श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 1055 गुरमुखि उपजै साचि समावै ॥ ना मरि जमै न जूनी पावै ॥ गुरमुखि सदा रहहि रंगि राते अनदिनु लैदे लाहा हे ॥१३॥ गुरमुखि भगत सोहहि दरबारे ॥ सची बाणी सबदि सवारे ॥ अनदिनु गुण गावै दिनु राती सहज सेती घरि जाहा हे ॥१४॥ सतिगुरु पूरा सबदु सुणाए ॥ अनदिनु भगति करहु लिव लाए ॥ हरि गुण गावहि सद ही निरमल निरमल गुण पातिसाहा हे ॥१५॥ गुण का दाता सचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नानक जनु नामु सलाहे बिगसै सो नामु बेपरवाहा हे ॥१६॥२॥११॥ {पन्ना 1055} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। उपजै = पैदा होता है। साचि = सदा कायम रहे वाले परमात्मा में। मरि = मर के। रहहि = रहते हैं (बहु वचन)। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।13। सोहहि = शोभा पाते हैं, आदर पाते हैं। (बहुवचन)। सच्ची बाणी = प्रभू की सिफत सालाह की बाणी राहीं। सबदि = गुरू के शबद की बरकति से। गावै = गाता है (एक वचन) सहज = आत्मिक अडोलता। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभू-चरणों में।14। भगति = (शब्द 'भक्ति' और 'भगत' का फर्क भी याद रखें।) लाऐ = लगा के। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सद = सदा। निरमल = पवित्र जीवन वाले।15। सचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। बूझै = समझता है। बिगसै = विगसता है, खिलता है।16। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह उस सदा-स्थिर परमात्मा (की याद) में लीन रहता है जिससे वह पैदा हुआ है, (इसलिए) वह बार-'बार पैदा होता-मरता नहीं, वह जूनियों में नहीं पड़ता। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले बंदे सदा परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, वे हर समय यह लाभ कमाते रहते हैं।13। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले भक्त परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं। सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी से गुरू के शबद की बरकति से उनके जीवन सुधर जाते हैं। हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा के गुण गाता है, वह आत्मिक अडोलता से प्रभू-चरणों में टिका रहता है (उसका मन बाहर नहीं भटकता)।14। हे भाई! पूरा गुरू शबद सुनाता है (और कहता है कि) हर समय सुरति जोड़ के परमात्मा की भक्ति करते रहो। जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाते हैं, प्रभू-पातशाह के पवित्र गुण गाते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।15। पर, हे भाई! (अपने) गुणों (के गायन) की दाति देने वाला वह सदा-स्थिर परमात्मा स्वयं ही है। गुरू के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (इस बात को) समझता है। हे नानक! परमात्मा का जो सेवक परमात्मा के नाम की वडिआई करता है, बेपरवाह प्रभू का नाम जपता है, वह सदा खिला हुआ रहता है।16।2।11। मारू महला ३ ॥ हरि जीउ सेविहु अगम अपारा ॥ तिस दा अंतु न पाईऐ पारावारा ॥ गुर परसादि रविआ घट अंतरि तितु घटि मति अगाहा हे ॥१॥ सभ महि वरतै एको सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सभना प्रतिपाल करे जगजीवनु देदा रिजकु स्मबाहा हे ॥२॥ पूरै सतिगुरि बूझि बुझाइआ ॥ हुकमे ही सभु जगतु उपाइआ ॥ हुकमु मंने सोई सुखु पाए हुकमु सिरि साहा पातिसाहा हे ॥३॥ सचा सतिगुरु सबदु अपारा ॥ तिस दै सबदि निसतरै संसारा ॥ आपे करता करि करि वेखै देदा सास गिराहा हे ॥४॥ {पन्ना 1055} पद्अर्थ: सेविहु = सिमरन किया करो। अगम = अपहुँच। अपारा = बेअंत। पारावारा = पार+अवारा, इस पार उस पार का किनारा। परसादि = कृपा से। घट अंतरि = जिस हृदय में। तितु घटि = उस हृदय में। अगाहा = अथाह।1। सभ महि = सब जीवों में। वरतै = मौजूद है। परसादी = कृपा से। प्रतिपाल = पालना। जग जीवनु = जगत का सहारा प्रभू। संबाहा = पहुँचाता है।2। सतिगुरि = गुरू ने। बूझि = (स्वयं) समझ के। बुझाइआ = (जगत को) समझाया है (कि)। हुकमे = (अपने) हुकम में ही। सिरि = सिर पर।3। सचा = सदा स्थिर, अटल। सबदु = (गुरू का) शबद (उपदेश) भी। अपारा = बहुत गहरा। दै सबदि = के शबद से। निसतरै = (संसार समुंद्र से) निस्तारा पार उतारा हो जाता है। करि = कर के। वेखै = संभाल करता है। सास = श्वास (बहुवचन)। गिराहा = ग्रास, रोजी।4। तिस दै: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'दै' के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! बेअंत और अपहुँच परमात्मा का सिमरन करते रहा करो। उस (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, (उसकी हस्ती) उसके इस पार-उस पार का छोर नहीं पाया जा सकता। हे भाई! गुरू की कृपा से जिस हृदय में परमात्मा आ बसता है, उस हृदय में बड़ी ऊँची मति प्रकट हो जाती है।1। हे भाई! सिर्फ वह परमात्मा ही सब जीवों में व्यापक है, पर गुरू की कृपा से ही वह प्रकट होता है। वह जगत-का-सहारा प्रभू सब जीवों की पालना करता है, सबको रिजक देता है, सबको रिज़क पहुँचाता है।2। हे भाई! पूरे गुरू ने (खुद) समझ के (जगत को) समझाया है कि परमात्मा ने अपने हुकम में ही सारा जगत पैदा किया है। जो मनुष्य उसके हुकम को (मीठा करके) मानता है, वही आत्मिक आनंद पाता है। उसका हुकम शाहों-पातशाहों के सिर पर भी चल रहा है (कोई उससे आकी नहीं हो सकता)।3। हे भाई! गुरू अभूल है, उसका उपदेश भी बहुत गहरा है। उसके शबद से जगत (संसार-समुंद्र से) पार लांघता है। (गुरू यह बताता है कि) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके (उनकी) संभाल करता है, (सबको) साँसें (प्राण) भी देता है रोज़ी भी देता है।4। कोटि मधे किसहि बुझाए ॥ गुर कै सबदि रते रंगु लाए ॥ हरि सालाहहि सदा सुखदाता हरि बखसे भगति सलाहा हे ॥५॥ सतिगुरु सेवहि से जन साचे ॥ जो मरि जमहि काचनि काचे ॥ अगम अगोचरु वेपरवाहा भगति वछलु अथाहा हे ॥६॥ सतिगुरु पूरा साचु द्रिड़ाए ॥ सचै सबदि सदा गुण गाए ॥ गुणदाता वरतै सभ अंतरि सिरि सिरि लिखदा साहा हे ॥७॥ सदा हदूरि गुरमुखि जापै ॥ सबदे सेवै सो जनु ध्रापै ॥ अनदिनु सेवहि सची बाणी सबदि सचै ओमाहा हे ॥८॥ {पन्ना 1055} पद्अर्थ: कोटि = करोड़। मधे = बीच में। किसहि = किसी विरले को ('किसु' की 'ु' की मात्रा 'हि' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। रंगु लाइ = रंग लगा के, प्यार से। सालाहहि = सलाहते हैं। सालाहा = सिफत सालाह।5। सेवहि = सेवते हैं, शरण पड़ते हैं। साचे = ठहराव भरे जीवन वाले। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं, पैदा होते मरते रहते हैं। काच निकाचे = निरोल कच्चे, बहुत कमजोर आत्मिक जीवन वाले। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। अथाहा = अथाह, बहुत गहरा, बेअंत।6। साचु = सदा स्थिर हरी नाम। द्रिढ़ाऐ = (हृदय में) पक्का करता है। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी से। वरतै = व्यापक (दिखता) है। सिरि सिरि = हरेक (जीव) के सिर पर।7। हदूरि = अंग संग। जापै = प्रतीत होता है। सबदे = शबद से। ध्रापै = (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सेवहि = सेवा भगती करते हैं। सची बाणी = सिफत सालाह की बाणी से। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी से। ओमाहा = खिलाव, आनंद।8। अर्थ: हे भाई! करोड़ों में से किसी विरले को (परमात्मा सही आत्मिक जीवन की) सूझ बख्शता है। हे भाई! जो मनुष्य प्यार से गुरू के शबद में मस्त रहते हैं, और सारे सुखों के दाते हरी की सदा सिफत सालाह करते हैं, परमात्मा उनको भगती और सिफत सालाह की (और) दाति बख्शता है।5। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वे अडोल जीवन वाले हो जाते हैं। पर जो जनम-मरण के चक्करों में पड़े हुए हैं, वे बहुत ही कमजोर आत्मिक जीवन वाले हैं। हे भाई! अपहुँच अगोचर बेपरवाह और बेअंत परमात्मा भगती से प्यार करता है।6। हे भाई! पूरा गुरू जिस मनुष्य के दिल में सदा-स्थिर हरी का नाम पक्का करता है, वह मनुष्य शबद से सदा स्थिर प्रभू के गुण गाता है, उसे इस तरह दिखता है कि गुण-दाता प्रभू सब जीवों में बस रहा है, और हरेक के सिर पर वह समय (साहा) लिखता है (जब जीवात्मा दुल्हन ने परलोक ससुराल चले जाना है)।7। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा अंग-संग बसता दिखता है। जो मनुष्य गुरू के शबद से सेवा-भक्ति करता है वह मनुष्य (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। हे भाई! जो मनुष्य सिफत सालाह वाली बाणी के द्वारा हर वक्त परमात्मा की सेवा-भगती करते हैं, शबद की बरकति से उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।8। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |