श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1054 गुर परसादी हुकमु पछाणै ॥ धावतु राखै इकतु घरि आणै ॥ नामे राता सदा बैरागी नामु रतनु मनि ताहा हे ॥१३॥ सभ जग महि वरतै एको सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सबदु सलाहहि से जन निरमल निज घरि वासा ताहा हे ॥१४॥ सदा भगत तेरी सरणाई ॥ अगम अगोचर कीमति नही पाई ॥ जिउ तुधु भावहि तिउ तू राखहि गुरमुखि नामु धिआहा हे ॥१५॥ सदा सदा तेरे गुण गावा ॥ सचे साहिब तेरै मनि भावा ॥ नानकु साचु कहै बेनंती सचु देवहु सचि समाहा हे ॥१६॥१॥१०॥ {पन्ना 1054} पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरू की कृपा से। हुकमु = (परमात्मा की) रज़ा। धावतु = भटकता मन। इकतु = एक में ही (शब्द 'इकसु' से अधिकरण कारक एक वचन)। घरि = घर में। इकतु घरि = एक घर में। आणै = ले आता है। नामे = नाम में ही। बैरागी = वैरागवान, माया से उपराम, निर्लिप। मनि = मन में। ताहा = उसके। मनि ताहा = उसके मन में।13। वरतै = व्यापक है। परगटु होई = दिखता है। सलाहहि = सलाहते हैं। से = वह (बहुवचन)। निज घरि = अपने (असल) घर में। ताहा = उनका।14। अगम = अपहुँच। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं। तुधु भावहि = तुझे अच्छे लगते हैं। तिउ = उसी तरह। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले।15। गावा = मैं गाता हूँ। साहिब = हे साहिब! सचे साहिब = हे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरै मनि = तेरे मन में। भावा = मैं भा जाऊँ, मैं प्यारा लगूँ। नानकु कहै = नानक कहता है। साचु = सदा स्थिर नाम। सचु = सदा स्थिर नाम। सचि = सदा स्थिर नाम में। समाहा = मैं समाया रहूँ।16। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की कृपा से परमात्मा की रजा को पहचानता है, वह अपने भटकते मन को रोक के रखता है, वह (अपने मन को) एक घर में ही ले आता है, वह मनुष्य हरी-नाम में रंगा रहता है, वह (विकारों से) सदा निर्लिप रहता है, परमात्मा का रतन-नाम उसके मन में बसा रहता है।13। हे भाई! सारे जगत में एक परमात्मा ही बसता है, पर वह गुरू की कृपा से दिखता है। जो मनुष्य गुरू के शबद को (हृदय में बसा के परमात्मा की) सिफत सालाह करते हैं, वे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, उनका निवास सदा स्वै-स्वरूप में हुआ रहता है।14। हे प्रभू! हे अपहुँच और अगोचर! तेरे भगत सदा तेरी शरण में रहते हैं। पर कोई तेरा मूल्य नहीं पा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले तू नहीं मिल सकता)। हे प्रभू! तू (अपने भक्तों को) वैसे ही रखता है, जैसे वह तुझे प्यारे लगते हैं। (तेरे भगत) गुरू की शरण पड़ कर तेरा नाम ध्याते हैं।15। हे प्रभू! (मेहर कर) मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ, ताकि, हे सदा-स्थिर मालिक! मैं तेरे मन में प्यारा लगता रहूँ। (तेरा दास) नानक (तेरे आगे) विनती करता है, तू सदा कायम रहने वाला है, मुझे अपना सदा-स्थिर नाम दे, मैं तेरे सदा-स्थिर नाम में लीन हुआ रहूँ।16।1।10। मारू महला ३ ॥ सतिगुरु सेवनि से वडभागी ॥ अनदिनु साचि नामि लिव लागी ॥ सदा सुखदाता रविआ घट अंतरि सबदि सचै ओमाहा हे ॥१॥ नदरि करे ता गुरू मिलाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ हरि मनि वसिआ सदा सुखदाता सबदे मनि ओमाहा हे ॥२॥ क्रिपा करे ता मेलि मिलाए ॥ हउमै ममता सबदि जलाए ॥ सदा मुकतु रहै इक रंगी नाही किसै नालि काहा हे ॥३॥ बिनु सतिगुर सेवे घोर अंधारा ॥ बिनु सबदै कोइ न पावै पारा ॥ जो सबदि राते महा बैरागी सो सचु सबदे लाहा हे ॥४॥ {पन्ना 1054} पद्अर्थ: सेवनि = सेवा करते हैं, शरण पड़ते हैं। से = वे (बहुवचन)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचि नामि = सदा स्थिर नाम में। लिव = लगन। रविआ = मौजूद। घट अंतरि = हृदय में। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद से। ओमाहा = उत्साह, चढ़दीकला।1। नदरि = मेहर की निगाह। मंनि = मन में। मनि = मन में। सबदे = गुरू के शबद से।2। मेलि = (गुरू से) मिला के। ममता = (मम = मेरा, मेरी) कब्ज़े की वासना। सबदि = शबद से। जलाऐ = जला लेता है। मुकतु = (अहंकार, ममता से) आजाद। इक रंगी = एक प्रभू के साथ प्यार करने वाला। काहा = खहि खहि, वैर विरोध।3। घोर अंधारा = घोर अंधेरा (अहंकार ममता आदि का)। पारा = उस पार का किनारा। सबदि = शबद में। राते = मस्त। बैरागी = निर्लिप, त्यागी। सो सचु = उस सदा स्थिर हरी नाम। लाहा = लाभ।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वे बहुत भाग्यशाली हैं; सदा-स्थिर हरी-नाम में उनकी लगन हर वक्त लगी रहती है। सारे सुखों का दाता परमात्मा हर वक्त उनके हृदय में बसा रहता है। सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद से उनके अंदर आत्मिक जीवन के हिलौरे बने रहते हैं।1। पर, हे भाई! जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है तब (ही) गुरू मिलाता है, (गुरू के मिलाप की बरकति से वह मनुष्य) परमात्मा का नाम (अपने) मन में बसा लेता है। सारे सुखों का दाता प्रभू उसके मन में बसा रहता है, शबद की बरकति से उसके मन में जीवन-उत्साह बना रहता है।2। हे भाई! जब प्रभू कृपा करता है तब (जीव को गुरू से) मिला के (अपने चरणों से) मिला लेता है। वह मनुष्यगुरू के शबद से (अपने अंदर से) अहंकार और ममता को जला लेता है। सिर्फ परमात्मा के प्रेम-रंग के सदका वह मनुष्य (अहंकार और ममता से) सदा आजाद रहता है, उसका किसी के साथ भी वैर-विरोध नहीं होता।3। हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना (जीव के जीवन-राह में अहंकार और ममता आदि का) घोर अंधकार बना रहता है, गुरू के शबद के बिना कोई मनुष्य (इस घोर अंधेरे का) परला किनारा नहीं पा सकता। जो मनुष्य गुरू के शबद में मस्त रहते हैं, वे बड़े त्यागी है। गुरू के शबद से वे सदा-स्थिर हरी-नाम ही (उनके लिए असल) कमाई है।4। दुखु सुखु करतै धुरि लिखि पाइआ ॥ दूजा भाउ आपि वरताइआ ॥ गुरमुखि होवै सु अलिपतो वरतै मनमुख का किआ वेसाहा हे ॥५॥ से मनमुख जो सबदु न पछाणहि ॥ गुर के भै की सार न जाणहि ॥ भै बिनु किउ निरभउ सचु पाईऐ जमु काढि लएगा साहा हे ॥६॥ अफरिओ जमु मारिआ न जाई ॥ गुर कै सबदे नेड़ि न आई ॥ सबदु सुणे ता दूरहु भागै मतु मारे हरि जीउ वेपरवाहा हे ॥७॥ हरि जीउ की है सभ सिरकारा ॥ एहु जमु किआ करे विचारा ॥ हुकमी बंदा हुकमु कमावै हुकमे कढदा साहा हे ॥८॥ {पन्ना 1054} पद्अर्थ: करतै = करतार ने। धुरि = धुर से, अपने हुकम से। लिखि = (जीव के भाग्यों में) लिख के। दूजा भाउ = माया का मोह। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सु = वह मनुष्य। अलिपतो = निर्लिप। मनमुख = मन के मुरीद मनुष्य। वेसाहा = एतबार, भरोसा।5। से = वे (बहुवचन)। न पछाणहि = नहीं पहचानते, सांझ नहीं पाते। भै की = (संबंधक 'की' के कारण 'भउ' 'भै' में तब्दील हो गया है) डर अदब। सार = कीमत, कद्र। भै बिनु = ('भउ' से 'भै') डर अदब के बिना। सचु = सदा स्थिर प्रभू।6। अफरिओ = भूताया हुआ, ना टलने वाला। कै सबदे = के शबद से। भागै = भाग जाता है। मतु = कहीं ऐसा ना हो कि। मारे = सजा दे।7। सभ = सारी। सिरकारा = रईअत, हकूमत। हुकमी बंदा = हुकम में रहने वाला व्यक्ति। हुकमु कमावै = (परमात्मा का) हुकम बरतता है, हुकम अनुसार चलता है। हुकमे = हुकम अनुसार ही।8। अर्थ: हे भाई! करतार ने अपने हुकम से ही दुख और सुख (भोगना जीवों के भाग्यों में) लिख के डाल दिया है। माया का मोह भी परमात्मा ने खुद ही फैलाया हुआ है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह (माया के मोह से) निर्लिप रहता है; पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का कोई ऐतबार नहीं किया जा सकता (कि कौन से वक्त माया के मोह में फस जाए)।5। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद के साथ सांझ नहीं डालते, अपने मन के पीछे चलने लग जाते हैं, वे मनुष्य गुरू के डर-अदब की कद्र नहीं जानते। जब तक गुरू के भय-अदब में ना रहें, तब तक सदा-स्थिर निर्भय परमात्मा के साथ मिलाप नहीं हो सकता, (सदा ये सहम बना रहता है कि पता नहीं) जमराज (कब आ के) प्राण निकाल के ले जाएगा।6। हे भाई! जमराज को रोका नहीं जा सकता, जमराज को मारा नहीं जा सकता। पर, गुरू के शबद में जुड़ने से (जमराज का सहम मनुष्य के) नजदीक नहीं फटकता। जब वह गुरू का शबद (गुरमुख के मुँह से) सुनता है, तब दूर से ही (उसके पास से) भाग जाता है कि कहीं ऐसा ना हो कि बेपरवाह प्रभू (इस खुनामी के पीछे) सजा ही ना दे दे (जमराज गुरमुख मनुष्य को मौत का डर दे ही नहीं सकता)।7। हे भाई! सारी ही सृष्टि परमात्मा के हुकम में है (यमराज भी परमात्मा की ही प्रजा है रईयत है), परमात्मा के हुकम के बिना जमराज बेचारा कुछ नहीं कर सकता। जमराज भी प्रभू के हुकम में ही चलने वाला है, प्रभू के हुकम अनुसार ही कार करता है, हुकम के अनुसार ही प्राण निकालता है।8। गुरमुखि साचै कीआ अकारा ॥ गुरमुखि पसरिआ सभु पासारा ॥ गुरमुखि होवै सो सचु बूझै सबदि सचै सुखु ताहा हे ॥९॥ गुरमुखि जाता करमि बिधाता ॥ जुग चारे गुर सबदि पछाता ॥ गुरमुखि मरै न जनमै गुरमुखि गुरमुखि सबदि समाहा हे ॥१०॥ गुरमुखि नामि सबदि सालाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ एक नामि जुग चारि उधारे सबदे नाम विसाहा हे ॥११॥ गुरमुखि सांति सदा सुखु पाए ॥ गुरमुखि हिरदै नामु वसाए ॥ गुरमुखि होवै सो नामु बूझै काटे दुरमति फाहा हे ॥१२॥ {पन्ना 1054-1055} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साचै = सदा स्थिर परमात्मा ने। अकारा = जगत। सभु = सारा। पासारा = (प्रभू का) खिलारा। सो = वह। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभू के सिफत-सालाह के शबद से। ताहा = उसको।9। करमि = (प्रभू की) बख्शिश से। करमु = बख्शिश, कृपा। बिधाता जाता = सृजनहार से सांझ डालता है। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। सबदि समाहा = गुरू के शबद में लीन रहता है।10। नामि = नाम में। सालाहे = सिफत सालाह करता है। अगम = अपहुँच। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। ऐक नामि = परमात्मा के नाम ने ही। उधारे = विकारों से बचाए हैं, उद्धारे। नाम विसाह = नाम का व्यापार किया जा सकता है।11। हिरदे = अपने हृदय में। वसाऐ = बसाता है। नामु बूझै = नाम के साथ सांझ पाता है। दुरमति = खोटी मति। फाहा = फांसी।12। अर्थ: हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (समझता है कि) सारा जगत सदा-स्थिर परमात्मा ने पैदा किया है, ये सारा जगत पसारा परमात्मा का ही पसारा हुआ है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभू के साथ सांझ डाल लेता है, सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी की बरकति से उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।9। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (प्रभू की) बख्शिश से सृजनहार प्रभू के साथ सांझ डालता है। हे भाई! चारों युगों में ही गुरू के शबद के द्वारा ही प्रभू के साथ सांझ बनती है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता वह गुरू के शबद में लीन रहता है।10। हे भाई! गुरमुख मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ता है, गुरू के शबद द्वारा अगम अगोचर बेपरवाह प्रभू की सिफत-सालाह करता है। (हे भाई! गुरमुख जानता है कि) परमात्मा के नाम ने ही चारों युगों के जीवों का पार-उतारा किया है, और गुरू के शबद से नाम का व्यापार किया जा सकता है।11। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा आत्मिक ठंड और आत्मिक आनंद पाता है, वह अपने दिल में परमात्मा का नाम बसाए रखता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह हरी के नाम से सांझ पा लेता है।12। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |