श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1068 मारू महला ३ ॥ नदरी भगता लैहु मिलाए ॥ भगत सलाहनि सदा लिव लाए ॥ तउ सरणाई उबरहि करते आपे मेलि मिलाइआ ॥१॥ पूरै सबदि भगति सुहाई ॥ अंतरि सुखु तेरै मनि भाई ॥ मनु तनु सची भगती राता सचे सिउ चितु लाइआ ॥२॥ हउमै विचि सद जलै सरीरा ॥ करमु होवै भेटे गुरु पूरा ॥ अंतरि अगिआनु सबदि बुझाए सतिगुर ते सुखु पाइआ ॥३॥ मनमुखु अंधा अंधु कमाए ॥ बहु संकट जोनी भरमाए ॥ जम का जेवड़ा कदे न काटै अंते बहु दुखु पाइआ ॥४॥ {पन्ना 1068} पद्अर्थ: नदरी = मेहर की निगाह से। लैहु मिलाऐ = तू (अपने साथ) मिला लेता है। सलाहनि = सिफत सालाह करते हैं। लिव लाऐ = सुरति जोड़ के । तउ = तेरी। उबरहि = (विकारों से) बचते हैं। करते = हे करतार!।1। सबदि = शबद से। सुहाई = सुंदर बनी। तेरै मनि = तेरे मन में। भाई = (वह भगती) भा गई। रता = रंगा गया। सिउ = साथ।2। सद = सदा। जलै = जलता है (एकवचन)। करमु = मेहर, बख्शिश। भेटे = मिलता है। अंतरि = अंदर (बसता)। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से कोरापन। बुझाऐ = मिटा देता है। ते = से।3। मनमुख = अपने मन की ओर मुँह कर रखने वाला मनुष्य, मन का मुरीद। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। अंधु = अंधों वाला काम। संकट = कष्ट। भरमाऐ = भटकता है। जेवड़ा = फांसी। न काटै = नहीं काट सकता। अंते = आखिरी वक्त। जम का जेवड़ा = आत्मिक मौत की फाही।4। अर्थ: हे करतार! अपने भक्तों को तू मेहर की निगाह से (अपने चरणों में) जोड़ कर रखता है, (इसलिए) भगत (तेरे चरणों में) सुरति जोड़ के सदा तेरी सिफतसालाह करते रहते हैं। तेरी शरण में रह के वे विकारों से बचे रहते थे। तू खुद ही उनको (गुरू से) मिला के (अपने साथ) जोड़े रखता है।1। हे करतार! पूरे (गुरू के) शबद की बरकति से (जिस मनुष्य के अंदर तेरी) भगती निखर आती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद बन जाता है, (उस मनुष्य की भगती) तेरे मन को प्यारी लगती है। उस मनुष्य का मन उसका तन तेरी सदा-स्थिर सिफत सालाह में रंगा रहता है, वह तेरे सदा-स्थिर नाम में अपना चिक्त जोड़ के रखता है।2। हे भाई! अहंकार (की आग) में (मनुष्य का) शरीर (अंदर-अंदर से) सदा जलता रहता है। (जब प्रभू की) मेहर होती है तो इसको पूरा गुरू मिलता है। वह मनुष्य अपने अंदर बसते अज्ञान को गुरू के शबद से दूर कर लेता है, गुरू से वह आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।3। पर, हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह में) अंधा हुआ रहता है, वह सदा अंधों वाला काम ही करता है। (जीवन-यात्रा में सही रास्ते से भटक के) वह अनेकों कष्ट सहता है, और, अनेकों जूनियों में भटकता फिरता है। (वह मनुष्य अपने गले से) आत्मिक मौत के फंदे को कभी नहीं काट सकता। अंत के समय भी वह बहुत दुख पाता है।4। आवण जाणा सबदि निवारे ॥ सचु नामु रखै उर धारे ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे हउमै जाइ समाइआ ॥५॥ आवण जाणै परज विगोई ॥ बिनु सतिगुर थिरु कोइ न होई ॥ अंतरि जोति सबदि सुखु वसिआ जोती जोति मिलाइआ ॥६॥ पंच दूत चितवहि विकारा ॥ माइआ मोह का एहु पसारा ॥ सतिगुरु सेवे ता मुकतु होवै पंच दूत वसि आइआ ॥७॥ बाझु गुरू है मोहु गुबारा ॥ फिरि फिरि डुबै वारो वारा ॥ सतिगुर भेटे सचु द्रिड़ाए सचु नामु मनि भाइआ ॥८॥ {पन्ना 1068} पद्अर्थ: आवण जाणा = पैदा होना मरना, जनम मरण का चक्कर। सबदि = गुरू के शबद से। निवारे = दूर कर लेता है। सचु नामु = सदा स्थिर हरी नाम। उर = (उरस) हृदय। धारे = टिका के। मरै = (अपनत्व की ओर से) मारता है, स्वैभाव दूर करता है। मनु मारे = मन को वश में रखता है। जाइ = दूर हो जाती है।5। आवण जाणै = जनम मरण (के चक्कर) में। परज = सृष्टि। विगोई = दुखी होती है। थिरु = स्थिर। अंदरि = अंदर, हृदय में। सबदि = शबद से। जोती = परमात्मा की ज्योति में।6। पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरियों के कारण। चितवदे = (जीव) चितवते रहते हैं। पसारा = खिलारा। मोह का पसारा = हर तरफ मोह का प्रभाव। सेवे = शरण पड़ा रहे। मुकतु = (मोह के प्रभाव से) स्वतंत्र। वसि = वश में।7। गुबारा = घोर अंधेरा। फिरि फिरि = बार बार। वारो वारा = बार बार, अनेकों बार। सतिगुर भेटे = गुरू मिल जाए। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्का कर देता है। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगने लग जाता है।8। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है, वह गुरू के शबद की बरकति से जनम-मरण के चक्कर दूर कर लेता है। वह मनुष्य गुरू के शबद से स्वै भाव दूर कर लेता है, वह अपने मन को वश में कर लेता है, उसका अहंकार दूर हो जाता है, वह सदा परमात्मा की याद में लीन रहता है।5। हे भाई! सृष्टि जनम-मरण के चक्करों में दुखी होती रहती है। गुरू की शरण के बिना (इस चक्कर में से) किसी को भी निजात नहीं मिलती। जिस मनुष्य के अंदर गुरू के शबद से परमात्मा की ज्योति प्रकट हो जाती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद आ बसता है, उसकी ज्योति परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।6। हे भाई! (कामादिक) पाँच वैरियों के (प्रभाव के) कारण (जीव हर वक्त) विकार चितवते रहते हैं। हर तरफ माया के मोह का प्रभाव बना हुआ है। जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, तब (इस मोह के दबाव से) स्वतंत्र होता है, (कामादिक) पाँच वैरी उसके वश में आ जाते हैं।7। हे भाई! गुरू के बिना (माया का) मोह (इतना प्रबल रहता) है (कि मनुष्य के जीवन-राह में आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार (बना) रहता है। मनुष्य बार-बार अनेकों वार (मोह के समुंद्र में) डूबता है। जब मनुष्य गुरू को मिल जाता है, तब गुरू सदा-स्थिर हरी-नाम इस के दिल में पक्का कर देता है। (तो फिर) सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम इसको प्यारा लगने लग जाता है।8। साचा दरु साचा दरवारा ॥ सचे सेवहि सबदि पिआरा ॥ सची धुनि सचे गुण गावा सचे माहि समाइआ ॥९॥ घरै अंदरि को घरु पाए ॥ गुर कै सबदे सहजि सुभाए ॥ ओथै सोगु विजोगु न विआपै सहजे सहजि समाइआ ॥१०॥ दूजै भाइ दुसटा का वासा ॥ भउदे फिरहि बहु मोह पिआसा ॥ कुसंगति बहहि सदा दुखु पावहि दुखो दुखु कमाइआ ॥११॥ सतिगुर बाझहु संगति न होई ॥ बिनु सबदे पारु न पाए कोई ॥ सहजे गुण रवहि दिनु राती जोती जोति मिलाइआ ॥१२॥ {पन्ना 1068} पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। दरु = दरवाजा। दरवारा = दरबार। सेवहि = सेवा भगती करते हैं। सचे सेवहि = सदा स्थिर प्रभू की भक्ति करते हैं। सबदि पिआरा = गुरू के शबद में प्यार डाल के। धुनि = लगन। गावा = मैं भी गाऊँ।9। घरै अंदरि = हृदय घर के अंदर ही। को = कोई विरला। घरु = परमात्मा का ठिकाना। कै सबदि = के शबद से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्यार में। ओथै = उस सहज अवस्था में। सोगु = गम। विजोगु = विछोड़ा। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। सहजे सहजि = हर वक्त सहज में।10। दूजै भाइ = और और ही प्यार में। दुसट = कुकर्मी लोग। पिआसा = प्यासा, तृष्णा। कुसंगति = बुरी सोहबत में। बहहि = बैठते हैं (बहुवचन)। दुखो दुख = हर वक्त दुख।11। बाझहु = बिना। संगति = भली संगत। पारु = विकारों का परला छोर। सहजे = आत्मिक अडोलता में। रवहि = गाते हैं, सिमरते हैं (बहुवचन)। जोती = परमात्मा की जोति में।12। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का दर सदा कायम रहने वाला है, उसका दरबार भी सदा-स्थिर है। जो मनुष्य गुरू के शबद से प्यार करते हैं वह ही उस सदा-स्थिर परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। (अगर मेरे पर उसकी मेहर हो तो) मैं (भी) स्थिरता के साथ लगन से उस सदा-स्थिर प्रभू के गुण गाता रहूँ। (जो मनुष्य गुण गाते हैं वह) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहते हैं।9। हे भाई! जो कोई मनुष्य गुरू के शबद की बरकति से अपने हृदय-घर में परमात्मा का ठिकाना पा लेता है, वह आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिका रहता है। उस अडोल अवस्था में टिकने से गम जोर नहीं डाल सकता, (प्रभू चरणों से) विछोड़ा जोर नहीं डाल सकता। वह मनुष्य सदा ही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।10। हे भाई! कुकर्मी लोग (प्रभू को भुला के) औरों के प्यार में ही मन को जोड़े रखते हैं, बड़े मोह बड़ी तृष्णा के कारण वह भटकते फिरते हैं। (कुकर्मी लोग) सदा बुरी संगति में बैठते हैं और दुख पाते हैं। वे सदा वही कर्म करते हैं जिनमें से सिर्फ दुख ही दुख निकले।11। हे भाई! गुरू की शरण के बिना भली संगति नहीं मिल सकती। गुरू के शबद के बिना कोई मनुष्य कुकर्मों (की नदी) का उस पार का किनारा नहीं पा सकता। जो मनुष्य दिन-रात आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनकी जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन रहती है।12। काइआ बिरखु पंखी विचि वासा ॥ अम्रितु चुगहि गुर सबदि निवासा ॥ उडहि न मूले न आवहि न जाही निज घरि वासा पाइआ ॥१३॥ काइआ सोधहि सबदु वीचारहि ॥ मोह ठगउरी भरमु निवारहि ॥ आपे क्रिपा करे सुखदाता आपे मेलि मिलाइआ ॥१४॥ सद ही नेड़ै दूरि न जाणहु ॥ गुर कै सबदि नजीकि पछाणहु ॥ बिगसै कमलु किरणि परगासै परगटु करि देखाइआ ॥१५॥ आपे करता सचा सोई ॥ आपे मारि जीवाले अवरु न कोई ॥ नानक नामु मिलै वडिआई आपु गवाइ सुखु पाइआ ॥१६॥२॥२४॥ {पन्ना 1068-1069} पद्अर्थ: काइआ = शरीर। बिरख = वृक्ष। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम का चोगा। चुगहि = चुगते हैं। सबदि = शबद में। उडहि न = बाहर नहीं भटकते। न मूले = बिल्कुल नहीं। न जाही = ना जाते हैं, ना मरते हैं। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभू के चरणों में।13। सोधहि = सोधते हैं, पड़ताल करते हैं। ठगउरी = ठग बूटी, वह बूटी जिससे ठग यात्रियों को ठगते हैं (धतूरा आदि)। भरमु = भटकना। निवारहि = दूर करते हैं। आपे सुखदाता = सुखों का दाता प्रभू स्वयं।14। सद = सदा। गुर कै सबदि = गुरू के शबद से। नजीकि = नजदीक। बिगसै = खिल उठता है। कमलु = (हृदय) कमल फूल। परगासै = प्रकाश करती है, चमक पड़ती है। परगटु = प्रत्यक्ष। करि = कर के।15। करता = करतार। सचा = सदा कायम रहने वाला। मारि = मार के। अवरु = और। आपु = स्वै भाव। गवाइ = दूर कर के।16। अर्थ: हे भाई! (जैसे रात बसेरे के लिए पक्षी किसी वृक्ष पर आ के टिकते हैं, इसी तरह ये) शरीर (मानो) वृक्ष है, (इस शरीर) में (जीव) पंछी का निवास है। जो जीव-पंछी गुरू के शबद में टिक के आत्मिक जीवन देने वाली नाम की चोग चुगते हैं, वे बिल्कुल बाहर नहीं भटकते, वे जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ते, वे सदा प्रभू-चरणों में निवास रखते हैं।13। हे भाई! जो मनुष्य (अपने) शरीर की पड़ताल करते रहते हैं, गुरू के शबद को हृदय में बसाए रखते हैं, वे मनुष्य मोह की ठग बूटी नहीं खाते, वह मनुष्य (अपने अंदर से) भटकना दूर कर लेते हैं। पर, हे भाई! (ये) कृपा सुखों को देने वाला परमात्मा स्वयं ही करता है, वह स्वयं ही (उन्हें गुरू से) मिला के (अपने चरणों में) जोड़ता है।14। हे भाई! परमात्मा सदा ही (हमारे) नजदीक रहता है, उसको (कभी भी अपने से) दूर ना समझो। गुरू के शबद में जुड़ के उसको अपने अंग-संग बसता देखो। हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा को अपने साथ बसता देखता है उसका हृदय-) कमल फूल खिला रहता है, (उसके अंदर ईश्वरीय ज्योति की) किरण (आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर देती है। (गुरू उस मनुष्य को परमात्मा) प्रत्यक्ष करके दिखा देता है।15। हे नानक! वह करतार स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, वह स्वयं ही मार के जीवित करता है (भाव, मारता भी खुद ही है, पैदा भी करता खुद ही है)। उसके बिना कोई और ऐसी समर्थता वाला है ही नहीं। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मिल जाता है उसको (लोक-परलोक की) शोभा मिल जाती है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै-भाव दूर कर के आत्मिक आनंद लेता रहता है।16।2।24। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |