श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1060 आपे सतिगुरु मेले पूरा ॥ सचै सबदि महाबल सूरा ॥ आपे मेले दे वडिआई सचे सिउ चितु लाइदा ॥९॥ घर ही अंदरि साचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नामु निधानु वसिआ घट अंतरि रसना नामु धिआइदा ॥१०॥ दिसंतरु भवै अंतरु नही भाले ॥ माइआ मोहि बधा जमकाले ॥ जम की फासी कबहू न तूटै दूजै भाइ भरमाइदा ॥११॥ जपु तपु संजमु होरु कोई नाही ॥ जब लगु गुर का सबदु न कमाही ॥ गुर कै सबदि मिलिआ सचु पाइआ सचे सचि समाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1060} पद्अर्थ: सचै सबदि = सिफत सालाह की बाणी से। महा बल = बड़े (आत्मिक) बल वाला। सूरा = सूरमा।, विकारों का मुकाबला करने में समर्थ। दे = देता है। साचे सिउ = सदा स्थिर परमातमा के साथ।9। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला। निधानु = (सब सुखों का) खजाना। रसना = जीभ से।10। दिसंतरु = (देश+अंतरु) और और देश। भवै = भटकता फिरता है। अंतरु = हृदय, अंदर का। मोहि = मोह में। बधा = बँधा हुआ। जमकाले = आत्मिक मौत में। जम = मौत, जमदूत। जम की फासी = जम दूतों का फंदा, जनम मरण का चक्कर। दूजै भाइ = माया के मोह में (प़ड़ कर)।11। जब लगु = जब तक। न कमाही = नहीं कमाते। सबदु न कमाही = शबद अनुसार अपना जीवन नहीं बनाते। सबदि = शबद में। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।12। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) स्वयं ही (मनुष्य को) पूरा गुरू मिलाता है, और, सिफत-सालाह वाले शबद में जोड़ के (विकारों के मुकाबले के लिए) आत्मिक बल वाला सूरमा बना देता है। प्रभू स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है, (उसको लोक-परलोक में) इज्जत देता है। हे भाई! (जिसको अपने साथ मिलाता है, वह मनुष्य) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ (अपना) चिक्त जोड़े रखता है।9। हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा (हरेक मनुष्य के) हृदय में घर में ही बसता है, पर गुरू के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (यह भेद) समझता है। (जो यह भेद समझ लेता है) उसके दिल में (सारे सुखों का) खजाना हरी-नाम टिका रहता है, वह मनुष्य अपनी जीभ से हरी-नाम जपता रहता है।10। हे भाई! (जो मनुष्य त्याग आदि वाला भेष धार के तीर्थ आदिक) और-और जगह भटकता फिरता है, पर अपने हृदय को नहीं खोजता, वह मनुष्य माया के मोह में बँधा रहता है, वह मनुष्य आत्मिक मौत के काबू में आया रहता है। उसका जनम-मरण का चक्र कभी समाप्त नहीं होता, वह मनुष्य और-और के प्यार में फस के भटकता फिरता है।11। हे भाई! जब तक मनुष्य गुरू के शबद के (हृदय में बसाने की) कमाई नहीं करते, कोई जप कोई तप कोई संजम (इस जीवन-यात्रा में) और कोई उद्यम उनकी सहायता नहीं करता। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले हरी-नाम में लीन रहता है।12। काम करोधु सबल संसारा ॥ बहु करम कमावहि सभु दुख का पसारा ॥ सतिगुर सेवहि से सुखु पावहि सचै सबदि मिलाइदा ॥१३॥ पउणु पाणी है बैसंतरु ॥ माइआ मोहु वरतै सभ अंतरि ॥ जिनि कीते जा तिसै पछाणहि माइआ मोहु चुकाइदा ॥१४॥ इकि माइआ मोहि गरबि विआपे ॥ हउमै होइ रहे है आपे ॥ जमकालै की खबरि न पाई अंति गइआ पछुताइदा ॥१५॥ जिनि उपाए सो बिधि जाणै ॥ गुरमुखि देवै सबदु पछाणै ॥ नानक दासु कहै बेनंती सचि नामि चितु लाइदा ॥१६॥२॥१६॥ {पन्ना 1060} पद्अर्थ: सबल = स+बल, बल वाले। संसारा = संसार में। करम = (निहित किए हुए धार्मिक) कर्म। सभु = सारा (उद्यम)। पसारा = खिलारा। सेवहि = शरण पड़ते हैं (बहुवचन)। सुखु = आत्मिक आनंद। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह के शबद में।13। बैसंतरु = आग। पउणु = हवा। वरतै = प्रभाव डाल रहा है। जिनि = जिस परमात्मा ने। जा = जब। चुकाइदा = दूर करता है।14। इकि = ('इक' कर बहुवचन)। मोहि = मोह में। गरबि = अहंकार में। विआपे = फसे हुए। है = हैं। हउमै....है = अहंकार का स्वरूप बने हुए हैं। जम काल = मौत, आत्मिक मौत। अंति = आखिरी वक्त।15। जिनि = जिस (परमातमा) ने। बिधि = (आत्मिक मौत से बचाने का) ढंग। गुरमुखि = गुरू से, गुरू की शरण में डाल के। देवै = ('बिधि') देता है। सबदु पछाणै = (वह मनुष्य) गुरू शबद को पहचानता है। सचि नामि = सदा स्थिर हरी नाम में।16। अर्थ: हे भाई! काम और क्रोध जगत में बड़े बली हैं, (जीव इनके प्रभाव में फसे रहते हैं, पर दुनिया को पतियाने की खातिर तीर्थ-यात्रा आदि धार्मिक निहित हुए) अनेकों कर्म (भी) करते हें। ये सारा दुखों का ही पसारा (बना रहता) है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वे आत्मिक आनंद पाते हैं, (गुरू उनको) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जोड़ता है।13। हे भाई! (वैसे तो इस शरीर के) हवा, पानी, आग (आदि सादे से ही तत्व हैं, पर) सब जीवों अंदर माया का मोह (अपना) जोर बनाए रखता है। जब (कोई भाग्यशाली) उस परमात्मा के साथ सांझ डालते हैं जिस ने (उनको) पैदा किया है, तो (वह परमात्मा उनके अंदर से) माया का मोह दूर कर देता है।14। हे भाई! कई (जीव ऐसे हैं जो हर वक्त) माया के मोह में अहंकार में ग्रसे रहते हैं, अहंकार का पुतला ही बने रहते हैं। (पर जिस भी ऐसे मनुष्य को इस) आत्मिक मौत की समझ नहीं पड़ती, वह अंत में यहाँ से हाथ मलता ही जाता है।15। पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) जिस परमात्मा ने (जीव) पैदा किए हैं वह ही (इस आत्मिक मौत से बचाने का) ढंग जानता है। (वह इस सूझ में जिस जीव को) गुरू की शरण डाल के देता है, वह गुरू के शबद के साथ सांझ डाल लेता है। नानक दास विनती करता है- हे भाई! वह मनुष्य अपना चिक्त सदा कायम रहने वाले हरी-नाम में जोड़े रखता है।16।2।16। मारू महला ३ ॥ आदि जुगादि दइआपति दाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ तुधुनो सेवहि से तुझहि समावहि तू आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि तू आपे मारगि पाइदा ॥२॥ है भी साचा होसी सोई ॥ आपे साजे अवरु न कोई ॥ सभना सार करे सुखदाता आपे रिजकु पहुचाइदा ॥३॥ अगम अगोचरु अलख अपारा ॥ कोइ न जाणै तेरा परवारा ॥ आपणा आपु पछाणहि आपे गुरमती आपि बुझाइदा ॥४॥ {पन्ना 1060} पद्अर्थ: आदि = (जगत के) आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। गुर कै सबदि = गुरू के शबद से। सेवहि = सेवा भगती करते हैं। से = वह (बहुवचन)। तुझहि = तेरे में। आपे = स्वयं ही। मेलि = मिल के।1। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। जीअ = ('जीव' का बहुवचन)। भावै = अच्छा लगता है। मारगि = (सही जीवन के) रास्ते पर।2। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। होसी = कायम रहेगा। साजे = पैदा करता है। अवरु = और। सार = संभाल। पहुचाइदा = पहुँचाता है।3। अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। परवारा = पैदा किए हुए जीव जंतु। आपु = (कर्म कारक, एकवचन)। बुझाइदा = सूझ देता है।4। अर्थ: हे प्रभू! तू (जगत के) शुरू से, जुगों के आरम्भ से दया का मालिक है (सारे सुख पदार्थ) देने वाला है। पूरे गुरू के शबद से तेरे साथ जान-पहचान बन सकती है। जो मनुष्य सेवा-भगती करते हैं, वे तेरे (चरणों) में लीन रहते हैं। तू स्वयं ही (उनको गुरू से) मिला के (अपने साथ) मिलाता है।1। हे प्रभू! तू अपहुँच है, ज्ञान-इन्द्रियों के द्वारा तुझे समझा नहीं जा सकता, तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले तेरी प्राप्ति नहीं हो सकती)। सारे जीव-जंतु तेरे ही आसरे हैं। जैसे तुझे अच्छा लगता है, तू जीवों को कारे लगाता है, तू स्वयं ही (जीवों को) सही जीवन राह पर चलाता है।2। हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा इस वक्त भी मौजूद है, वह सदा कायम रहेगा। वह स्वयं ही (सृष्टि) पैदा करता है, (उसके बिना पैदा करने वाला) और कोई नहीं है। वह सारे सुख देने वाला परमात्मा स्वयं ही सब जीवों की संभाल करता है, वह स्वयं ही सबको रिजक पहुँचाता है।3। हे प्रभू! तू अपहुँच है, तू अगोचर है, तू अलॅख है, तू बेअंत है। कोई भी जान नहीं सकता कि तेरा कितना बड़ा परिवार है। अपने आप को (अपनी बुजुर्गी को) तू स्वयं ही समझता है, गुरू की मति दे के तू स्वयं ही (जीवों को सही जीवन-रास्ता) समझाता है।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |