श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1053 गड़ काइआ अंदरि बहु हट बाजारा ॥ तिसु विचि नामु है अति अपारा ॥ गुर कै सबदि सदा दरि सोहै हउमै मारि पछाता हे ॥१३॥ रतनु अमोलकु अगम अपारा ॥ कीमति कवणु करे वेचारा ॥ गुर कै सबदे तोलि तोलाए अंतरि सबदि पछाता हे ॥१४॥ सिम्रिति सासत्र बहुतु बिसथारा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ मूरख पड़हि सबदु न बूझहि गुरमुखि विरलै जाता हे ॥१५॥ आपे करता करे कराए ॥ सची बाणी सचु द्रिड़ाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई जुगि जुगि एको जाता हे ॥१६॥९॥ {पन्ना 1053} पद्अर्थ: गढ़ = किला। काइआ = शरीर। हट = हाट (बहुवचन। मन ज्ञान इन्द्रियां आदि)। तिसु विचि = इस (शरीर किले) में। अति अपारा = बहुत कीमती। कै = सबदि = के शबद से (खरीद फरोख़्त की)। दरि = (प्रभू के) दर से। सोहै = शोभा देता है, आदर पाता है। मारि = मार के।13। रतनु = नाम रतन। अमोलकु = अ+मोलकु, कोई दुनियावी पदार्थ जिसके बराबर की कीमत का ना हो। सबदे = शबद से। तोलि = तोल के, परख के। तोलाऐ = (जो मनुष्य) व्यापार करता है, खरीदता है। अंतरि = अपने अंदर ही। सबदि = शबद से।14। बिसथारा = (कर्मकाण्ड आदि का) पसारा। पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)।15। आपे = स्वयं ही। सची बाणी = सिफत सालाह की बाणी से। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। द्रिढ़ाऐ = (हृदय में) पक्का करता है। जुगि जुगि = हरेक युग में।16। अर्थ: हे भाई! इस शरीर किले में (मन, ज्ञान इन्द्रियां आदि) कई हाट हैं कई बाजार हैं (जहाँ परमात्मा के नाम-सौदे का सौदा किया जा सकता है)। इस (शरीर-किले) के बीच (ही) परमात्मा का बहुत कीमती नाम-पदार्थ है। जो मनुष्य गुरू के शबद द्वारा (इस नाम-रतन को परख के खरीदता है, वह मनुष्य) परमात्मा के दर पर सदा आदर पाता है, (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर के (वह मनुष्य इस नाम-रतन की) कद्र समझता है।13। हे भाई! कोई भी दुनियावी पदार्थ अपहुँच और बेअंत परमात्मा के नाम-रतन के बराबर की कीमत का नहीं है। जीव बेचारा इस नाम-रत्न का मूल्य पा ही नहीं सकता। जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा इस नाम-रतन को परख के खरीदता है, वह शबद की बरकति से अपने अंदर ही इसको पा लेता है।14। हे भाई! स्मृतियां-शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तक हरी-नाम के बिना और) बहुत सारे विचारों का खिलारा खिलारते हैं, (पर उनमें) माया का मोह ही है (कर्म-काण्ड का ही) पसारा पसरा हुआ है। (नाम की ओर से टूटे हुए) मूर्ख (उन पुस्तकों को) पढ़ते हैं, पर सिफत-सालाह की बाणी की कद्र नहीं समझते। गुरू के सन्मुख रहने वाले विरले मनुष्य ने (शबद की कद्र) समझ ली है।15। (पर हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) करतार स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। (जिस पर मेहर करता है) सिफत-सालाह की बाणी से (उसके हृदय में) सदा-स्थिर हरी-नाम पक्का कर देता है। हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभू का नाम मिल जाता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है। वह मनुष्य हरेक युग में एक परमात्मा को ही व्यापक समझता है।16।9। मारू महला ३ ॥ सो सचु सेविहु सिरजणहारा ॥ सबदे दूख निवारणहारा ॥ अगमु अगोचरु कीमति नही पाई आपे अगम अथाहा हे ॥१॥ आपे सचा सचु वरताए ॥ इकि जन साचै आपे लाए ॥ साचो सेवहि साचु कमावहि नामे सचि समाहा हे ॥२॥ धुरि भगता मेले आपि मिलाए ॥ सची भगती आपे लाए ॥ साची बाणी सदा गुण गावै इसु जनमै का लाहा हे ॥३॥ गुरमुखि वणजु करहि परु आपु पछाणहि ॥ एकस बिनु को अवरु न जाणहि ॥ सचा साहु सचे वणजारे पूंजी नामु विसाहा हे ॥४॥ {पन्ना 1053} पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सेविहु = सिमरा करो। सबदे = शबद में (जोड़ के)। निवारणहारा = दूर कर सकने वाला। अगमु = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियां ना पहुँच सकें। अथाहा = जिसकी गहराई नहीं नापी जा सकती।1। आपे = स्वयं ही। सचु = अटल हुकम। इकि = ('इक' का बहुवचन) कई। साचै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को। साचो = साचु ही, सदा स्थिर प्रभू को ही। नामे = नाम से ही। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।2। धुरि = धुर से ही, अपने हुकम अनुसार। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी से। गावै = गाता है (एक वचन)। लाहा = लाभ।3। क्रहि = करते हैं। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले बंदे। परु = पराए को। आपु = अपने को। को अवरु = कोई और। साहु = जीव वणजारों को पूँजी देने वाला शाह प्रभू। विसाहा = वणज करते हैं।4। अर्थ: हे भाई! उस सदा कायम रहने वाले करतार का सिमरन किया करो, वह गुरू के शबद में जोड़ के (जीवों के सारे) दुख दूर करने की समर्था वाला है। हे भाई! वह अपहुँच अगोचर और अथाह प्रभू (अपने जैसा) स्वयं ही है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता।1। हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही अपना अटल हुकम चला रहा है। कई भक्तजन ऐसे हैं जिनको उस सदा-स्थिर करतार ने स्वयं ही अपने चरणों से जोड़ रखा है। वह भक्त जन सदा-स्थिर का ही सिमरन करते रहते हैं, सदा-स्थिर नाम (सिमरन) की कमाई करते हैं, नाम (सिमरन की बरकति) से वह उस सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहते हैं।2। हे भाई! धुर दरगाह से भक्तों को प्रभू स्वयं ही अपने साथ मिलाता है, स्वयं ही उनको अपनी सच्ची भक्ति में जोड़ता है। (उसकी अपनी मेहर से ही मनुष्य) सिफत-सालाह की बाणी से सदा उसके गुण गाता है- हे भाई! ये सिफत-सालाह ही इस मानस जन्म की कमाई है।3। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं वह (नाम जपने का) व्यापार करते हैं, (इस तरह किसी) पराए को और किसी अपने को (ऐसे) पहचानते हैं (कि इनमें) एक परमात्मा के बिना कोई और दूसरा बसता वे नहीं जानते। (वे समझते हैं कि सबको आत्मिक जीवन की पूँजी देने वाला) शाह-परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, जीव उसके सदा-स्थिर नाम का व्यापार करने वाले हैं, (परमात्मा से) पूँजी (ले के उसका) नाम-सौदा खरीदते हैं।4। आपे साजे स्रिसटि उपाए ॥ विरले कउ गुर सबदु बुझाए ॥ सतिगुरु सेवहि से जन साचे काटे जम का फाहा हे ॥५॥ भंनै घड़े सवारे साजे ॥ माइआ मोहि दूजै जंत पाजे ॥ मनमुख फिरहि सदा अंधु कमावहि जम का जेवड़ा गलि फाहा हे ॥६॥ आपे बखसे गुर सेवा लाए ॥ गुरमती नामु मंनि वसाए ॥ अनदिनु नामु धिआए साचा इसु जग महि नामो लाहा हे ॥७॥ आपे सचा सची नाई ॥ गुरमुखि देवै मंनि वसाई ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहहि तिन सिरि चूका काहा हे ॥८॥ {पन्ना 1053} पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। साजे = पैदा करता है। स्रिसटि = जगत। कउ = को। गुर सबदु = गुरू का शबद। बुझाऐ = समझाता है। सेवहि = शरण पड़ते हैं। से = वह (बहुवचन)। साचे = अडोल जीवन वाले।5। घड़े = घड़ के। सवारे = सुंदर बनाता है। मोहि = मोह में। दूजै = मेर तेर में। पाजे = डाले हुए हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अंधु = अंधों वाला काम। गलि = गले में।6। मंनि = मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचा = सदा स्थिर। नामो = नाम ही। लाहा = लाभ।7। नाई = वडिआई। सची = सदा कायम रहने वाली। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले को। मंनि = मन में। जिन मनि = जिन के मन में। सोहहि = सुंदर लगते हैं। सिरि = सिर पर (पड़ा हुआ)। काहा = भारा, कज़िया। चूका = समाप्त हो जाता है।8। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही सृष्टि रचता है। (किसी) विरले (भाग्यशाली) को गुरू के शबद की सूझ भी स्वयं ही बख्शता है। (उसकी मेहर से जो मनुष्य) गुरू की शरण पड़ते हैं, वे अडोल जीवन वाले हो जाते हैं, परमात्मा स्वयं ही उनकी जम (आत्मिक मौत) के बँधन काटता है।5। हे भाई! (जीवों के शरीर-बर्तन) घड़ के (खुद ही) सँवारता है। माया के मोह में, मेर तेर में भी जीव (उसने स्वयं ही) डाले हुए हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (मोह में) भटकते फिरते हैं, सदा अंधों वाले काम करते रहते हैं, उनके गले में आत्मिक मौत की रस्सी का बँधन बँधा रहता है।6। हे भाई! प्रभू स्वयं (जिन पर) बख्शिश करता है (उनको) गुरू की सेवा में जोड़ता है, गुरू की मति दे के (अपना) नाम (उनके) मन में बसाता है। जो मनुष्य हर वक्त हरी-नाम सिमरता है, वह अडोल जीवन वाला हो जाता है। हे भाई! परमात्मा का नाम ही इस जगत में (असल) कमाई है।7। हे भाई! प्रभू स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, उसकी वडिआई भी सदा कायम रहने वाली है। गुरू के सन्मुख रख के (जीव को अपनी वडिआई) देता है (जीव के) मन में बसाता है। हे भाई! जिनके मन में (परमात्मा का नाम) आ बसता है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) शोभते हैं, उनके सिर (पड़ा हुआ) भार समाप्त हो जाता है।8। अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ सदा सबदि सालाही गुणदाता लेखा कोइ न मंगै ताहा हे ॥९॥ ब्रहमा बिसनु रुद्रु तिस की सेवा ॥ अंतु न पावहि अलख अभेवा ॥ जिन कउ नदरि करहि तू अपणी गुरमुखि अलखु लखाहा हे ॥१०॥ पूरै सतिगुरि सोझी पाई ॥ एको नामु मंनि वसाई ॥ नामु जपी तै नामु धिआई महलु पाइ गुण गाहा हे ॥११॥ सेवक सेवहि मंनि हुकमु अपारा ॥ मनमुख हुकमु न जाणहि सारा ॥ हुकमे मंने हुकमे वडिआई हुकमे वेपरवाहा हे ॥१२॥ {पन्ना 1053-1054} पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। परसादी = कृपा से। मंनि = मन में। सालाही = मैं सालाहता हूँ। ताहा = उसका। सबदि = शबद से।9। रुद्रु = शिव। तिसु की = उस परमात्मा की ('तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है)। पावहि = पा सकते, पाते (बहुवचन)। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अभेवा = जिसका भेद नहीं पाया जा सके। करहि = तू करता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।10। सतिगुरि = गुरू के द्वारा। मंनि = मन में। वसाई = मैं बसाता हूँ। जपी = मैं जपता हूँ। तै = और। धिआई = मैं ध्याता हूँ। महलु = प्रभू चरनों में ठिकाना। गाहा = मैं चॅुभी लगाता हूँ।11। सेवहि = सेवा करते हैं। मंनि = मान के। मनमुख = मन के मुरीद मनुष्य। हुकम सारा = हुकम की सार, हुकम की कद्र। न जाणहि = नहीं जानते (बहुवचन)।12। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपहुँच है, ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता)। मैं तो उसको गुरू की कृपा से (अपने) मन में बसाता हूँ। गुरू के शबद से मैं सदा उस गुणों के दाते की सिफत-सालाह करता हूँ। (जो उस गुण-दाते की सिफत-सालाह करता है) उस (के कर्मों का) लेखा कोई नहीं माँगता।9। हे भाई! ब्रहमा, विष्णु, शिव (ये सारे) उस (परमात्मा) की ही शरण में रहते हैं। (ये बड़े-बड़े देवते भी उस) अलख और अभेव परमात्मा (के गुणों) का अंत नहीं पा सकते। हे प्रभू! जिन पर तू अपनी मेहर की निगाह करता है उनको गुरू की शरण में ला के तू अपना अलख स्वरूप समझा देता है।10। हे भाई! पूरे सतिगुरू ने (मुझे आत्मिक जीवन की) समझ बख्शी है, अब मैं परमात्मा का ही नाम अपने मन में बसाता हूँ। मैं परमात्मा का नाम जपता हूँ, और उसका नाम ध्याता हूँ, (नाम की बरकति से प्रभू-चरनों में) ठिकाना प्राप्त करके मैं उसके गुणों में डुबकी लगा रहा हूँ।11। हे भाई! परमात्मा के भगत तो उस बेअंत प्रभू का हुकम मान के उसकी सेवा-भगती करते हैं, पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य उसके हुकम की कद्र नहीं समझते। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के हुकम को मानता है, वह प्रभू हुकम (मानने) के कारण (लोक-परलोक की) वडिआई प्राप्त करता है, वह बेपरवाह प्रभू के हुकम में ही लीन रहता है।12। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |