श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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करता करे सु निहचउ होवै ॥ गुर कै सबदे हउमै खोवै ॥ गुर परसादी किसै दे वडिआई नामो नामु धिआइदा ॥५॥ गुर सेवे जेवडु होरु लाहा नाही ॥ नामु मंनि वसै नामो सालाही ॥ नामो नामु सदा सुखदाता नामो लाहा पाइदा ॥६॥ बिनु नावै सभ दुखु संसारा ॥ बहु करम कमावहि वधहि विकारा ॥ नामु न सेवहि किउ सुखु पाईऐ बिनु नावै दुखु पाइदा ॥७॥ आपि करे तै आपि कराए ॥ गुर परसादी किसै बुझाए ॥ गुरमुखि होवहि से बंधन तोड़हि मुकती कै घरि पाइदा ॥८॥ {पन्ना 1062}

पद्अर्थ: निहचउ = निष्चित तौर पर, अवश्य। कै सबदे = के शबद से। परसादी = कृपा से। किसै = (जिस) विरले को। दे = देता है। नामो नामु = नाम ही नाम, हर वक्त नाम।5।

जेवडु = जितना, बराबर का। लाहा = लाभ। मंनि = मन में। सालाही = सलाहते हैं।6।

संसार = संसार में। न सेवहि = नहीं सिमरते। किउ पाईअै = कैसे प्राप्त हो सकता है।?।7।

तै = और। किसै = किसी विरले को। बुझाऐ = समझ बख्शता है। से = वह (बहुवचन)। मुकती के घरि = मुक्ति के घर में, उस घर में जहाँ विकारों से मुक्ति हुई रहती है।8।

अर्थ: हे भाई! गुरू की कृपा से (जिस) किसी (विरले मनुष्य) को परमात्मा वडिआई देता है, वह मनुष्य हर वक्त हरी-नाम ही सिमरता है, (उस मनुष्य को यह निश्चय हो जाता है कि) जो कुछ परमात्मा करता है वह अवश्य होता है, वह मनुष्य गुरू के शबद की बरकति से (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेता है।5।

हे भाई! गुरू की शरण पड़ने के बराबर (जगत में) और कोई लाभवंत (कार्य) नहीं है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, उनके) मन में (परमात्मा का) नाम आ बसता है, वे हर वक्त हरी-नाम की सिफत करते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम ही सदा सुख देने वाला है। हरी-नाम ही (असल) लाभ (है जो) मनुष्य कमाता है।6।

हे भाई! हरी-नाम से टूटने पर जगत में हर तरफ दुख ही दुख है। (जो मनुष्य नाम भुला के धार्मिक मिथे हुए अन्य) अनेकों कर्म करते हैं (उनके अंदर बल्कि) विकार बढ़ते हैं। हे भाई! अगर मनुष्य नाम नहीं सिमरते तो आत्मिक आनंद कैसे मिल सकता है? नाम से टूट के मनुष्य दुख ही सहता है।7।

हे भाई! गुरू की कृपा से किसी (विरले) को परमात्मा ये समझ देता है कि परमात्मा स्वयं ही सब कुछ कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहते हैं, वह (अपने अंदर से माया के मोह के) बँधन तोड़ लेते हैं। गुरू उनको उस आत्मिक ठिकाने में रखता है जहाँ उन्हें विकारों से मुक्ति मिली रहती है।8।

गणत गणै सो जलै संसारा ॥ सहसा मूलि न चुकै विकारा ॥ गुरमुखि होवै सु गणत चुकाए सचे सचि समाइदा ॥९॥ जे सचु देइ त पाए कोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सचु नामु सालाहे रंगि राता गुर किरपा ते सुखु पाइदा ॥१०॥ जपु तपु संजमु नामु पिआरा ॥ किलविख काटे काटणहारा ॥ हरि कै नामि तनु मनु सीतलु होआ सहजे सहजि समाइदा ॥११॥ अंतरि लोभु मनि मैलै मलु लाए ॥ मैले करम करे दुखु पाए ॥ कूड़ो कूड़ु करे वापारा कूड़ु बोलि दुखु पाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1062}

पद्अर्थ: गणत = माया के बारे चिंता फिक्र, गिनतियां। गणै = गिनता है। जलै = (तृष्णा की आग में) जलता रहता है। संसारा = जगत में। सहसा = (माया के बारे में) सहम। मूलि = बिल्कुल। चुकै = खत्म होता। विकारा = बेकार, व्यर्थ। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। चुकाऐ = समाप्त कर देता है। सचे सचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभू में।9।

सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। देइ = दे। परसादी = कृपा से। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। ते = से।10।

जपु = (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए) मंत्रों का जाप। तपु = धूणियां तपा के उल्टे ल्टक के ऐसे तरीकों से शरीर को कष्ट देने। संजमु = पाप। काटणहारा = काटने की समर्थता वाला प्रभू। कै नामि = के नाम से। सहजे सहजि = हर वक्त सहज (आत्मिक अडोलता) में।11।

अंतरि = अंदर। मनि मैलै = मन मैला रहने के कारण। कूड़ो कूड़ ु वपारा = हर वक्त नाशवंत पदार्थों के कमाने का धंधा। बोलि = बोल के। कूड़ ु = झूठ।12।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त माया की गिनतियाँ गिनता रहता है, वह जगत में सदा (तृष्णा की आग में) जलता रहता है, उसका यह व्यर्थ सहम कभी भी समाप्त नहीं होता। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह दुनियावी चिंता-फिक्र खत्म किए रहता है, वह हर वक्त सदा कायम रहने वाले परमात्मा की याद में लीन रहता है।9।

पर, हे भाई! अगर सदा कायम रहने वाला परमात्मा (खुद ही ये बेफिकरी) बख्शे, तब ही कोई मनुष्य इसको प्राप्त करता है। गुरू की कृपा से (प्रभू उसके अंदर) प्रकट हो जाता है। वह मनुष्य गुरू की कृपा से प्रेम-रंग में मस्त रह के सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरता है, और आत्मिक आनंद माणता रहता है।10।

हे भाई! परमात्मा का मीठा नाम (जपना ही) जप है तप है संजम है। (जो मनुष्य नाम जपता है उसके सारे) पाप (पाप) काटने की समर्थता रखने वाला परमात्मा काट देता है। परमात्मा के नाम में जुड़ने की बरकति से उसका तन उसका मन शांत रहता है, वह सदा ही आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।11।

हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर (माया का) लालच टिका रहता है (उसका मन हर वक्त मैला रहता है), मैले मन के कारण वह मनुष्य लालच की और मैल (अपने मन को) लगाता रहता है। (ज्यों-ज्यों लालच के अधीन वह) मैले कर्म करता है, वह (आत्मिक) दुख पाता है। वह सदा नाशवंत पदार्थों के कमाने का धंधा ही करता है, और झूठ बोल-बोल के दुख सहता है।12।

निरमल बाणी को मंनि वसाए ॥ गुर परसादी सहसा जाए ॥ गुर कै भाणै चलै दिनु राती नामु चेति सुखु पाइदा ॥१३॥ आपि सिरंदा सचा सोई ॥ आपि उपाइ खपाए सोई ॥ गुरमुखि होवै सु सदा सलाहे मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१४॥ अनेक जतन करे इंद्री वसि न होई ॥ कामि करोधि जलै सभु कोई ॥ सतिगुर सेवे मनु वसि आवै मन मारे मनहि समाइदा ॥१५॥ मेरा तेरा तुधु आपे कीआ ॥ सभि तेरे जंत तेरे सभि जीआ ॥ नानक नामु समालि सदा तू गुरमती मंनि वसाइदा ॥१६॥४॥१८॥ {पन्ना 1062}

पद्अर्थ: निरमल = (जीवन को) पवित्र करने वाली। को = कौन सा मनुष्य। मंनि = मन में। परसादी = कृपा से। सहसा = सहम। कै भाणै = की रजा में, के हुकम में। चेति = याद करके, सिमर के।13।

सिरंदा = पैदा करने वाला। सचा = सदा स्थिर प्रभू। उपाइ = पैदा करके। खपाऐ = नाश करता है। सोई = वह (स्वयं) ही। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सलाहे = सिफत सालाह करता है। मिलि = मिल के।14।

इंद्री = काम वासना। कामि = काम में करोधि = क्रोध में। सभु कोई = हरेक जीव। सतिगुर सेवे = गुरू की शरण पड़ने से। वसि = काबू में। मन मारे = अगर मन को मार ले, यदि मन को वश में कर ले। मनहि = मन ही, मन में ही (क्रिया विशेषण 'ही' के कारण 'मनि' की 'ि' मात्रा हट गई है)।15।

मेरा तेरा = भेद भाव। आपै = स्वयं ही। सभि = सारे। समालि = याद करता रह।16।

अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य (जीवन को) पवित्र करने वाली (गुर-) बाणी (अपने) मन में बसाता है, गुरू की कृपा से (उसका) सहम दूर हो जाता है। वह मनुष्य दिन-रात गुरू के हुकम में चलता है, हरी-नाम को सिमर के वह आत्मिक आनंद लेता है।13।

हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करने वाला है, खुद पैदा करके वह खुद नाश करता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह सदा परमात्मा की सिफत-सालाह करता है, सदा-स्थिर प्रभू के चरणों में मिल के वह आत्मिक आनंद भोगता है।14।

हे भाई! (गुरू की शरण पड़े बिना) और अनेकों यतन भी मनुष्य करे तो भी काम-वासना काबू में नहीं आ सकती। (ध्यान से देखें) हरेक जीव काम में क्रोध में जल रहा है। गुरू की शरण पड़ने से ही मन काबू में आता है। अगर मन (विकारों से) रोक लिया जाए तो मनुष्य की अंतरात्मा टिकी रहती है (विकारों की ओर नहीं भटकता)।15।

हे प्रभू! (जीवों के मन में) मेर-तेर तूने खुद ही पैदा की है। सारे जीव-जंतु तेरे ही पैदा किए हुए हैं। हे नानक! परमात्मा का नाम सदा याद करता रह। हे भाई! गुरू की मति पर चलने से (प्रभू अपना नाम मनुष्य के) मन में बसाता है।16।4।18।

मारू महला ३ ॥ हरि जीउ दाता अगम अथाहा ॥ ओसु तिलु न तमाइ वेपरवाहा ॥ तिस नो अपड़ि न सकै कोई आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥ जो किछु करै सु निहचउ होई ॥ तिसु बिनु दाता अवरु न कोई ॥ जिस नो नाम दानु करे सो पाए गुर सबदी मेलाइदा ॥२॥ चउदह भवण तेरे हटनाले ॥ सतिगुरि दिखाए अंतरि नाले ॥ नावै का वापारी होवै गुर सबदी को पाइदा ॥३॥ सतिगुरि सेविऐ सहज अनंदा ॥ हिरदै आइ वुठा गोविंदा ॥ सहजे भगति करे दिनु राती आपे भगति कराइदा ॥४॥ {पन्ना 1062}

पद्अर्थ: दाता = सब पदार्थ देने वाला। अगम = अपहुँच। अथाहा = बहुत ही गहरा (समुंद्र), बेअंत खजानों वाला। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = तमा, लालच। आपे = आप ही। मेलि = मिला के।1।

तिस नो: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

निहचउ = जरूर। अवरु = कोई और। सबदी = शबद से।2।

जिस नो: 'जिसु' के 'ु' मात्रा हटा दी गई है।

चउदह भवन = चौदह लोक (सात आकाश, सात पाताल), सारा जगत। हटनाले = (हटों की कतारें), बाजार। सतिगुरि = गुरू ने। नाले = साथ ही। को = जो कोई।3।

सतिगुरि सेविअै = अगर सतिगुरू की शरण पड़ जाएं। सहज अनंदा = आत्मिक अडोलता का सुख। हिरदै = हृदय में। वुठा = बसा। सहजे = आत्मिक अडोलता में।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब पदार्थ देने वाला है, अपहुँच है, बहुत ही गहरा (मानो बेअंत खजानों वाला समुंद्र) है। (वह सबको दातें दिए जाता है, पर) उस बेपरवाह को रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। कोई जीव (अपने उद्यम से) उस परमात्मा तक पहुँच नहीं सकता। वह स्वयं ही (जीव को गुरू से) मिला के अपने साथ मिलाता है।1।

हे भाई! (वह परमात्मा) जो कुछ करता है, वह जरूर होता है। उसके बिना कोई और कुछ देने योग्य नहीं है। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा नाम की दाति देता है, वह हरी-नाम प्राप्त कर लेता है। (उसको) गुरू के शबद में जोड़ के (अपने साथ) मिला लेता है।2।

हे प्रभू! ये चौदह लोक तेरे बाजार हैं (जहाँ तेरे पैदा किए हुए बेअंत जीव तेरी बताई हुई कार कर रहे हैं। यह सारा जगत तेरा ही स्वरूप है)। जिस मनुष्य को गुरू ने तेरा यह सर्व-व्यापक स्वरूप उसके अंदर बसता ही दिखा दिया है, वह मनुष्य तेरे नाम का वणजारा बन जाता है। (ये दाति) जो कोई प्राप्त करता है, गुरू के शबद से ही (प्राप्त करता है)।3।

हे भाई! यदि गुरू की शरण पड़ जाएं तो आत्मिक अडोलता का आनंद मिल जाता है। (गुरू के सन्मुख होने वाले मनुष्य के) हृदय में गोविंद-प्रभू आ बसता है। वह मनुष्य दिन-रात आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा की भगती करता है। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपनी) भगती करवाता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh