श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1063 सतिगुर ते विछुड़े तिनी दुखु पाइआ ॥ अनदिनु मारीअहि दुखु सबाइआ ॥ मथे काले महलु न पावहि दुख ही विचि दुखु पाइदा ॥५॥ सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥ सहज भाइ सची लिव लागी ॥ सचो सचु कमावहि सद ही सचै मेलि मिलाइदा ॥६॥ जिस नो सचा देइ सु पाए ॥ अंतरि साचु भरमु चुकाए ॥ सचु सचै का आपे दाता जिसु देवै सो सचु पाइदा ॥७॥ आपे करता सभना का सोई ॥ जिस नो आपि बुझाए बूझै कोई ॥ आपे बखसे दे वडिआई आपे मेलि मिलाइदा ॥८॥ {पन्ना 1063} पद्अर्थ: ते = से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं, दुख की चोटें सहते हैं। सबाइआ = हरेक किस्म का। काले = (विकारों की कालिख से) काले। महलु = (परमात्मा की हजूरी में) ठिकाना।5। सेवहि = शरण पड़ते हैं। से = वह (बहुवचन)। सहज भाइ = आत्मिक अडोलता के अनुसार, बिना किसी खास यतन के। लिव = लगन। सचो सचु = हर वक्त सदा स्थिर हरी नाम का सिमरन। सद = सदा। मेलि = (गुरू अपने साथ) मिला के। सचै = सदा स्थिर प्रभू में।6। देइ = देता है। सु = वह (एक वचन)। साचु = सदा कायम रहने वाला हरी नाम। भरमु = भटकना। चुकाऐ = दूर कर देता है। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सचै का = सदा स्थिर हरी नाम का। सचु = सदा स्थिर हरी नाम।7। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। करता सोई = वह करतार स्वयं ही। बुझाऐ = समझ देता है। दे = देता है।8। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू (के चरणों) से विछुड़े हुए हैं, उन्होंने (अपने लिए) दुख ही सहेड़ा हुआ है। वे हर वक्त दुख की चोटें खाते हैं, उनको हरेक किस्म का दुख होता रहता है। (विकारों की कालिख से उनके) मुँह काले हुए रहते हैं (उनके मन मलीन रहते हैं) उनको प्रभू चरणों में ठिकाना नहीं मिलता। हे भाई! (गुरू चरणों से विछुड़ा हुआ मनुष्य सदा दुख में ही ग्रसा रहता है) दुख में ही ग्रसा रहता है, सदा दुख ही सहता रहता है।5। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हो जाते हैं। किसी खास यतन के बिना ही सदा-स्थिर प्रभू के नाम में उनकी लगन लगी रहती है। वह मनुष्य सदा ही सदा-स्थिर हरी नाम सिमरन की कमाई करते हैं। (गुरू उन्हें अपने साथ) मिला के सदा-स्थिर हरी-नाम में मिला देता है।6। पर, हे भाई! वह मनुष्य (ही सदा-स्थिर हरी नाम की दाति) प्राप्त करता है जिस को सदा कायम रहने वाला परमात्मा देता है। उस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर हरी नाम टिका रहता है, (नाम की बरकति से वह मनुष्य अपने अंदर से) भटकना दूर कर लेता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू अपने सदा-स्थिर नाम की दाति देने वाला स्वयं ही है। जिस को देता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरी नाम हासिल कर लेता है।7। हे भाई! वह करतार स्वयं ही सब जीवों का (मालिक) है। ये बात कोई वह मनुष्य ही समझता है जिसको परमात्मा स्वयं समझाता है। हे भाई! करतार स्वयं ही बख्शिश करता है, स्वयं ही वडिआई देता है, स्वयं ही (गुरू के साथ) मिला के (अपने चरणों में) मिलाता है।8। हउमै करदिआ जनमु गवाइआ ॥ आगै मोहु न चूकै माइआ ॥ अगै जमकालु लेखा लेवै जिउ तिल घाणी पीड़ाइदा ॥९॥ पूरै भागि गुर सेवा होई ॥ नदरि करे ता सेवे कोई ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै महलि सचै सुखु पाइदा ॥१०॥ तिन सुखु पाइआ जो तुधु भाए ॥ पूरै भागि गुर सेवा लाए ॥ तेरै हथि है सभ वडिआई जिसु देवहि सो पाइदा ॥११॥ अंदरि परगासु गुरू ते पाए ॥ नामु पदारथु मंनि वसाए ॥ गिआन रतनु सदा घटि चानणु अगिआन अंधेरु गवाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1063} पद्अर्थ: हउमै = हउ हउ, मैं मैं, अहंकार। आगै = जीवन यात्रा में। न चूकै = नहीं समाप्त होता। आगै = परलोक में। जमकालु = धर्म राज।9। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। गुर सेवा = गुरू की बताई हुई कार। नदरि = मेहर की निगाह। जमकालु = मौत, मौत का सहम, आत्मिक मौत। महलि सचै = सदा स्थिर प्रभू के चरणों में।10। तुधु = तुझे। भाऐ = अच्छे लगे। हथि = हाथ में। देवहि = ते देता है।11। अंदरि = हृदय में। परगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवन की सूझ। ते = से। मंनि = मन में। घटि = हृदय में। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी।12। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य 'मैं बड़ा हूँ', मैं बड़ा बन जाऊँ' - इन सोचों में अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा देता है, उसके जीवन सफर में (उसके अंदर से) माया का मोह (कभी) नहीं समाप्त होता। (जब) परलोक में धर्म-राज (उनसे मानस जीवन में किये हुए कामों का) हिसाब माँगता है (तब वह ऐसे) पीड़ा जाता है जैसे (कोल्हू में डाली हुई) घाणी के तिल पीड़े जाते हैं।9। हे भाई! गुरू की बताई (नाम-सिमरन की) कार बड़ी किस्मत से (ही किसी से) हो सकती है। जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है तब ही कोई मनुष्य कर सकता है। आत्मिक मौत उस मनुष्य के नजदीक नहीं आती। वह मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के चरणों में जुड़ के आत्मिक आनंद पाता है।10। हे प्रभू! जो मनुष्य तुझे अच्छे लगे उन्होंने ही आत्मिक आनंद पाया। उनकी बड़ी किस्मत कि तूने उनको गुरू की बताई हुई कार में लगाए रखा। सारी (लोक-परलोक की) इज्जत तेरे हाथ में है, जिसको तू (यह इज्जत) देता है वह प्राप्त करता है।11। (हे प्रभू! जिस पर तू मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य अपने) हृदय में गुरू से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त करता है, वह (तेरा) श्रेष्ठ नाम अपने मन में बसाता है। उसके हृदय में आत्मिक जीवन की सूझ का श्रेष्ठ प्रकाश हो जाता है (जिसकी बरकति से वह अपने अंदर से) जीवन के प्रति बे-समझी का अंधेरा दूर कर लेता है।12। अगिआनी अंधे दूजै लागे ॥ बिनु पाणी डुबि मूए अभागे ॥ चलदिआ घरु दरु नदरि न आवै जम दरि बाधा दुखु पाइदा ॥१३॥ बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई ॥ गिआनी धिआनी पूछहु कोई ॥ सतिगुरु सेवे तिसु मिलै वडिआई दरि सचै सोभा पाइदा ॥१४॥ सतिगुर नो सेवे तिसु आपि मिलाए ॥ ममता काटि सचि लिव लाए ॥ सदा सचु वणजहि वापारी नामो लाहा पाइदा ॥१५॥ आपे करे कराए करता ॥ सबदि मरै सोई जनु मुकता ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि नामो नामु धिआइदा ॥१६॥५॥१९॥ {पन्ना 1062} पद्अर्थ: दूजै = (परमात्मा को भुला के) और और (मोह) में। अभागे = बद्किस्मत। चलदिआ = जिेंदगी के सफर में पड़ने से। घरु = असल घर में से कभी विछोड़ा ना हो। दरु = (असल) दरवाजा। जम दरि = जमराज के दर पर। बधा = बँधा हुआ।13। मुकति = (माया के मोह से) मुक्ति। गिआनी = धार्मिक पुस्तकें पढ़ के निरी कथा वार्ता चर्चा करने वाले। धिआनी = समाधियाँ लगाने वाले। सेवे = शरण पड़ते हैं। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर।14। ममता = मायावी पदार्थों के कब्जे की लालसा। काटि = काट के। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में। लिव = लगन। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। नामो = नाम ही। लाहा = लाभ।15। आपे = (प्रभू) आप ही, स्वयं ही। करता = करतार। सबदि = गुरू के शबद में जुड़ के। मरै = स्वै भाव छोड़े। मुकता = (माया के मोह से) स्वतंत्र। अंतरि = अंदर। नामो नामु = हर वक्त नाम।16 अर्थ: हे भाई! माया के मोह में अंधे हो चुके और आत्मिक जीवन से बेसमझ मनुष्य (परमात्मा को छोड़ के) और ही धंधों में लगे रहते हैं, वह बद्किस्मत मनुष्य पानी के बिना (विकारों के पानी में) डूब के आत्मिक मौत मर जाते हैं। जिंदगी के सफ़र में पड़ने से अपना असली घर-बार नहीं दिखता। (ऐसा मनुष्य) जमराज के दर पर बँधा हुआ दुख पाता है।13। हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना (माया के मोह से) मुक्ति नहीं होती, बेशक कोई मनुष्य उनको पूछ के देखे जो धार्मिक पुस्तकें पढ़ के निरी कथा-वार्ता चर्चा करने वाले हैं, या जो, समाधियाँ लगाए रखते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है, वह मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर आदर प्राप्त करता है।14। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की बताई हुई कार करता है, उसको परमात्मा स्वयं ही (अपने चरणों में) मिला लेता है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) मायावी पदार्थों के कब्जे़ की लालसा छोड़ के सदा-स्थिर हरी-नाम में सुरति जोड़े रखता है। हे भाई! जो वणजारे जीव सदा-स्थिर हरी-नाम का वणज सदा करते हैं, उनको हरी-नाम का लाभ मिलता है।15। पर, हे भाई! करतार स्वयं ही (सब कुछ) करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है। (उसकी मेहर से) जो मनुष्य गुरू के शबद से (अपने अंदर से) स्वै भाव त्यागता है, वही (विकारों से) स्वतंत्र हो जाता है। हे नानक! उस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम टिका रहता है, वह हर वक्त परमात्मा का नाम ही सिमरता रहता है।16।5।19। मारू महला ३ ॥ जो तुधु करणा सो करि पाइआ ॥ भाणे विचि को विरला आइआ ॥ भाणा मंने सो सुखु पाए भाणे विचि सुखु पाइदा ॥१॥ गुरमुखि तेरा भाणा भावै ॥ सहजे ही सुखु सचु कमावै ॥ भाणे नो लोचै बहुतेरी आपणा भाणा आपि मनाइदा ॥२॥ तेरा भाणा मंने सु मिलै तुधु आए ॥ जिसु भाणा भावै सो तुझहि समाए ॥ भाणे विचि वडी वडिआई भाणा किसहि कराइदा ॥३॥ जा तिसु भावै ता गुरू मिलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥ तुधु आपणै भाणै सभ स्रिसटि उपाई जिस नो भाणा देहि तिसु भाइदा ॥४॥ {पन्ना 1063-1064} पद्अर्थ: जो = जो कुछ, जो काम। सो = वह काम। करि पाइआ = अवश्य कर देता है। को विरला = कोई विरला मनुष्य। भाणे विचि आइआ = भाणे को मीठा माना, तेरे किए को सिर माथे माना। भाणा मंने = तेरे किए को ठीक मानता है।1। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले को। भावै = अच्छा लगता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखु = आत्मिक आनंद। सचु कमावै = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन की कमाई करता है। भाणे नो लोचै = प्रभू के किए को मीठा मानने की तमन्ना करती है।2। आऐ = आ के। तुधु = तुझे। जिसु = जिस मनुष्य को। तुझहि = तेरे में। वडिआई = इज्जत। किसहि = किसी विरले से।3। तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। जा = या, जब। ता = तो, तब। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। तुधु = तू। देहि = तू देता है। तिसु भाइदा = उसको (तेरा भाणा) मीठा लगता है।4। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे प्रभू! जो काम तू करना (चाहता) है, वह काम तू अवश्य कर देता है, (ये पता होते हुए भी) कोई विरला मनुष्य तेरी रजा को मीठा करके मानता है। जो मनुष्य तेरी रजा को सिर माथे करके मानता है, वह आत्मिक सुख हासिल करता है, तेरी रजा में रह के आत्मिक आनंद पाता है।1। हे प्रभू! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को तेरी रजा अच्छी लगती है। वह आत्मिक अडोलता में रह के सुख पाता है, वह सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कमाई करता रहता है। हे भाई! प्रभू के किए को मीठा मानने की तमन्ना बहुत सारी लुकाई करती है, पर अपनी रज़ा वह स्वयं ही (किसी विरले से) मनवाता है।2। हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी रजा को मानता है, वह तुझे आ मिलता है। जिस मनुष्य को तेरा भाणा भा जाता है, वह तेरे (चरणों) में लीन हो जाता है। हे भाई! परमात्मा की रजा में रहने से बड़ी इज्जत मिलती है। पर किसी विरले को रजा में चलाता है।3। हे भाई! जब उस परमात्मा को अच्छा लगता है, तब वह (किसी भाग्यशाली को) गुरू से मिलाता है। और, गुरू के सन्मुख होने से मनुष्य परमात्मा का श्रेष्ठ नाम प्राप्त कर लेता है। हे भाई! ये सारी सृष्टि तूने अपनी रजा में पैदा की है। जिस मनुष्य को तू अपनी रज़ा मानने की ताकत देता है, उसको तेरी रजा प्यारी लगती है।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |