श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1064 मनमुखु अंधु करे चतुराई ॥ भाणा न मंने बहुतु दुखु पाई ॥ भरमे भूला आवै जाए घरु महलु न कबहू पाइदा ॥५॥ सतिगुरु मेले दे वडिआई ॥ सतिगुर की सेवा धुरि फुरमाई ॥ सतिगुर सेवे ता नामु पाए नामे ही सुखु पाइदा ॥६॥ सभ नावहु उपजै नावहु छीजै ॥ गुर किरपा ते मनु तनु भीजै ॥ रसना नामु धिआए रसि भीजै रस ही ते रसु पाइदा ॥७॥ महलै अंदरि महलु को पाए ॥ गुर कै सबदि सचि चितु लाए ॥ जिस नो सचु देइ सोई सचु पाए सचे सचि मिलाइदा ॥८॥ {पन्ना 1064} पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंधु = अंधा, माया के मोह में अंधा। भरमे = भटकना के कारण। भूला = कुमार्ग पर पड़ा हुआ। आवै जाऐ = पैदा होता मरता है। घरु महलु = परमात्मा के चरणों में जगह।5। मेले = मिलाता है। दे = देता है। धुरि = धुर से, परमात्मा की अपनी हजूरी में से। नामे ही = नाम से ही।6। सभ = हरेक (गुण)। नावहु = नाम (जपने) से। छीजै = (हरेक अवगुण) नाश होता है। ते = से। भीजै = भीग जाता है। रसना = जीभ से। रसि = रस में, स्वाद में, आत्मिक आनंद में। रस ही ते = (उस) आत्मिक आनंद से ही।7। महलै अंदरि = शरीर में। को = जो कोई मनुष्य। महलु = परमात्मा का ठिकाना। कै सबदि = के शबद से। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। सचे सचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभू में।8। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला और माया के मोह में अंधा हो चुका मनुष्य (अपनी ओर से बहुत सारी) समझदारियाँ करता है, (पर जब तक वह परमात्मा के) किए को मीठा करके नहीं मानता (तब तक वह) बहुत दुख पाता है। मन का मुरीद मनुष्य भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ा हुआ जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है, वह कभी भी (इस तरह) परमात्मा के चरणों में जगह नहीं पा सकता।5। हे भाई! (जिस मनुष्य को परमात्मा) गुरू मिलवाता है, (उसको लोक-परलोक की) इज्जत बख्शता है। गुरू की बताई हुई कार करने का हुकम धुर से ही प्रभू ने दिया हुआ है। जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है तब वह परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है, और, नाम में जुड़ के ही आत्मिक आनंद पाता है।6। हे भाई! नाम (सिमरन) से हरेक (गुण मनुष्य के अंदर) पैदा हो जाता है, नाम (सिमरन) से (हरेक अवगुण मनुष्य के अंदर से) नाश हो जाता है। हे भाई! गुरू की कृपा से (ही मनुष्य का) मन (मनुष्य का) तन (नाम-रस में) भीगता है। (जब मनुष्य अपनी) जीभ से हरी-नाम सिमरता है, वह आनंद में भीग जाता है, उस आनंद से ही मनुष्य और आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।7। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद द्वारा (अपने) शरीर में परमात्मा का ठिकाना पा लेता है, वह सदा-स्थिर हरी-नाम में चिक्त जोड़े रखता है। पर, हे भाई! जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभू अपना सदा-स्थिर हरी-नाम देता है, वही यह हरी-नाम हासिल करता है, और वह हर वक्त इस सदा-स्थिर हरी-नाम में एक-मेक हुआ रहता है।8। नामु विसारि मनि तनि दुखु पाइआ ॥ माइआ मोहु सभु रोगु कमाइआ ॥ बिनु नावै मनु तनु है कुसटी नरके वासा पाइदा ॥९॥ नामि रते तिन निरमल देहा ॥ निरमल हंसा सदा सुखु नेहा ॥ नामु सलाहि सदा सुखु पाइआ निज घरि वासा पाइदा ॥१०॥ सभु को वणजु करे वापारा ॥ विणु नावै सभु तोटा संसारा ॥ नागो आइआ नागो जासी विणु नावै दुखु पाइदा ॥११॥ जिस नो नामु देइ सो पाए ॥ गुर कै सबदि हरि मंनि वसाए ॥ गुर किरपा ते नामु वसिआ घट अंतरि नामो नामु धिआइदा ॥१२॥ {पन्ना 1064} पद्अर्थ: विसारि = बिसार के, भुला के। मनि = मन मे। तनि = तन में। सभु रोगु = निरा रोग। कमाइआ = कमाया। कुसटी = कोढ़ी, रोगी। नरके = नर्क में ही।9। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। देहा = शरीर। निरमल = पवित्र, विकारों से बचा हुआ। हंसा = आत्मा। नेहा = प्यार, परमात्मा से प्यार। सलाहि = सलाह के। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभू चरणों में।10। सभु को = हरेक जीव। सभु तोटा = निरा घाटा। संसार = जगत में। नागो = नंगा ही। जासी = जाएगा।11। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। देइ = देता है। मंनि = मन में। ते = से। घट अंतरि = हृदय में। नामो नामु = हर वक्त नाम।12। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के मन में हर वक्त) माया का मोह (प्रबल है; उस ने) निरा (आत्मिक) रोग कमाया है। परमात्मा का नाम भुला के उसने अपने मन में तन में दुख ही पाया है। प्रभू के नाम के बिना (मनुष्य का) मन भी रोगी, तन (भाव, ज्ञानेन्द्रियां) भी रोगी (विकारी), वह नर्क में ही पड़ा रहता है।9। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, उनके शरीर विकारों से बचे रहते हैं, उनकी आत्मा पवित्र रहती है, वे (प्रभू चरणों से) प्यार (जोड़ के) सदा आत्मिक आनंद भोगते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम की सिफत-सालाह करके मनुष्य सदा सुख पाता है, प्रभू-चरणों में उसका निवास बना रहता है।10। हे भाई! (जगत में आ के) हरेक जीव वाणज्य-व्यापार (आदि कोई ना कोई कार-व्यवहार) करता है, पर प्रभू के नाम से वंचित रह के जगत में निरा घाटा (ही घाटा) है, (क्योंकि जगत में जीव) नंगा ही आता है (और यहाँ से) नंगा ही चला जाएगा (दुनिया वाली कमाई यहीं रह जाएगी)। प्रभू के नाम से टूटा हुआ दुख ही सहता है।11। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा अपना नाम देता है वह (ही यह दाति) हासिल करता है। वह मनुष्य गुरू के शबद से हरी-नाम को अपने मन में बसा लेता है। गुरू की किरपा से उसके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है वह हर वक्त हरी-नाम ही सिमरता रहता है।12। नावै नो लोचै जेती सभ आई ॥ नाउ तिना मिलै धुरि पुरबि कमाई ॥ जिनी नाउ पाइआ से वडभागी गुर कै सबदि मिलाइदा ॥१३॥ काइआ कोटु अति अपारा ॥ तिसु विचि बहि प्रभु करे वीचारा ॥ सचा निआउ सचो वापारा निहचलु वासा पाइदा ॥१४॥ अंतर घर बंके थानु सुहाइआ ॥ गुरमुखि विरलै किनै थानु पाइआ ॥ इतु साथि निबहै सालाहे सचे हरि सचा मंनि वसाइदा ॥१५॥ मेरै करतै इक बणत बणाई ॥ इसु देही विचि सभ वथु पाई ॥ नानक नामु वणजहि रंगि राते गुरमुखि को नामु पाइदा ॥१६॥६॥२०॥ {पन्ना 1064} पद्अर्थ: लोचै = प्राप्त करने की तांघ करती है। नावै नो = परमात्मा के नाम को। जेती = जितनी भी। सभ आई = सारी पैदा हुई दुनिया। धुरि = धुर से। पुरबि = पहले जनम में। सो = वह (बहुवचन)। कै सबदि = के शबद से।13। काइआ = शरीर। कोटु = किला। अति अपारा = बहुत बेअंत (प्रभू) का। तिसु विचि = इस (काया किले) में। बहि = बैठ के। सदा = सदा कायम रहने वाला। निहचलु = कभी ना हिलने वाला, अटल।14। अंतर घर = अंदरूनी घर (मन, बुद्धि, ज्ञानंन्द्रियां आदिक) (बहुवचन)। बंके = बांके, सुंदर। थानु = स्थान, हृदय स्थल। सुहाइआ = सुहाया, सुंदर लगा। इतु = इस में (शब्द 'इसु' का अधिकरण कारक एक वचन)। साथि = साथ में (अंदरूनी सुंदर घरों के स्थान में, मन बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियों आदि के साथ में)। निबहै = निभती है, पूरी उतरती है। सालाहे सचे = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाही करता रहे। मंनि = मन में।15। मेरै करतै = मेरे करितार ने। देही = शरीर। सभ वथु = सारी वस्तु, आत्मिक जीवन की सारी पूँजी। वणजहि = वणज करते हैं, विहाजते हैं। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। गुरमुखि को = कोई मनुष्य जो गुरू की शरण पड़ता है।16। अर्थ: हे भाई! जितनी भी लुकाई (जगत में) पैदा होती है (वह सारी) परमात्मा का नाम प्राप्त करने की तमन्ना रखती है, पर परमात्मा का नाम उनको ही मिलता है जिन्होंने प्रभू की रजा के अनुसार पिछले जनम में (नाम जपने की) कमाई की हुई होती है। हे भाई! जिनको परमात्मा का नाम मिल जाता है, वे बड़े भाग्यों वाले बन जाते हैं। (ऐसे भाग्यशालियों को परमात्मा) गुरू के शबद से (अपने साथ) मिला लेता है।13। हे भाई! (मनुष्य का यह) शरीर उस बहुत बेअंत परमात्मा (के रहने) के लिए किला है। इस किले में बैठ के परमात्मा (कई किस्मों के) विचार करता रहता है। उस परमात्मा का न्याय सदा कायम रहने वाला है। जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन का व्यापार करता है, वह (इस किले में) भटकना से रहित निवास प्राप्त किए रहता है।14। हे भाई! (नाम-सिमरन की बरकति से शरीर के मन बुद्धि आदि) अंदर के घर सुंदर बने रहते हैं, हृदय-स्थल भी खूबसूरत बना रहता है। किसी उस विरले मनुष्य को ये स्थान प्राप्त होता है जो गुरू के सन्मुख रहता है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह करता रहता है और सदा-स्थिर हरी-नाम को अपने मन में बसाए रखता है, उस मनुष्य की प्रभू के साथ प्रीति इस (मन बुद्धि आदिक वाले) साथ में पूरी तरह से खरी उतरती है।15। हे भाई! मेरे करतार ने यह एक (अजीब) बिउंत बना दी है कि उसने मनुष्य के शरीर में (ही उसके आत्मिक जीवन की) सारी राशि-पूँजी डाल रखी है। हे नानक! जो मनुष्य (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम का वाणज्य करते रहते हैं, वे उसके प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। हे भाई! कोई वह मनुष्य ही परमात्मा का नाम प्राप्त करता है जो गुरू के सन्मुख रहता है।16।6।20। मारू महला ३ ॥ काइआ कंचनु सबदु वीचारा ॥ तिथै हरि वसै जिस दा अंतु न पारावारा ॥ अनदिनु हरि सेविहु सची बाणी हरि जीउ सबदि मिलाइदा ॥१॥ हरि चेतहि तिन बलिहारै जाउ ॥ गुर कै सबदि तिन मेलि मिलाउ ॥ तिन की धूरि लाई मुखि मसतकि सतसंगति बहि गुण गाइदा ॥२॥ हरि के गुण गावा जे हरि प्रभ भावा ॥ अंतरि हरि नामु सबदि सुहावा ॥ गुरबाणी चहु कुंडी सुणीऐ साचै नामि समाइदा ॥३॥ सो जनु साचा जि अंतरु भाले ॥ गुर कै सबदि हरि नदरि निहाले ॥ गिआन अंजनु पाए गुर सबदी नदरी नदरि मिलाइदा ॥४॥ {पन्ना 1064-1065} पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कंचनु = सोना, सोने जैसी पवित्र। तिथै = उस (शरीर) में। जिस दा = जिस परमात्मा का (संबंधक 'दा' के कारण 'जिसु' की 'ु' हटा दी गई है)। पारावारा = पार+अवार, इस पार उस पार का किनारा। अनदिनु = हर रोज। सेविहु = सेवा भगती करते रहा करो। सची बाणी = सदा स्थिर हरी की सिफत सालाह की बाणी के द्वारा। सबदि = शबद से।1। चेतहि = (जो मनुष्य) सिमरते हैं (बहुवचन)। जाउ = मैं जाता हूँ। तिन मेलि = उनकी संगति मे। मिलाउ = मैं मिलता हूँ। लाई = मैं लगाता हूँ। मुखि = मुँह पर। मसतकि = माथे पर। बहि = बैठ के।2। गावा = मैं गाऊँ। भावा = मैं अच्छा लगॅूँ। अंतरि = अंदर। सबदि = गुरू के शबद से। सुहावा = मैं सुंदर बन जाऊँ। चहु कुंडी = चौहों कूटों में, सारे संसार में। सुणदै = सुना जाता है, प्रसिद्ध हो जाता है। साचै = सदा स्थिर परमात्मा में। नामि = नाम से।3। साचा = सदा स्थिर जीवन वाला, अडोल जीवन वाला। जि = जो। अंतरु = अंदरूनी, हृदय (शब्द 'अंतरि' और 'अंतरु' में अंतर ध्यान रखने योग्य है)। भाले = खोजता है, पड़तालता है। कै सबदि = के शबद में (जुड़ने से)। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाले = देखता है। अंजनु = सूरमा। नदरी = मेहर की निगाह का मालिक।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद को अपने हृदय में बसाता है, (शबद की बरकति से विकारों से बच सकने से उसका) शरीर सोने जैसा शुद्ध हो जाता है। जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस परमात्मा की हस्ती का इस पार उस पार के छोर का अंत नहीं पाया जा सकता, वह परमात्मा उस (मनुष्य के) हृदय में आ बसता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू की सिफतसालाह की बाणी के द्वारा परमात्मा की सेवा-भगती करते रहा करो। परमात्मा गुरू के शबद में जोड़ के अपने साथ मिला लेता है।1। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करते हैं, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ। गुरू के शबद की बरकति से मैं उनकी संगति में मिलता हूँ। हे भाई! जो मनुष्य साध-संगति में बैठ के परमात्मा के गुण गाते हैं, मैं उन (के चरणों) की धूल अपने मुँह पर अपने माथे पर लगाता हूँ।2। हे भाई! मैं परमात्मा के गुण तब ही गा सकता हूँ यदि मैं उसे अच्छा लगूँ (अगर मेरे पर उसकी मेहर हो)। हे भाई! यदि मेरे दिल में परमात्मा का नाम बस जाए, तो गुरू के शबद की बरकति से मेरा जीवन सुंदर बन जाता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की बाणी में जुड़ता है, वह सारे संसार में प्रकट हो जाता है। नाम में लीन रहने से मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में समाया रहता है।3। हे भाई! जो मनुष्य अपने हृदय को खोजता रहता है, वह मनुष्य (विकारों से) अडोल जीवन वाला बन जाता है। गुरू के शबद में जुड़ने से परमात्मा मेहर की निगाह से देखता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद से आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा प्रयोग करता है, मेहर का मालिक परमात्मा उसको अपनी मेहर से (अपने चरणों में) मिला लेता है।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |