श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1065 वडै भागि इहु सरीरु पाइआ ॥ माणस जनमि सबदि चितु लाइआ ॥ बिनु सबदै सभु अंध अंधेरा गुरमुखि किसहि बुझाइदा ॥५॥ इकि कितु आए जनमु गवाए ॥ मनमुख लागे दूजै भाए ॥ एह वेला फिरि हाथि न आवै पगि खिसिऐ पछुताइदा ॥६॥ गुर कै सबदि पवित्रु सरीरा ॥ तिसु विचि वसै सचु गुणी गहीरा ॥ सचो सचु वेखै सभ थाई सचु सुणि मंनि वसाइदा ॥७॥ हउमै गणत गुर सबदि निवारे ॥ हरि जीउ हिरदै रखहु उर धारे ॥ गुर कै सबदि सदा सालाहे मिलि साचे सुखु पाइदा ॥८॥ {पन्ना 1065} पद्अर्थ: वडै भागि = बड़ी किस्मत से। जनमि = जनम में। सबदि = गुरू के शबद में। अंध अंधेरा = घुप अंधेरा, वह अंधेरा जिसमें कुछ भी दिखाई नहीं देता। किसहि = किसी (विरले) को। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।5। इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) कई। कितु = किस काम का? कितु आऐ = किस काम आए? व्यर्थ ही जगत में आए। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दूजै भाऐ = माया के प्यार में। हाथि = हाथ में। हाथि न आवै = नहीं मिलता। पगि खिसिअै = पैर फिसलने से, मौत आने पर।6। कै सबदि = के शबद से। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। गुणी = सारे गुणों का मालिक। गहीरा = बड़े जिगरे वाला। सचो सचु = सदा स्थिर परमात्मा को ही। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। सुणि = सुन के। मंनि = मन में।7। हउमै गणत = अहंकार की चितवनियां, बड़ा बनने की सोचें। निवारे = दूर कर (सकता) है। उर = हृदय। धारे = टिका के। सालाहे = सिफत सालाह करता है। मिलि = मिल के। साचे = सदा स्थिर परमात्मा में।8। अर्थ: हे भाई! ये मनुष्य-शरीर बड़ी किस्मत से मिलता है, (पर उसी को ही मिला जानो, जिस ने) मनुष्य जनम में (आ के) गुरू के शबद में अपना मन जोड़ा। किसी विरले को ही गुरू के द्वारा परमात्मा ये समझ बख्शता है कि गुरू के शबद के बिना (जीवन-यात्रा में मनुष्य के लिए) हर जगह घोर अंधकार है।5। हे भाई! कई मनुष्य मानस-जन्म गवा के जगत में व्यर्थ ही आए (समझो) क्योंकि अपने मन के पीछे चलने वाले वह लोग माया के प्यार में ही लगे रहे। हे भाई! मानस-जनम वाला यह समय फिर नहीं मिलता (इसको विकारों में गवा के) मौत आने पर मनुष्य पछताता है।6। हे भाई! गुरू के शबद में जुड़ के (जिस मनुष्य का) शरीर (विकारों से) पवित्र रहता है, उस मनुष्य के इस शरीर में वह परमात्मा आ बसता है जो सदा कायम रहने वाला है जो सारे गुणों का मालिक है और जो बड़े जिगरे वाला है वह मनुष्य (फिर) हर जगह सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को ही देखता है, सदा स्थिर हरी-नाम को सुन के अपने मन में बसाए रखता है।7। हे भाई! अहंकार की गिनतियाँ (मनुष्य) गुरू के शबद द्वारा ही दूर कर सकता है। (इसलिए, हे भाई! गुरू के शबद से) परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखो। जो मनुष्य गुरू के शबद से सदा परमात्मा की सिफतसालाह करता रहता है, वह सदा स्थिर प्रभू में जुड़ के आत्मिक आनंद पाता है।8। सो चेते जिसु आपि चेताए ॥ गुर कै सबदि वसै मनि आए ॥ आपे वेखै आपे बूझै आपै आपु समाइदा ॥९॥ जिनि मन विचि वथु पाई सोई जाणै ॥ गुर कै सबदे आपु पछाणै ॥ आपु पछाणै सोई जनु निरमलु बाणी सबदु सुणाइदा ॥१०॥ एह काइआ पवितु है सरीरु ॥ गुर सबदी चेतै गुणी गहीरु ॥ अनदिनु गुण गावै रंगि राता गुण कहि गुणी समाइदा ॥११॥ एहु सरीरु सभ मूलु है माइआ ॥ दूजै भाइ भरमि भुलाइआ ॥ हरि न चेतै सदा दुखु पाए बिनु हरि चेते दुखु पाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1065} पद्अर्थ: चेते = सिमरता है। चेताऐ = सिमरने के लिए प्रेरित करता है। सबदि = शबद से। मनि = मन में। आऐ = आ के। आपे = स्वयं ही। बूझै = समझता है (एकवचन)। आपै = अपने आप में। आपु = अपने आप को। समाइदा = लीन करता है।9। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। वथु = नाम पदार्थ। पाई = ढूंढ ली। सोई = वही मनुष्य। जाणै = कद्र समझता है। कै सबदे = के शबद से। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। पछाणै = पड़तालता है। निरमलु = पवित्र जीवन वाला।10। काइआ = शरीर। चेतै = सिमरता है। गुणी = गुणों के मालिक को। गहीरु = गहरे जिगरे वाला। अनदिनु = हर रोज। गावै = गाता है (एक वचन)। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। कहि = कह के, उचार के।11। मूलु = आदि, कारण। दूजै भाइ = और ही प्यार में। भरमि = भटकना में। भुलाइआ = कुमार्ग पर पड़ा हुआ।12। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम वह मनुष्य (ही) सिमरता है जिसको परमात्मा स्वयं सिमरन के लिए प्रेरित करता है। गुरू के शबद के द्वारा परमात्मा उसके मन में बसता है। (हरेक में व्यापक परमात्मा) स्वयं ही (उस मनुष्य के हरेक काम को) देखता है, स्वयं ही (उसके दिल की) समझता है, और (खुद ही उस मनुष्य में बसता हुआ) अपने आप को अपने आप में लीन करता है।9। हे भाई! (परमात्मा की कृपा से) जिस (मनुष्य) ने परमात्मा का नाम-पदार्थ (अपने) मन में पा लिया, वह ही (उसकी कद्र) समझता है। गुरू के शबद से (वह मनुष्य) अपने जीवन को पड़तालता रहता है। (जो मनुष्य) अपने जीवन को पड़तालता है वही मनुष्य जीवन वाला हो जाता है, (वह फिर औरों को भी) सिफत-सालाह की बाणी गुरू का शबद सुनाता है।10। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के गुणों के मालिक गहरे जिगरे वाले परमात्मा को सिमरता है, उसका यह शरीर (विकारों से बच के) पवित्र हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंग के हर वक्त परमात्मा के गुण गाता है। परमात्मा के गुण उचार के वह गुणों के मालिक प्रभू में लीन हो जाता है।11। पर, हे भाई! जो मनुष्य (परमात्मा को छोड़ के) और ही प्यार में फसता है, भटकना में पड़ कर कुमार्ग पर पड़ा रहता है, उसका ये शरीर सिर्फ माया के मोह का कारण बन जाता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं सिमरता, वह सदा दुख पाता है, (ये बात पक्की है कि) प्रभू का नाम सिमरे बिना मनुष्य दुख पाता है।12। जि सतिगुरु सेवे सो परवाणु ॥ काइआ हंसु निरमलु दरि सचै जाणु ॥ हरि सेवे हरि मंनि वसाए सोहै हरि गुण गाइदा ॥१३॥ बिनु भागा गुरु सेविआ न जाइ ॥ मनमुख भूले मुए बिललाइ ॥ जिन कउ नदरि होवै गुर केरी हरि जीउ आपि मिलाइदा ॥१४॥ काइआ कोटु पके हटनाले ॥ गुरमुखि लेवै वसतु समाले ॥ हरि का नामु धिआइ दिनु राती ऊतम पदवी पाइदा ॥१५॥ आपे सचा है सुखदाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ नानक नामु सलाहे साचा पूरै भागि को पाइदा ॥१६॥७॥२१॥ {पन्ना 1065} पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। सतिगुरु सेवे = गुरू की शरण पड़ता है। परवाणु = कबूल। काइआ = शरीर। हंसु = आत्मा। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। जाणु = जान पहचान। सेवे = सेवा भगती करता है। मंनि = मन में। सोहै = सुंदर लगता है, सुंदर जीवन वाला हो जाता है।13। भागा = भाग्य। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भूले = कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। मुऐ = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। बिललाइ = बिललाय, विलक के, दुखी हो हो के। केरी = की। नदरि = मेहर की निगाह।14। कोटु = किला। पके = पक्के, (विकारों के मुकाबले में) अडोल रहने वाले। हटनाले = हटों की कतारें, बाजार (ज्ञानेन्द्रियां)। लेवै समालै = संभाल लेता है। वसतु = नाम पदार्थ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। पदवी = दर्जा।15। आपे = आप ही। सचा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। गुर कै सबदि = गुरू के शबद से। पछाता = पहचाना जा सकता है, सांझ डाली जा सकती है। सलाहे = सिफत सालाह करता है। को = कोई (विरला)।16। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह (लोक-परलोक में) आदर-योग्य हो जाता है। उसका शरीर (विकारों से) पवित्र रहता है, उसकी आत्मा पवित्र रहती है। सदा स्थिर परमात्मा के दर पर वह जाना-पहचाना हो जाता है (आदर प्राप्त करता है)। वह मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करता है, परमात्मा को मन में बसाए रखता है, परमात्मा के गुण गाता सुंदर जीवन वाला बन जाता है।13। पर, हे भाई! किस्मत के बिना गुरू की शरण नहीं पड़ा जा सकता। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य कुमार्ग पर पड़े रहते हैं, बड़े दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं। हे भाई! जिन मनुष्यों पर गुरू की मेहर की निगाह होती है, उनको परमात्मा अपने (चरणों) में जोड़ लेता है।14। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के (अपने अंदर) नाम-पदार्थ संभाल लेता है (विकारों के मुकाबले पर उसका) शरीर (एक ऐसा) किला (बन जाता) है (जिसके) बाजार (ज्ञान-इन्द्रियाँ विकारों के मुकाबले में) अडोल (हो जाती) हैं। वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा का नाम सिमर के उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।15। हे नानक! (कह-हे भाई!) सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही (सारे) सुख देने वाला है। पूरे गुरू के शबद में जुड़ के उसके साथ सांझ डाली जा सकती है। पूरी किस्मत से मनुष्य ये दाति प्राप्त करता है कि सदा-स्थिर हरी-नाम की सिफत सालाह करता रहता है।16।7।21। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |