श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1061 पाताल पुरीआ लोअ आकारा ॥ तिसु विचि वरतै हुकमु करारा ॥ हुकमे साजे हुकमे ढाहे हुकमे मेलि मिलाइदा ॥५॥ हुकमै बूझै सु हुकमु सलाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ जेही मति देहि सो होवै तू आपे सबदि बुझाइदा ॥६॥ अनदिनु आरजा छिजदी जाए ॥ रैणि दिनसु दुइ साखी आए ॥ मनमुखु अंधु न चेतै मूड़ा सिर ऊपरि कालु रूआइदा ॥७॥ मनु तनु सीतलु गुर चरणी लागा ॥ अंतरि भरमु गइआ भउ भागा ॥ सदा अनंदु सचे गुण गावहि सचु बाणी बोलाइदा ॥८॥ {पन्ना 1061} पद्अर्थ: लोअ = (शब्द 'लोकु' का बहुवचन और प्राक्रित रूप) अनेकों मण्डल। आकारा = ये सारा दिखाई देता जगत। तिसु विचि = इस सारे दिखते जगत में (शब्द 'तिसु' एकवचन)। वरतै = काम कर रहा है। करारा = सख़्त, करड़ा। हुकमे = हुकम में ही। मेलि = (गुरू से) मेल के।5 सु = वह (एक वचन)। सलाहे = सराहना करता है, वडिआई करता है। अगम = हे अपहुँच! अगोचर = हे अगोचर! देहि = तू देता है। सबदि = शबद से।6। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। आरजा = उम्र। छिजदी = घटती। रैणि = रात। दुइ = दोनों। साखी = गवाह। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अंधु = (माया के मोह में) अंधा। मूढ़ा = मूर्ख। रूआइदा = रुलाता, सहम डाल रहा, गरजता है।7। सीतलु = शांत। चरणी = चरणों से। भरमु = भटकना। सचे गुण = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुण। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू।8। अर्थ: हे भाई! (अनेकों) पाताल, (अनेकों) पुरियाँ, (अनेकों) मण्डल - ये सारा दिखाई देता जगत (परमात्मा का पैदा किया हुआ है), इस में परमात्मा का कठोर हुकम जगत की कार चला रहा है। (इस सारे जगत को परमात्मा अपने) हुकम में पैदा करता है, हुकम में ही गिराता है। हुकम अनुसार ही (जीवों को गुरू से) मेल के (अपने चरणों में) जोड़ता है।5। हे अपहुँच! हे अगोचर! हे बेपरवाह! जो मनुष्य तेरे हुकम को समझ लेता है, वह उस हुकम की शोभा करता है। हे प्रभू! तू जैसी मति (किसी मनुष्य को) देता है, वह वैसा ही बन जाता है। तू स्वयं ही गुरू शबद में (मनुष्य को जोड़ के उसको अपने हुकम की) सूझ बख्शता है।6। हे भाई! हर रोज हर वक्त मनुष्य की उम्र घटती जाती है, रात और दिन ये दोनों इस बात के गवाह हैं (जो दिन-रात गुजर जाता है, वह वापस उम्र में नहीं आ सकता)। पर मन का मुरीद माया के मोह में अंधा हुआ मूर्ख मनुष्य (इस बात को) याद नहीं करता। (उधर से) मौत (का नगारा) सिर पर गरजता रहता है।7। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के चरणों में लगता है, उसका मन शांत रहता है उसका तन शांत रहता है। उसके अंदर (टिकी हुई) भटकना दूर हो जाती है, उसका हरेक किस्म का डर समाप्त हो जाता है। हे भाई! जो मनुष्य (गुरू की कृपा से) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनको सदा आत्मिक आनंद मिला रहता है। (पर जीव के वश की बात नहीं) ये सिफत-सालाह की बाणी भी सदा कायम रहने वाला परमात्मा (स्वयं ही) उच्चारण के लिए प्रेरित करता है।8। जिनि तू जाता करम बिधाता ॥ पूरै भागि गुर सबदि पछाता ॥ जति पति सचु सचा सचु सोई हउमै मारि मिलाइदा ॥९॥ मनु कठोरु दूजै भाइ लागा ॥ भरमे भूला फिरै अभागा ॥ करमु होवै ता सतिगुरु सेवे सहजे ही सुखु पाइदा ॥१०॥ लख चउरासीह आपि उपाए ॥ मानस जनमि गुर भगति द्रिड़ाए ॥ बिनु भगती बिसटा विचि वासा बिसटा विचि फिरि पाइदा ॥११॥ करमु होवै गुरु भगति द्रिड़ाए ॥ विणु करमा किउ पाइआ जाए ॥ आपे करे कराए करता जिउ भावै तिवै चलाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1061} पद्अर्थ: तू = तुझे। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तू जाता = तेरे साथ सांझ डाल ली। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। सबदि = शबद से। जति पति = जाति पाति। सचु साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभू। मारि = मार के।9। कठोरु = सख़्त, निर्दयी, अभिॅज। दूजै भाइ = माया के प्यार में। भरमै = भटकना में पड़ कर। भूला = गलत राह पर पड़ा हुआ। करमु = मेहर, बख्शिश। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखु = आत्मिक आनंद।10। जनमि = जनम में। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्की करता है।11। करमु = मेहर। विणु करमा = मेहर के बिना।12। अर्थ: हे प्रभू! तू जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला है। जिस (मनुष्य) ने तेरे साथ सांझ डाल ली, सौभाग्य से गुरू-शबद में जुड़ के उसने तुझे (हर जगह बसता) पहचान लिया। हे भाई! जिस मनुष्य के अहंकार को मार के सदा स्थिर प्रभू उसको अपने साथ मिला लेता है, उसकी जाति वह स्वयं बन जाता है, उसकी कुल वह सदा कायम रहने वाला प्रभू आप बन जाता है।9। हे भाई! जो मनुष्य माया के मोह में फसा रहता है, उसका मन कठोर टिका रहता है, वह भाग्यहीन मनुष्य भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़ा रहता है। जब उस पर परमात्मा की मेहर होती है, तब वह गुरू की शरण पड़ता है, और आत्मिक अडोलता में टिका रह के आत्मिक आनंद लेता है।10। हे भाई! चौरासी लाख जूनियों के जीव (परमात्मा ने) खुद पैदा किए हैं, (उसकी मेहर से ही) मानस जनम में गुरू जीव के अंदर परमात्मा की भक्ति पक्की करता है। भगती के बिना जीव का निवास विकारों के गंद में रहता है, और, बार बार विकारों के गंद में ही पाया जाता है।11। हे भाई! जब परमात्मा की मेहर होती है, गुरू (मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की भक्ति पक्की करता है। प्रभू की बख्शिश के बिना प्रभू के साथ मिलाप नहीं हो सकता। (पर जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा खुद ही (सब कुछ) करता है, खुद ही (जीवों से) करवाता है। जैसी उसकी मर्जी होती है, वैसे ही जीवों को चलाता है।12। सिम्रिति सासत अंतु न जाणै ॥ मूरखु अंधा ततु न पछाणै ॥ आपे करे कराए करता आपे भरमि भुलाइदा ॥१३॥ सभु किछु आपे आपि कराए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे थापि उथापे वेखै गुरमुखि आपि बुझाइदा ॥१४॥ सचा साहिबु गहिर ग्मभीरा ॥ सदा सलाही ता मनु धीरा ॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाई गुरमुखि मंनि वसाइदा ॥१५॥ आपि निरालमु होर धंधै लोई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमती मेलि मिलाइदा ॥१६॥३॥१७॥ {पन्ना 1061} पद्अर्थ: न जाणै = नहीं जानता (एक वचन)। अंतु = (प्रभू को मिलने का) भेद। सिम्रिति सासत = स्मृतियां और शास्त्र (के बताए हुए कर्म काण्डों) से। ततु = अस्लियत। भरमि = भटकना में (डाल के)। भुलाइदा = गलत रास्ते पर डालता है।13। आपे आपि = प्रभू आप ही आप। सिरि सिरि = हरेक सिर पर (लिखे लेखों के अनुसार)। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। वेखै = संभाल करता है। गुरमुखि = गुरू से।14। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गहिर = अथाह। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। सालाही = सिफत सालाह करूँ। धीरा = धैर्य वाला। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मंनि = मन में।15। निरालमु = निर्लिप। धंधै = माया के धंधों में (व्यस्त)। लोई = दुनिया। परसादी = कृपा से। घट अंतरि = हृदय में। नानक = हे नानक! मेलि = मेल के।16। अर्थ: हे भाई! स्मृतियों-शास्त्रों (के बताए हुए कर्म-काण्डों) के द्वारा मनुष्य (प्रभू के मिलाप का) भेद नहीं जान सकता। (कर्म-काण्ड में ही फसा) अंधा मूर्ख मनुष्य अस्लियत को नहीं समझ सकता। (पर इसके भी क्या वश?) करतार स्वयं ही सब कुछ करता कराता है, स्वयं ही भटकना में डाल के गलत मार्ग पर डाले रखता है।13। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही स्वयं (जीवों से) सब कुछ करवाता है, हरेक जीव के सिर पर लिखे लेख के अनुसार प्रभू स्वयं ही हरेक को मायावी दौड़-भाग में लगाए रखता है। प्रभू स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके आप ही नाश करता है, स्वयं ही (सब की) संभाल करता है, गुरू की शरण में डाल के स्वयं ही (सही जीवन-मार्ग की) समझ देता है।14। हे भाई! मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है, अथाह है बड़े जिगरे वाला है। जग मैं सदा उस की सिफत सालाह करता हूँ, तो मेरे मन में धीरज बना रहता है। हे भाई1 उस अपहुँच और अगोचर परमात्मा का मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले वह नहीं मिल सकता)। गुरू की शरण डाल कर (अपना नाम मनुष्य के) मन में बसाता है।15। हे भाई! परमात्मा स्वयं निर्लिप है, और सारी दुनिया माया की दौड़-भाग में खचित रहती है। कोई विरला मनुष्य गुरू की कृपा से (उसके साथ) सांझ डालता है। हे नानक! (जिस पर गुरू की कृपा होती है) उस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है। गुरू की मति में जोड़ के (प्रभू मनुष्य को अपने चरणों में) मिलाता है।16।3।17। मारू महला ३ ॥ जुग छतीह कीओ गुबारा ॥ तू आपे जाणहि सिरजणहारा ॥ होर किआ को कहै कि आखि वखाणै तू आपे कीमति पाइदा ॥१॥ ओअंकारि सभ स्रिसटि उपाई ॥ सभु खेलु तमासा तेरी वडिआई ॥ आपे वेक करे सभि साचा आपे भंनि घड़ाइदा ॥२॥ बाजीगरि इक बाजी पाई ॥ पूरे गुर ते नदरी आई ॥ सदा अलिपतु रहै गुर सबदी साचे सिउ चितु लाइदा ॥३॥ बाजहि बाजे धुनि आकारा ॥ आपि वजाए वजावणहारा ॥ घटि घटि पउणु वहै इक रंगी मिलि पवणै सभ वजाइदा ॥४॥ {पन्ना 1061} पद्अर्थ: जुग छतीह = छक्तिस युग, अनेकों युग, बेअंत समय। गुबारा = घोर अंधेरा, ऐसी हालत जो मनुष्य की समझ से परे है। सिरजणहारा = हे सृजनहार! को = कोई जीव। और क्या कहै = कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आखि = कह के। कि वखाणै = क्या बयान करे? कुछ भी बयान नहीं किया जा सकता।1। ओअंकारि = ओअंकार ने, परमात्मा ने। वेक = अलग अलग। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। भंनि = तोड़ के, नाश करके।2। बाजीगरि = बाजीगर ने। बाजी पाई = तमाशा रचा है। ते = से। नदरी आई = दिखाई दी। अलिपतु = निर्लिप। सबदी = शबद से। सिउ = साथ।3। आकारा = सारे (दिखाई दे रहे) शरीर। बाजहि = बज रहे हैं। धुनि = सुर (से)। घटि घटि = हरेक शरीर में। पउणु = हवा, साँस। वहै = चल रहा है। इक रंगी = एक रस रहने वाले परमात्मा की। मिलि = मिल के। पवणै = पवन में, साँसों में।4। अर्थ: हे सृजनहार! (जगत रचना से पहले) बेअंत समय तूने ऐसी हालत बनाए रखी जो जीवों की समझ से परे है। तू खुद ही जानता है (कि वह हालत क्या थी)। (उस गुबार की बाबत) कोई जीव कुछ भी नहीं कह सकता, कोई जीव कह के कुछ भी बयान नहीं कर सकता। तू खुद ही उसकी अस्लियत जानता है।1। हे भाई! परमात्मा ने स्वयं सारी सृष्टि पैदा की। हे प्रभू! (तेरा रचा हुआ ये जगत) सारा तेरा खेल-तमाशा है, तेरी ही वडिआई है। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही सारे जीवों को अलग-अलग किस्म के बनाता है, स्वयं ही नाश करके स्वयं ही पैदा करता है।2। हे भाई! (प्रभू) बाजीगर ने (यह जगत) एक तमाश रचा हुआ है। जिस मनुष्य को पूरे गुरू से यह समझ आ गई, वह मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के (इस जगत-तमाशे में) निर्लिप रहता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के साथ अपना मन जोड़े रखता है।3। हे भाई! ये सारे दिखाई दे रहे शरीर (मीठी सुर) से (मानो) बाजे बज रहे हैं। बजाने की समर्थता वाला प्रभू स्वयं ही यह (शरीर-) बाजे बजा रहा है। हरेक शरीर में उस सदा एक-रंग रहने वाले परमात्मा का बनाया हुआ श्वास चल रहा है, (उस अपने पैदा किए) पवन में मिल के परमात्मा ये सारे बाजे बजा रहा है।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |