ मनु राता हे ॥२॥ आपे हीरा रतनु अमोलो ॥ आपे नदरी तोले तोलो ॥ जीअ जंत सभि सरणि तुमारी करि किरपा आपि पछाता हे ॥३॥ जिस नो नदरि होवै धुरि तेरी ॥ मरै न जमै चूकै फेरी ॥ साचे गुण गावै दिनु राती जुगि जुगि एको जाता हे ॥४॥ {पन्ना 1052}

पद्अर्थ: आपे = (तू) खुद ही। सभु जिसु करणा = जिसु सभु करणा, जिसका (ये) सारा जगत है। सभि = सारे। गुपतु = छुपा हुआ, सूक्ष्म रूप में। वरतै = मौजूद है। कै सबदि = के शबद से।1।

भंडारा = खजाने। सबदि = शबद से। वीचारा = (ये) समझ। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। करसहि = (जीव) करेंगे। सिउ = साथ।2।

सभि = सारे। करि = कर के।3।

धुरि = धुर से। फेरी = जनम मरण का चक्कर। सारे गुण = सदा स्थिर रहने वाले गुण। जुगि जुगि = हरेक युग में (बसता)।4।

अर्थ: हे प्रभू! तू स्वयं ही वह करतार है जिसका (रचा हुआ यह) सारा जगत है। सारे जीव तेरी ही शरण में हैं। हे भाई! प्रभू खुद ही सब जीवों के अंदर गुप्त रूप में मौजूद है। गुरू के शबद से उसके साथ सांझ पड़ सकती है।1।

हे भाई! हरी के खजाने में भक्ति के भंडारे भरे पड़े हैं। गुरू के शबद से स्वयं ही प्रभू यह सूझ बख्शता है।

हे प्रभू! जो तुझे अच्छा लगता है, वही कुछ जीव करते हैं। हे भाई! (प्रभू की रजा से ही) जीव का मन उस सदा-स्थिर प्रभू के साथ जुड़ सकता है।2।

हे भाई! प्रभू स्वयं ही (कीमती) हीरा है खुद ही अमोलक रत्न है। प्रभू स्वयं ही अपनी मेहर की निगाह से (इस हीरे की) परख करता है। हे प्रभू! सारे ही जीव तेरी ही शरण में हैं। तू स्वयं ही कृपा करके (अपने साथ) गहरी सांझ पैदा करता है।3।

हे प्रभू! जिस मनुष्य पर धुर से तेरी हजूरी से तेरी मेहर की निगाह हो, वह बार-बार पैदा होता-मरता नहीं, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।

हे भाई! (जिस पर उसकी निगाह हो, वह) दिन-रात सदा-स्थिर प्रभू के गुण गाता है, हरेक युग में वह उस प्रभू को ही (बसता) समझता है।4।

माइआ मोहि सभु जगतु उपाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु देव सबाइआ ॥ जो तुधु भाणे से नामि लागे गिआन मती पछाता हे ॥५॥ पाप पुंन वरतै संसारा ॥ हरखु सोगु सभु दुखु है भारा ॥ गुरमुखि होवै सो सुखु पाए जिनि गुरमुखि नामु पछाता हे ॥६॥ किरतु न कोई मेटणहारा ॥ गुर कै सबदे मोख दुआरा ॥ पूरबि लिखिआ सो फलु पाइआ जिनि आपु मारि पछाता हे ॥७॥ माइआ मोहि हरि सिउ चितु न लागै ॥ दूजै भाइ घणा दुखु आगै ॥ मनमुख भरमि भुले भेखधारी अंत कालि पछुताता हे ॥८॥ {पन्ना 1052}

पद्अर्थ: मोहि = मोह में, मोह के अधीन। उपाइआ = पैदा किया है। सबाइआ = सारे। तुधु भाणे = तुझे अच्छा लगे। से = वह (बहुवचन)। नामि = नाम में। गिआन मती = आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति के द्वारा। पछाता = सांझ डाली है।5।

संसारा = जगत में। हरखु = खुशी। सोगु = गमी। सभु = हर जगह। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सुखु = आत्मिक आनंद। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।6।

किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह। कै सबद = के शबद से ही। मोख दुआरा = ('किरत' से) मुक्ति का दरवाजा। पूरबि = पूर्बले जनम में। आपु = स्वै भाव। मारि = मार के।7।

मोहि = मोह के कारण। सिउ = साथ। दूजै भाइ = माया के प्यार के कारण। घणा = बहुत। आगै = परलोक में, जीवन यात्रा में। मनमुख = मन के मुरीद। भरमि = भटकना के कारण। भुले = गलत राह पर पड़े रहते हैं। भेखधारी = धार्मिक पहरावा रखने वाले। अंत कालि = आखिरी समय।8।

अर्थ: हे प्रभू! ब्रहमा, विष्णू, सारे ही देवता गण (जो भी जगत में पैदा हुआ है) यह सारा ही जगत तूने माया के मोह में (ही) पैदा किया है (सब पर माया का प्रभाव है)। जो तुझे अच्छे लगते हैं, वह तेरे नाम में जुड़ते हैं। आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति के द्वारा ही तेरे साथ जान-पहचान बनती है।5।

हे भाई! सारे जगत में (माया के प्रभाव तहत ही) पाप और पुन्य हो रहा है। (माया के मोह में ही) हर जगह कहीं खुशी और कहीं ग़मी है (माया के मोह का) बहुत सारा दुख (जगत को व्याप रहा है)। जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर हरी-नाम के साथ सांझ डाली है, जो गुरू के सन्मुख रहता है वही आत्मिक आनंद पाता है।6।

हे भाई! कोई मनुष्य पिछले किए कर्मों की कमाई मिटा नहीं सकता। (पिछले किए कर्मों से) मुक्ति का रास्ता गुरू के शबद द्वारा ही मिलता है। जिस मनुष्य ने स्वै भाव मिटा के (हरी-नाम के साथ) सांझ डाल ली, उसने भी जो कुछ पूर्बले जनम में कमाई की, वही फल अब प्राप्त किया।7।

हे भाई! माया के मोह के कारण परमात्मा के साथ मन जुड़ नहीं सकता। माया के मोह में फसे रहने से जीवन-सफर में बहुत दुख होता है। मन के मुरीद मनुष्य धार्मिक पहरावा पहन के भी भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं। आखिरी वक्त में पछताना पड़ता है।8।

हरि कै भाणै हरि गुण गाए ॥ सभि किलबिख काटे दूख सबाए ॥ हरि निरमलु निरमल है बाणी हरि सेती मनु राता हे ॥९॥ जिस नो नदरि करे सो गुण निधि पाए ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाए ॥ गुण अवगण का एको दाता गुरमुखि विरली जाता हे ॥१०॥ मेरा प्रभु निरमलु अति अपारा ॥ आपे मेलै गुर सबदि वीचारा ॥ आपे बखसे सचु द्रिड़ाए मनु तनु साचै राता हे ॥११॥ मनु तनु मैला विचि जोति अपारा ॥ गुरमति बूझै करि वीचारा ॥ हउमै मारि सदा मनु निरमलु रसना सेवि सुखदाता हे ॥१२॥ {पन्ना 1052}

पद्अर्थ: कै भाणै = की रजा में (रह के)। सभि = सारे। किलबिख = पाप। सबाऐ = सारे। निरमलु = मल रहित, विकारों की मैल से रहित। सेती = साथ।9।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

गुण निधि = गुणों का खजाना। मेरा = 'मेरी मेरी' का भाव, ममता। ठाकि रहाऐ = रोक के रखता है। दाता = देने वाला। विरली = बहुत कम लोगों ने, विरलों ने।10।

अपारा = बेअंत। सबदि = शबद से। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्का करता है। साचै = सदा स्थिर प्रभू में।11।

जोति अपारा = बेअंत प्रभू की जोति। बूझै = समझता है। करि = कर के। मारि = मार के। रसना = जीभ से। सेवि = जप के।12।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की रजा में रह के परमात्मा के गुण गाता है, वह अपने सारे पाप सारे दुख (अपने अंदर से) काट देता है। उस का मन उस प्रभू के साथ रंगा रहता है, जो विकारों की मैल से रहित है और जिसकी सिफत सालाह की बाणी भी पवित्र है।9।

हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य पर मेहर की निगाह करता है वह उस गुणों के खजाने हरी का मिलाप हासिल कर लेता है, वह मनुष्य अपने अंदर से अहंकार और ममता (के प्रभाव) को रोक देता है। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले विरलों (कुछ एक ने ही) ये समझ लिया है कि गुण देने वाला और अवगुण पैदा करने वाला सिर्फ परमात्मा ही है।10।

हे भाई! मेरा प्रभू बड़ा बेअंत है और विकारों के प्रभाव से परे है। गुरू के शबद द्वारा (अपने गुणों की) विचार बख्श के वह स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है। जिस पर वह स्वयं ही बख्शिश करता है, उसके हृदय में अपना सदा-स्थिर नाम पक्का कर देता है; उस मनुष्य का मन उसका तन सदा-स्थिर हरी-नाम में रंगा जाता है।11।

हे भाई! (विकारों के कारण मनुष्य का) मन और तन गंदा हुआ रहता है, (फिर भी उसके) अंदर बेअंत परमात्मा की ज्योति मौजूद है। जब गुरू की मति से वह विचार करके (आत्मिक जीवन के भेद को) समझता है, तब अहंकार को दूर करके, और जीभ से सुखों के दाते प्रभू का नाम जप के, उसका मन सदा के लिए पवित्र हो जाता है।12।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh