श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जीवन मुकति गुर सबदु कमाए ॥ हरि सिउ सद ही रहै समाए ॥ गुर किरपा ते मिलै वडिआई हउमै रोगु न ताहा हे ॥९॥ रस कस खाए पिंडु वधाए ॥ भेख करै गुर सबदु न कमाए ॥ अंतरि रोगु महा दुखु भारी बिसटा माहि समाहा हे ॥१०॥ बेद पड़हि पड़ि बादु वखाणहि ॥ घट महि ब्रहमु तिसु सबदि न पछाणहि ॥ गुरमुखि होवै सु ततु बिलोवै रसना हरि रसु ताहा हे ॥११॥ घरि वथु छोडहि बाहरि धावहि ॥ मनमुख अंधे सादु न पावहि ॥ अन रस राती रसना फीकी बोले हरि रसु मूलि न ताहा हे ॥१२॥ {पन्ना 1058}

पद्अर्थ: मुकति = (माया के मोह से) खलासी। जीवन मुकति = वह मनुष्य जिसको इस जीवन में मुक्ति मिल गई है, गृहस्त में रहता हुआ ही निर्लिप। सबदु कमाऐ = शबद को हृदय में बसाता है, शबद अनुसार जीवन जीता है। सिउ = साथ। सद = सदा। ते = से। ताहा = उसको।9।

रस कस = कसैला आदि सारे रस। कस = कसैला। पिंडु = शरीर। भेख = धार्मिक पहरावा। बिसटा = विष्ठा, विकारों का गंद। माहि = में। समाहा = समाया रहता है।10।

पढ़हि = पढ़ते हें (बहुवचन)। पढ़ि = पढ़ के। बादु = वाद, चर्चा। वखाणहि = बखानते हैं, व्याख्या करते हैं। घट = शरीर, हृदय। सबदि = गुरू के शबद से। न पछाणहि = सांझ नहीं डालते। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। ततु = सार, मक्खन। बिलोवै = मथता है, विचारता है। रसना = जीभ। रसु = स्वाद। ताहा = उसकी।11।

घरि = घर में, शरीर में, हृदय में। वथ = वस्तु, नाम पदार्थ। छोडहि = छोड़ देते हें (बहुवचन)। धावहि = दौड़ते हैं (बहुवचन)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधे = माया के मोह में अंधे। अन रस = और और रसों में। राती = रति हुई, मस्त। रसना = जीभ। मूलि = बिल्कुल ही।12।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद अनुसार जीवन जीता है, वह गृहस्त में रहता हुआ ही निर्लिप है, वह सदा ही परमात्मा की याद में लीन रहता है। गुरू की कृपा से उसको (इस लोक में और परलोक में) आदर मिलता है, उसके अंदर अहंकार का रोग नहीं होता।9।

हे भाई! (दूसरी तरफ देखें त्यागियों का हाल। जो मनुष्य अपनी ओर से 'त्याग' करके खट्टे मीठे कसैले आदि) सारे रसों के खाने खाता रहता है, और अपने शरीर को मोटा किए जाता है, (त्यागियों वाला) धार्मिक पहरावा पहनता है, गुरू के शबद अनुसार जीवन नहीं बिताता, उसके अंदर (चस्कों का) रोग है, ये उसे बहुत बड़ा दुख लगा हुआ है, वह हर वक्त विकारों की गंदगी में लीन रहता है।10।

हे भाई! (पंडित लोग भी) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ते हैं, (इनको) पढ़ के निरी चर्चा का सिलसिला छेड़े रखते हैं, जो परमात्मा हृदय में ही बस रहा है, उससे गुरू के शबद से सांझ नहीं डालते। पर, हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह तत्व को विचारता है, उसकी जीभ में हरी-नाम का स्वाद टिका रहता है।11।

हे भाई! जो मनुष्य हृदय घर में बस रहे नाम पदार्थ को छोड़ देते हैं, और बाहर भटकते हैं, वे मन के मुरीद और माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य हरी-नाम का स्वाद नहीं ले सकते। अन्य स्वादों में मस्त उनकी जीभ फीके बोल ही बोलती रहती है, परमात्मा के नाम का स्वाद उनको बिल्कुल हासिल नहीं होता।12।

मनमुख देही भरमु भतारो ॥ दुरमति मरै नित होइ खुआरो ॥ कामि क्रोधि मनु दूजै लाइआ सुपनै सुखु न ताहा हे ॥१३॥ कंचन देही सबदु भतारो ॥ अनदिनु भोग भोगे हरि सिउ पिआरो ॥ महला अंदरि गैर महलु पाए भाणा बुझि समाहा हे ॥१४॥ आपे देवै देवणहारा ॥ तिसु आगै नही किसै का चारा ॥ आपे बखसे सबदि मिलाए तिस दा सबदु अथाहा हे ॥१५॥ जीउ पिंडु सभु है तिसु केरा ॥ सचा साहिबु ठाकुरु मेरा ॥ नानक गुरबाणी हरि पाइआ हरि जपु जापि समाहा हे ॥१६॥५॥१४॥ {पन्ना 1058}

पद्अर्थ: मनमुख देही = मन के मुरीद मनुष्यों की काया। भरमु = भटकना। भतारो = पति, अगुवाई करने वाला। दुरमति = खोटी मति। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। दूजै = माया के मोह में। सुपनै = सपने में, कभी भी। सुखु = आत्मिक आनंद।13।

कंचन = सोना। कंचन देही = सोने जैसी पवित्र काया। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। भोग भोगे = आत्मिक आनंद लेती है। सिउ = साथ। महला अंदरि = शरीरों में। गैर महलु = बगैर मकान के परमात्मा को। भाणा बुझि = रजा को मीठा मान के।14।

आपे = आप ही। देवणहारा = दे सकने वाला हरी। चारा = जोर। सबदि = शबद में। सबदु = हुकम। अथाहा = बहुत गहरा।15।

तिस दा: संबंधक 'दा' के कारण 'तिसु' की 'ु' मात्रा हटा दी गई है।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। केरा = का। सचा = सदा कायम रहने वाला। ठाकुरु = मालिक। जापि = जप के। समाहा = लीन हो जाता है।16।

अर्थ: हे भाई! माया की भटकना मन के मुरीद मनुष्य के शरीर की अगुवाई करती है, (इस) खोटी मति के कारण मनमुख आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, और सदा ख्वार होता है। मनमुख अपने मन को काम में, क्रोध में, माया के मोह में जोड़े रखता है, (इस वास्ते) उसको कभी भी आत्मिक आनंद नहीं मिलता।13।

हे भाई! गुरू का शबद जिस मनुष्य के सोने जैसे पवित्र शरीर का रहनुमा बना रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के साथ प्यार बनाए रखता है और हर वक्त परमातमा के मिलाप का आनंद पाता है। वह मनुष्य उस बग़ैर-मकान परमात्मा को हरेक शरीर में (बसता) देख लेता है, उसकी रजा को मीठा मान के उसमें लीन रहता है।14।

पर, हे भाई! (ये शबद की दाति) दे सकने वाला परमात्मा आप ही देता है, उसके सामने किसी का जोर नहीं चलता। वह स्वयं ही बख्शिश करता है और गुरू के शबद में जोड़ता है। हे भाई! उस मालिक प्रभू का हुकम बहुत गंभीर है।15।

हे भाई! ये जिंद और ये शरीर सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। हे भाई! मेरा वह मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है। हे नानक! (कोई भाग्यशाली मनुष्य) गुरू की बाणी के द्वारा उस परमात्मा को पा लेता है, उस हरी के नाम का जाप जप के उस में समाया रहता है।16।5।14।

मारू महला ३ ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु आपारु ॥ गुरमुखि कार करे प्रभ भावै गुरमुखि पूरा पाइदा ॥१॥ गुरमुखि मनूआ उलटि परावै ॥ गुरमुखि बाणी नादु वजावै ॥ गुरमुखि सचि रते बैरागी निज घरि वासा पाइदा ॥२॥ गुर की साखी अम्रित भाखी ॥ सचै सबदे सचु सुभाखी ॥ सदा सचि रंगि राता मनु मेरा सचे सचि समाइदा ॥३॥ गुरमुखि मनु निरमलु सत सरि नावै ॥ मैलु न लागै सचि समावै ॥ सचो सचु कमावै सद ही सची भगति द्रिड़ाइदा ॥४॥ {पन्ना 1058}

पद्अर्थ: बीचारु = बाणी की विचार, हरी नाम को मन में बसाना। नाद = जोगियों का सिंज्ञी आदि बजाना। प्रभ भावै = प्रभू को अच्छी लगती है।1।

उलटि = (माया से) मोड़ के। परावै = रोकता है। बाणी = गुरू की बाणी। वजावै = बजाता है। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में। रते = मस्त। बैरागी = निर्लिप। निज घरि = अपने घर में, प्रभू चरणों में, स्वै स्वरूप में।2।

साखी = शिक्षा। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। भाखी = उचारता है। सचै सबदे = सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद से। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। सुभाखी = प्रेम से उचारता है। सचि रंगि = सदा स्थिर प्रेम रंग में। मनु मेरा = 'मेरा मेरा' करने वाला मन, ममता में फसा मन। सचे सचि = सदा स्थिर प्रभू में ही।3।

सत सरि = संतोख सरोवर में। नावै = स्नान करता है। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। सचो सचु कमावै = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन की कमाई करता है। सद = सदा। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्की कर लेता है।4।

अर्थ: (जोगी नाद बजाते हैं, पण्डित वेद पढ़ते हैं, पर) हरी-नाम को मन में बसाना ही गुरमुख (गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य) के लिए नाद (का बजाना और) वेद (का पाठ) है। बेअंत प्रभू का सिमरन ही गुरमुख के लिए ज्ञान (-चर्चा) और समाधि है। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (वह) कार करता है जो प्रभू को अच्छी लगती है (गुरमुख परमात्मा की रजा में चलता है)। (इस तरह) गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य पूरन प्रभू का मिलाप हासिल कर लेता है।1।

हे भाई! गुरू की शरण रहने वाला मनुष्य (अपने) मन को (माया के मोह से) रोक के रखता है। वह गुरबाणी को हृदय में बसाता है (मानो, जोगी की तरह) नाद बजा रहा है। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में रंगे रहते हैं, (इस तरह) माया की ओर से निर्लिप रह के प्रभू चरणों में टिके रहते हैं।2।

हे भाई! जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी उचारता रहता है, सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह वाली बाणी के द्वारा सदा स्थिर हरी-नाम सिमरता रहता है, उसका ममता में फसने वाला मन सदा हरी-नाम के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में ही लीन रहता है।3।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसका मन पवित्र हो जाता है, वह संतोख के सरोवर (हरी-नाम) में स्नान करता है; उसको (विकारों की) मैल नहीं चिपकती, वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में समाया रहता है। वह मनुष्य हर वक्त सदा स्थिर हरी-नाम सिमरन की कमाई करता है, वह मनुष्य सदा साथ निभने वाली भक्ति (अपने हृदय में) पक्के तौर पर टिकाए रखता है।5।

गुरमुखि सचु बैणी गुरमुखि सचु नैणी ॥ गुरमुखि सचु कमावै करणी ॥ सद ही सचु कहै दिनु राती अवरा सचु कहाइदा ॥५॥ गुरमुखि सची ऊतम बाणी ॥ गुरमुखि सचो सचु वखाणी ॥ गुरमुखि सद सेवहि सचो सचा गुरमुखि सबदु सुणाइदा ॥६॥ गुरमुखि होवै सु सोझी पाए ॥ हउमै माइआ भरमु गवाए ॥ गुर की पउड़ी ऊतम ऊची दरि सचै हरि गुण गाइदा ॥७॥ गुरमुखि सचु संजमु करणी सारु ॥ गुरमुखि पाए मोख दुआरु ॥ भाइ भगति सदा रंगि राता आपु गवाइ समाइदा ॥८॥ {पन्ना 1058-1059}

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरी नाम। बैणी = वचनों में। सचु = सदा स्थिर प्रभू। नैणी = आँखों में। करणी = करणीय, करने योग्य काम। सचु कमावै = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन की कमाई करता है। सद = सदा। कहै = उचारता है।5।

सची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। सचो सचु = सदा सिथर हरी का नाम ही नाम। सद = सदा। सेवहि = सिमरते हैं। सबदु = सिफत सालाह की बाणी।6।

सु = वह (एक वचन)। माइआ भरमु = माया वाली भटकना। दरि सचै = सदा स्थिर के दर पर, सदा स्थिर प्रभू की हजूरी में। गुर की पउड़ी = गुरू की बताई हुई सीढ़ी (जिसके माध्यम से प्रभू चरणों में पहुँच सकते हैं)।7।

सचु = सदा स्थिर हरी नाम का सिमरन। सार = श्रेष्ठ। संजमु = (विकारों से बचने के लिए) परहेज। सारु संजमु = बढ़िया संयम। करणी = करने योग्य काम। मोख दुआरु = (विकारों से) मुक्ति, प्राण का दरवाजा। भाइ = प्रेम में। रंगि = रंग में। आपु = स्वै भाव।8।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसके वचनों में प्रभू बसता है, उसकी आँखों में प्रभू बसता है (वह हर वक्त नाम सिमरता है, हर तरफ परमात्मा को ही देखता है), वह सदा स्थिर प्रभू के नाम सिमरन की कमाई करता है, यही उसके लिए करने योग्य काम है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य दिन-रात सदा ही सिमरन करता है, और, औरों को भी सिमरन करने के लिए प्रेरित करता है।5।

हे भाई! सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह वाली उक्तम बाणी ही गुरमुख (सदा उचारता है), वह हर वक्त सदा स्थिर प्रभू का नाम ही उच्चारता है। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले बंदे सदा ही सदा-स्थिर परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है, वह (औरों को भी) बाणी ही सुनाता है।6।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त कर लेता है, वह अपने अंदर से अहंकार और माया वाली भटकना दूर कर लेता है। वह मनुष्य प्रभू-चरणों में सुरति जोड़ के प्रभू के गुण गाता रहता है। यही है गुरू की (बताई हुई) ऊँची और उक्तम सीढ़ी (जिसके द्वारा मनुष्य ऊँचे आत्मिक मण्डल में चढ़ कर प्रभू को जा मिलता है)।7।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है, सदा स्थिर हरी-नाम सिमरता है- यही है उसका करने-योग्य काम, यही है उसके लिए (विकारों से बचने की) बढ़िया जुगति। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (विकारों से) मुक्ति पाने का (यह) दरवाजा पा लेता है। गुरू की शरण में रहने वाला मनुष्य प्रभू के प्रेम में प्रभू की भक्ति में प्रभू के नाम-रंग में सदा रंगा रहता है, वह (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करके प्रभू में समाया रहता है।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh