श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 1059 गुरमुखि होवै मनु खोजि सुणाए ॥ सचै नामि सदा लिव लाए ॥ जो तिसु भावै सोई करसी जो सचे मनि भाइदा ॥९॥ जा तिसु भावै सतिगुरू मिलाए ॥ जा तिसु भावै ता मंनि वसाए ॥ आपणै भाणै सदा रंगि राता भाणै मंनि वसाइदा ॥१०॥ मनहठि करम करे सो छीजै ॥ बहुते भेख करे नही भीजै ॥ बिखिआ राते दुखु कमावहि दुखे दुखि समाइदा ॥११॥ गुरमुखि होवै सु सुखु कमाए ॥ मरण जीवण की सोझी पाए ॥ मरणु जीवणु जो सम करि जाणै सो मेरे प्रभ भाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1059} पद्अर्थ: खोजि = खोज के। सचै नामि = सदा स्थिर हरी नाम में। लिव = लगन। तिसु = उस परमात्मा को। भावै = अच्छा लगता है। करसी = करेगा, करता है। सचे मनि = सदा स्थिर प्रभू के मन में।9। जा = जब, या। मंनि = मन में। आपणै भाणै = अपनी रजा में। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ।10। मन हठि = मन के हठ से। छीजै = छिजता जाता है, (आत्मिक जीवन के पक्ष से) कमजोर होता जाता है। भेख = धार्मिक पहरावे। बिखिआ = माया। दुखे दुखि = निरे दुख में ही।11। सुखु = आत्मिक आनंद। कमाऐ = कमाता है। सम = बराबर।12। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह सदा-स्थिर हरी-नाम में सदा अपनी सुरति जोड़े रखता है। वह मनुष्य (अपने) मन को खोज के (यह निश्चय बनाता है, और औरों को भी) सुनाता है कि जो कुछ उस परमात्मा को अच्छा लगता है, वही कुछ वह करता है, (जगत में वही कुछ वह है) जो उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा के मन में भा जाता है।9। हे भाई! (गुरमुख मनुष्य औरों को भी यही सुनाता है कि) जब परमात्मा की रजा होती है तब वह मनुष्य को गुरू मिलाता है, तब उसके मन में (अपना नाम) बसाता है। जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी रज़ा में रखता है, वह मनुष्य सदा उस प्रेम-रंग में रंगा रहता है। (हे भाई! गुरमुख यह यकीन बनाता है कि) प्रभू अपनी रजा के अनुसार ही (अपना नाम) मनुष्य के मन में बसाता है।10। हे भाई! जो मनुष्य के मन के हठ से (ही निहित किए धार्मिक) कर्म करता है वह (आत्मिक जीवन की ओर से) कमजोर होता जाता है (ऐसा मनुष्य) धार्मिक पहरावे तो बहुत सारे अपनाता है पर (इस तरह उसका मन प्रभू के प्यार में) भीगता नहीं है। हे भाई! माया के मोह में मस्त मनुष्य (जो भी कर्म करते हैं, वे उनमें से) दुख (ही) कमाते हैं। (हे भाई! माया के मोह के कारण मनुष्य) हर वक्त दुख में ही फसा रहता है।11। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह (अपने उद्यमों से) आत्मिक आनंद कमाता है, वह मनुष्य ये समझ लेता है कि आत्मिक मौत क्या है और आत्मिक जीवन क्या है। हे भाई! जो मनुष्य मौत और जीवन को (परमात्मा की रजा में व्याप्त देख के) एक समान ही समझता है (ना जीवन की लालसा, ना मौत से डर), वह मनुष्य मेरे परमात्मा को प्यारा लगता है।12। गुरमुखि मरहि सु हहि परवाणु ॥ आवण जाणा सबदु पछाणु ॥ मरै न जमै ना दुखु पाए मन ही मनहि समाइदा ॥१३॥ से वडभागी जिनी सतिगुरु पाइआ ॥ हउमै विचहु मोहु चुकाइआ ॥ मनु निरमलु फिरि मैलु न लागै दरि सचै सोभा पाइदा ॥१४॥ आपे करे कराए आपे ॥ आपे वेखै थापि उथापे ॥ गुरमुखि सेवा मेरे प्रभ भावै सचु सुणि लेखै पाइदा ॥१५॥ गुरमुखि सचो सचु कमावै ॥ गुरमुखि निरमलु मैलु न लावै ॥ नानक नामि रते वीचारी नामे नामि समाइदा ॥१६॥१॥१५॥ {पन्ना 1059} पद्अर्थ: मरहि = मरते हैं, स्वै भाव मिटाते हैं। सुहहि = शोभते हैं, आत्मिक जीवन सुंदर बना लेते हैं। परवाणु = (प्रभू की हजूरी में) कबूल। आवण जाणा = पैदा होना मरना। सबदु = (परमात्मा का) हुकम। पछाणु = समझ। मन ही = मन में ही ('मनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। मनहि = मन में ही।13। से = वह (बहुवचन)। चुकाइआ = दूर कर लिया। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर।14। थापि = पैदा कर के। उथापे = नाश करता है। प्रभ भावै = प्रभू को अच्छी लगती है। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। सुणि = सुन के। लेखै = लेखे में। लेखै पाइदा = परवान करता है।15। सचो सचु = सच ही सच, सदा ही हरी नाम का सिमरन। नामि = नाम में। वीचारी = विचारवान। नामे नामि = सदा ही हरी नाम में।16। अर्थ: हे भाई! गुरू के सन्मुख हो के जो मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करते हैं, वह सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं वह प्रभू की हजूरी में कबूल होते हैं (वे पैदा होने मरने को परमात्मा का हुकम समझते हैं)। हे भाई! तू भी पैदा होने मरने को प्रभू का हुकम ही समझ। (जो मनुष्य ऐसा यकीन बनाता है) वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह (ये) दुख नहीं पाता, वह (बाहर भटकने की जगह) सदा ही अंतरात्मे टिका रहता है।13। हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, जिन्हें गुरू मिल गया। वे अपने अंदर से अहंकार और माया का मोह दूर कर लेते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है, जिसके मन को दोबारा विकारों की मैल नहीं लगती, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के दर पर आदर पाता है।14। हे भाई! प्रभू स्वयं ही (सब कुछ) करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है। खुद ही (सबकी) संभाल करता है, खुद ही पैदा करके नाश करता है। हे भाई! गुरू के सन्मुख हो के की हुई सेवा-भगती प्रभू को प्यारी लगती है, (जीव से) हरी-नाम का सिमरन सुन के परमात्मा (उसकी) ये मेहनत परवान करता है।15। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा हरी-नाम सिमरन की कमाई करता है। उसका मन पवित्र हो जाता है, उसको विकारों की मैल नहीं लगती। हे नानक! जो मनुष्य हरी-नाम में मस्त रहते हैं, वे आत्मिक जीवन की सूझ वाले हो जाते हैं। (आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य) सदा हरी-नाम में ही लीन रहता है।16।1।15। मारू महला ३ ॥ आपे स्रिसटि हुकमि सभ साजी ॥ आपे थापि उथापि निवाजी ॥ आपे निआउ करे सभु साचा साचे साचि मिलाइदा ॥१॥ काइआ कोटु है आकारा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ बिनु सबदै भसमै की ढेरी खेहू खेह रलाइदा ॥२॥ काइआ कंचन कोटु अपारा ॥ जिसु विचि रविआ सबदु अपारा ॥ गुरमुखि गावै सदा गुण साचे मिलि प्रीतम सुखु पाइदा ॥३॥ काइआ हरि मंदरु हरि आपि सवारे ॥ तिसु विचि हरि जीउ वसै मुरारे ॥ गुर कै सबदि वणजनि वापारी नदरी आपि मिलाइदा ॥४॥ {पन्ना 1059} पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। हुकमि = हुकम से। सभ = सारी। थापि = पैदा करके। उथापि = नाश करता है। निवाजी = सुंदर बनाई है। साचि = सदा स्थिर हरी नाम में।1। कोटु = किला। आकारा = (परमात्मा का) सरगुण स्वरूप। भसम = राख। खेहू खेह = मिट्टी में ही।2। कंचन कोटु = सोने का किला। अपारा = बेअंत प्रभू का। रविआ = मौजूद है। सबदु अपारा = बेअंत प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। गुण साचे = सदा स्थिर प्रभू के गुण। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के।3। हरि मंदरु = हरी का मंदिर, हरी का घर। सवारे = सुंदर बनाता है। मुरारे = (मुर+अरि। मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। कै सबदि = के शबद से। वणजनि = वणज करते हैं, विहाजते हैं। नदरी = मेहर की निगाह से।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने यह स्वयं ही ये सारी सृष्टि अपने हुकम से पैदा की हुई है। परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके (स्वयं ही) नाश करता है (खुद ही जीवों पर) मेहर करता है। प्रभू आप ही यह सारा अपना अटॅल न्याय करता है, स्वयं ही (जीवों को अपने) सदा स्थिर हरी-नाम में जोड़ के रखता है।1। हे भाई! (यह मनुष्य) शरीर (मानो एक) किला है, यह परमात्मा का दिखाई देता स्वरूप है, (पर अगर इसमें) माया का मोह (ही प्रबल हो, और इसमें माया के मोह का ही) पसारा पसरा हुआ है, तो प्रभू की सिफत सालाह के बिना (ये शरीर) राख की ढेरी ही है, (मनुष्य हरी-नाम से वंचित रह कर इस शरीर को) मिट्टी में ही मिला देता है।2। हे भाई! जिस शरीर में बेअंत परमात्मा की सिफत-सालाह की बाणी हर वक्त मौजूद है, वह (मनुष्य) शरीर बेअंत परमात्मा के रहने के लिए (मानो) सोने का किला है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (इस शरीर के माध्यम से) सदा-स्थिर परमात्मा के गुण हमेशा गाता है, वह प्रीतम प्रभू को मिल के आत्मिक आनंद लेता है।3। हे भाई! ये मनुष्य का शरीर परमात्मा का (पवित्र) घर है, परमात्मा इसको खुद ही सुंदर बनाता है, इसमें विचार-दैत्यों को मारने वाला प्रभू स्वयं बसता है। हे भाई! जो जीव वणजारे (इस शरीर में) गुरू के शबद से हरी-नाम का वणज करते हैं, प्रभू मेहर की निगाह से उनको (अपने साथ) मिला लेता है।4। सो सूचा जि करोधु निवारे ॥ सबदे बूझै आपु सवारे ॥ आपे करे कराए करता आपे मंनि वसाइदा ॥५॥ निरमल भगति है निराली ॥ मनु तनु धोवहि सबदि वीचारी ॥ अनदिनु सदा रहै रंगि राता करि किरपा भगति कराइदा ॥६॥ इसु मन मंदर महि मनूआ धावै ॥ सुखु पलरि तिआगि महा दुखु पावै ॥ बिनु सतिगुर भेटे ठउर न पावै आपे खेलु कराइदा ॥७॥ आपि अपर्मपरु आपि वीचारी ॥ आपे मेले करणी सारी ॥ किआ को कार करे वेचारा आपे बखसि मिलाइदा ॥८॥ {पन्ना 1059-1060} पद्अर्थ: सूचा = स्वच्छ, साफ दिल वाला। जि = जो मनुष्य। निवारे = दूर करता है। सबदे = गुरू के शबद से। बूझै = (आत्मिक जीवन को) समझता है। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। आपे = स्वयं ही। मंनि = मन में।5। निरमल = (जीवन को) पवित्र करने वाली। निराली = अनोखी (दाति)। धोवहि = धोते हैं (बहुवचन)। वीचारी = विचारवान, सुंदर विचार के मालिक। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ।6। मन मंदर महि = मन के मंदिर में, शरीर में। घावै = भटकता फिरता है। सुखु = आत्मिक आनंद। पलरि = पराली के बदले। तिआगि = त्याग के। बिनु भेटे = मिले बिना। ठउर = ठिकाना, शांति।7। अपरंपरु = परे से परे परमात्मा, बेअंत प्रभू। वीचारी = आत्मिक जीवन की विचार बख्शने वाला। सारी = श्रेष्ठ। करणी = करने योग्य काम। को = कोई जीव। किआ कार करे = कौन सी कार कर सकता है? बखसि = मेहर करके।8। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (अपने अंदर से) क्रोध दूर कर लेता है, वह पवित्र हृदय वाला बन जाता है। वह मनुष्य गुरू के शबद की बरकति से (आत्मिक जीवन को) समझ लेता है, और, अपने जीवन को सँवार लेता है। (पर, हे भाई! यह उसकी अपनी ही मेहर है) प्रभू स्वयं ही (जीव के अंदर बैठा यह उद्यम) करता है, (जीव से) करतार स्वयं ही (यह काम) करवाता है, स्वयं ही (उसके) मन में (अपना नाम) बसाता है।5। हे भाई! परमात्मा की भक्ति (जीवन को) पवित्र करने वाली (एक) अनोखी (दाति) है। गुरू के शबद में जुड़ के (भगती के अमृत के साथ जो मनुष्य अपना) मन और तन धोते हैं, वे सुंदर विचार के मालिक बन जाते हैं। (इस भक्ति के द्वारा) मनुष्य हर वक्त सदा ही परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा रह सकता है। (पर यह उसकी मेहर ही है) परमात्मा कृपा करके (स्वयं ही जीव से अपनी) भगती करवाता है।6। हे भाई! (मनुष्य के) इस शरीर में (रहने वाला) चंचल मन (हर वक्त) भटकता फिरता है, (विकारों की) पराली (तुच्छ वस्तु) की खातिर आत्मिक आनंद को त्याग के बड़ा दुख पाता है। गुरू को मिले बिना इसे शांति वाली जगह नहीं मिलती; (पर, जीवों के भी क्या वश? उनसे ये) खेल परमात्मा स्वयं ही करवाता है।7। हे भाई! बेअंत परमात्मा स्वयं ही आत्मिक जीवन की विचार बख्शने वाला है, (नाम जपने की) श्रेष्ठ करणी दे के खुद ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है। जीव बेचारा अपने आप कोई (अच्छा बुरा) काम नहीं कर सकता। परमात्मा स्वयं ही बख्शिश करके (अपने चरणों में जीव को) जोड़ता है।8। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |