श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला ३ ॥ निरंकारि आकारु उपाइआ ॥ माइआ मोहु हुकमि बणाइआ ॥ आपे खेल करे सभि करता सुणि साचा मंनि वसाइदा ॥१॥ माइआ माई त्रै गुण परसूति जमाइआ ॥ चारे बेद ब्रहमे नो फुरमाइआ ॥ वर्हे माह वार थिती करि इसु जग महि सोझी पाइदा ॥२॥ गुर सेवा ते करणी सार ॥ राम नामु राखहु उरि धार ॥ गुरबाणी वरती जग अंतरि इसु बाणी ते हरि नामु पाइदा ॥३॥ वेदु पड़ै अनदिनु वाद समाले ॥ नामु न चेतै बधा जमकाले ॥ दूजै भाइ सदा दुखु पाए त्रै गुण भरमि भुलाइदा ॥४॥ {पन्ना 1066}

पद्अर्थ: निरंकारि = निरंकार ने, आकार रहित परमात्मा ने। आकारु = ये दिखाई देता जगत। उपाइआ = पैदा किया। हुकमि = (अपने) हुकम अनुसार। आपे = (निरंकार) स्वयं ही। खेल = (बहुवचन)। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। मंनि = मन मे।1।

माई = माँ। माइआ माई = माया माँ (द्वारा)। परसूति = (प्रसुति = offspring, progeny, issue) बच्चे। त्रै गुण परसूति = त्रै गुणी जीव। जमाइआ = पैदा किए। थिती = ('थिति' का बहुवचन) तिथिएं। करि = कर के, बना के। सोझी = (समय आदि की) सूझ।2।

ते = से। करणी = करने योग्य काम। सार = श्रेष्ठ। सार करणी = श्रेष्ठ करने योग्य काम। उरि = हृदय में। उरिधार = दिल में टिका के। जग अंतरि = जगत में। वरती = (जिसके हृदय में) आ बसी। इसु बाणी ते = इस बाणी से।3।

पढ़ै = पढ़ता है (एक वचन)। अनदिनु = हर रोज। वाद = (बहुवचन) झगड़े, बहसें। समाले = संभालता है, करता है। चेतै = सिमरता। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) अन्य प्यार में। त्रै गुण भरमि = माया के तीन गुणों की भटकना में पड़ कर। भुलाइदा = कुमार्ग पड़ा रहता है।4।

अर्थ: जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम (गुरू से) सुन के (अपने मन में बसाता है (उसको ये निश्चय हो जाता है कि) आकार-रहित परमात्मा ने (अपने आप से पहले) ये दिखाई देता जगत पैदा किया, माया का मोह भी उसने अपने हुकम में ही बना दिया। करतार स्वयं ही यह सारे खेल कर रहा है।1।

(हे भाई! हरी-नाम को अपने मन में बसाने वाला मनुष्य यह निश्चय रखता है कि) (जगत की) माँ माया से (जगत के पिता परमात्मा ने सारे) त्रैगुणी जीव पैदा किए (ब्रहमा, शिव आदि भी उसी ने पैदा किए), ब्रहमा को उसने चार वेद (रचने के लिए) हुकम किया। वर्ष, महीने, वार, तिथिएं (आदि) बना के इस जगत में (समय आदि की) सूझ भी वह परमात्मा ही पैदा करने वाला है।2।

हे भाई! (परमात्मा की मेहर से जिसको गुरू मिल गया) गुरू की शरण पड़ने से उसको ये श्रेष्ठ करने-योग्य कर्म मिल गया कि परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखो। सो, हे भाई! इस जगत में (जिस मनुष्य के हृदय में) गुरू की बाणी आ बसती है, वह इस बाणी की बरकति से परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है।3।

(पर, हे भाई!) जो मनुष्य गुरू की शरण से वंचित रह के वेद (आदि ही) पढ़ता है, और, हर वक्त चर्चा आदि ही करता है, परमात्मा का नाम नहीं सिमरता वह आत्मिक मौत के बँधनों में बंधा रहता है। अन्य ही प्यार में फस के वह सदा दुख पाता है। माया के तीन गुणों की भटकना में पड़ के वह जीवन के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।4।

गुरमुखि एकसु सिउ लिव लाए ॥ त्रिबिधि मनसा मनहि समाए ॥ साचै सबदि सदा है मुकता माइआ मोहु चुकाइदा ॥५॥ जो धुरि राते से हुणि राते ॥ गुर परसादी सहजे माते ॥ सतिगुरु सेवि सदा प्रभु पाइआ आपै आपु मिलाइदा ॥६॥ माइआ मोहि भरमि न पाए ॥ दूजै भाइ लगा दुखु पाए ॥ सूहा रंगु दिन थोड़े होवै इसु जादे बिलम न लाइदा ॥७॥ एहु मनु भै भाइ रंगाए ॥ इतु रंगि साचे माहि समाए ॥ पूरै भागि को इहु रंगु पाए गुरमती रंगु चड़ाइदा ॥८॥ {पन्ना 1066}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। ऐकसु सिउ = सिर्फ एक से। लिव = लगन, प्रीति। त्रिबिधि = तीन किस्म की, माया के तीन (रजा, तमो, सतो) गुणों वाली। मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। मनहि = मन ही ('मनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) मन में ही। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद से। मुकता = (माया के मोह से) स्वतंत्र।5।

धुरि = (पहले की कमाई के मुताबिक) धुर दरगाह से। राते = (नाम रंग में) रंगे हुए। से = वह (बहुवचन)। हुणि = इस जनम में। परसादी = कृपा से। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। आपै = आपे में। आपु = अपने आप को।6।

मोहि = मोह में। भरमि = भटकना में। दूजै भाइ = और और प्यार में। लगा = लगा हुआ। सूहा रंगु = (कुसंभे जैसा) शोख रंग। जादे = दूर होते हुए। बिलम = देर, विलम्ब।7।

भै = भय, अदब में। भाइ = प्यार में। इतु = इस में। इतु रंगि = इस रंग में। को = कोई (विरला)।8।

अर्थ: हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सिर्फ परमात्मा के साथ प्यार डालता है, (इस तरह वह) माया के तीन गुणों के कारण पैदा होने वाले फुरनों को अपने मन में ही खत्म कर देता है। सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद की बरकति से वह मनुष्य (विकारों से) सदा बचा रहता है, (वह अपने अंदर से) माया का मोह दूर कर लेता है।5।

पर, हे भाई! इस मानस जन्म में वह मनुष्य ही नाम-रंग में रंगे रहते हैं जो (पूर्व जनम की की कमाई के अनुसार) धुर दरगाह से रंगे हुए होते हैं। वे गुरू की कृपा से आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर मनुष्य सदा प्रभू का मिलाप प्राप्त करे रखता है, वह अपने आप को (प्रभू के) आपे में मिला लेता है।6।

हे भाई! माया के मोह में, भटकना में फसा हुआ मनुष्य परमात्मा को नहीं मिल सकता। और और प्यार में लगा हुआ मनुष्य दुख (ही) सहता है। (कुसंभ के रंग की तरह माया का) शोख़-रंग थोड़े दिन ही रहता है, इसके फीका पड़ने में वक्त नहीं लगता।7।

हे भाई! जो मनुष्य (अपने) इस मन को परमात्मा के डर-अदब में प्यार में रहता है, वह इस रंग में रंग के सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहता है। पर कोई विरला मनुष्य बड़ी किस्मत से ये प्रेम-रंग हासिल करता है। वह गुरू की मति पर चल कर यह रंग (अपने मन को) चढ़ाता है।8।

मनमुखु बहुतु करे अभिमानु ॥ दरगह कब ही न पावै मानु ॥ दूजै लागे जनमु गवाइआ बिनु बूझे दुखु पाइदा ॥९॥ मेरै प्रभि अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर परसादी हरि मिलै मिलाइआ ॥ सचा प्रभु सचा वापारा नामु अमोलकु पाइदा ॥१०॥ इसु काइआ की कीमति किनै न पाई ॥ मेरै ठाकुरि इह बणत बणाई ॥ गुरमुखि होवै सु काइआ सोधै आपहि आपु मिलाइदा ॥११॥ काइआ विचि तोटा काइआ विचि लाहा ॥ गुरमुखि खोजे वेपरवाहा ॥ गुरमुखि वणजि सदा सुखु पाए सहजे सहजि मिलाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1066}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मानु = आदर। लागे = लग के।9।

प्रभि = प्रभू ने। अंदरि = (हरेक जीव के) अंदर। आपु = अपना आप। सचा = सदा कायम रहने वाला।10।

कीमति = कद्र। किनै न = किसी ने नहीं। ठाकुरि = ठाकुर ने। बणत = मर्यादा, विउंत, बिधि। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सोधै = सुधारता है, विकारों से बचाए रखता है। आपहि = अपने आप में ही। आपु = अपने आप को।11।

तोटा = घाटा। लाहा = लाभ। खोजे = (शरीर में) तलाश करता है। वणजि = (नाम का) वाणज्य कर के। सहजि = अपनी आत्मिक अडोलता में।12।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य बड़ा अहंकार करता है, पर वह परमात्मा की हजूरी में कभी भी आदर नहीं पाता। और-और (मोह) में लग के वह अपना मानस जन्म गवा लेता है, सही जीवन की समझ के बिना वह सदा दुख पाता है।9।

हे भाई! मेरे प्रभू ने अपने आप को (हरेक जीव के) अंदर गुप्त रखा हुआ है, (फिर भी) गुरू की कृपा से ही मिलाए मिलता है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह यह समझ लेता है कि) परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, उसका नाम जपना ही सही वाणज्य व्यापार है। (गुरू की कृपा से वह) कीमती हरी-नाम प्राप्त करि लेता है।10।

हे भाई! (अपनी बुद्धि के आसरे) किसी व्यक्ति ने इस (मनुष्य-) शरीर की कद्र नहीं समझी। मेरे मालिक प्रभू ने यही मर्यादा बना रखी है कि जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है वह (अपने) शरीर को विकारों से बचाए रखता है, और स्वै भाव को अपने में ही लीन कर देता है।11।

हे भाई! (हरी-नाम से टूटने से) शरीर के अंदर (आत्मिक जीवन का) घाटा पड़ता जाता है (नाम में जुड़ने से) शरीर के अंदर (आत्मिक जीवन का) लाभ प्राप्त होता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य बेपरवाह प्रभू को (अपने शरीर में) तलाशता है। नाम-व्यापार करके वह सदा सुख पाता है और हर वक्त अपने आप को आत्मिक अडोलता में टिकाए रखता है।12।

सचा महलु सचे भंडारा ॥ आपे देवै देवणहारा ॥ गुरमुखि सालाहे सुखदाते मनि मेले कीमति पाइदा ॥१३॥ काइआ विचि वसतु कीमति नही पाई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥ जिस दा हटु सोई वथु जाणै गुरमुखि देइ न पछोताइदा ॥१४॥ हरि जीउ सभ महि रहिआ समाई ॥ गुर परसादी पाइआ जाई ॥ आपे मेलि मिलाए आपे सबदे सहजि समाइदा ॥१५॥ आपे सचा सबदि मिलाए ॥ सबदे विचहु भरमु चुकाए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई नामे ही सुखु पाइदा ॥१६॥८॥२२॥ {पन्ना 1066}

पद्अर्थ: महलु = परमात्मा का ठिकाना। सचे = सदा कायम रहने वाले। भंडारा = खजाने। देवणहारा = देने की समर्थता वाला। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मनि = मन में। मेले = मेल के, टिका के। कीमति = कद्र।13।

काइआ = शरीर। वसतु = नाम पदार्थ। गुरमुखि = गुरू से। आपे = (प्रभू) स्वयं ही। दे = देता है। वथु = वस्तु, नाम पदार्थ। देइ = देता है।14।

जिस दा: संबंधक 'दा' के कारण 'जिसु' की 'ु' मात्रा हटा दी गई है।

रहिआ समाई = समा रहा, व्यापक है। परसादी = किरपा से। मेलि = मिला के (गुरू के साथ)। सबदे = गुरू के शबद से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाइदा = लीन रखता है।15।

सबदि = शबद में। सबदे = शबद से। विचहु = मनुष्य के हृदय में से। भरमु = भटकना। चुकाऐ = दूर करता है। नामि = नाम में (जुड़ने से)। नामे ही = नाम से ही।16।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का ठिकाना सदा कायम रहने वाला है,उसके खजाने (भी) सदा कायम रहने वाले हैं। सब कुछ देने की समर्थता वाला परमात्मा स्वयं ही (जीवों को यह खजाने) देता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सारे सुख देने वाला परमात्मा की सिफतसालाह करता है, उसको अपने मन में संभाल के रखता है, उस (के नाम) की कद्र समझता है।13।

हे भाई! मनुष्य के शरीर में ही नाम-पदार्थ है, पर मनुष्य इस की कद्र नहीं समझता। गुरू के सन्मुख करके (परमात्मा) स्वयं ही (अपने नाम की कद्र करने की) वडिआई महानता बख्शता है। हे भाई! इस परमात्मा का (बनाया हुआ यह मनुष्य-शरीर-) हाट है, वह (इसमें रखे हुए नाम-) पदार्थ (की कद्र) को जानता है। (वह प्रभू ये दाति) गुरू के माध्यम से देता है, (दे के) पछताता नहीं।14।

हे भाई! परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, (पर फिर भी वह) गुरू की कृपा से उसे मिलता है। वह स्वयं ही (गुरू के साथ) मिला के (अपने साथ) मिलाता है। गुरू के शबद से (प्रभू जीव को) आत्मिक अडोलता में टिकाए रखता है।15।

हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू स्वयं ही (मनुष्य को गुरू के) शबद में जोड़ता है, शबद से ही (उसके) अंदर से भटकना दूर करता है। हे नानक! हरी-नाम में जुड़े हुओं को लोक-परलोक में इज्जत मिलती है, नाम से ही (मनुष्य) आत्मिक आनंद पाता है।16।8।22।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh