श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1069

मारू सोलहे महला ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सचा आपि सवारणहारा ॥ अवर न सूझसि बीजी कारा ॥ गुरमुखि सचु वसै घट अंतरि सहजे सचि समाई हे ॥१॥ सभना सचु वसै मन माही ॥ गुर परसादी सहजि समाही ॥ गुरु गुरु करत सदा सुखु पाइआ गुर चरणी चितु लाई हे ॥२॥ सतिगुरु है गिआनु सतिगुरु है पूजा ॥ सतिगुरु सेवी अवरु न दूजा ॥ सतिगुर ते नामु रतन धनु पाइआ सतिगुर की सेवा भाई हे ॥३॥ बिनु सतिगुर जो दूजै लागे ॥ आवहि जाहि भ्रमि मरहि अभागे ॥ नानक तिन की फिरि गति होवै जि गुरमुखि रहहि सरणाई हे ॥४॥ {पन्ना 1069}

पद्अर्थ: सचा = सच्चा, सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सवारणहारा = जीवन सुंदर बनाने वाले की समर्थता वाला। बीजी = दूसरी। कारा = कार, काम। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। घट अंतरि = हृदय में। सहजे = आत्मिक अडोलता से। सचि = सदा स्थिर प्रभू।1।

माही = माहि, में। परसादी = कृपा से। सहजि = आत्मिक अडोलता से। करत = करते हुए।2।

गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। सेवी = मैं सेवा करता हूँ। ते = से। भाई = अच्छी लगी है।3।

दूजै = माया में। भ्रमि = भटक भटक के। अभागे = दुर्भाग्य वाले व्यक्ति। नानक = हे नानक! गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। जि = जो।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसके हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा आ बसता है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहता है। उसको (प्रभू की याद के बिना) कोई और दूसरी कार नहीं सूझती। पर, हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही उसका जीवन सुंदर बनाने की समर्थता रखता है।1।

हे भाई! (वैसे तो) सदा-स्थिर प्रभू सब जीवों के मन में बसता है, पर गुरू की कृपा से ही (जीव) आत्मिक अडोलता में (टिक के प्रभू में) लीन होते हैं। गुरू को हर वक्त याद करते हुए मनुष्य आत्मिक आनंद पाता है, गुरू के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है।2।

हे भाई! गुरू आत्मिक जीवन की सूझ (देने वाला) है, गुरू परमात्मा की (भगती (सिखाने वाला) है। मैं तो गुरू की ही शरण पड़ता हूँ, कोई और दूसरा (मैं अपने मन में) नहीं (लाता)। मैंने गुरू से श्रेष्ठ नाम-धन पाया है, मुझे गुरू की (बताई हुई) सेवा अच्छी लगती है।3।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू को छोड़ के और तरफ लगते हैं, वह अभागे व्यक्ति भटकना में पड़ कर आत्मिक मौत सहेड़ते हैं, वे जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे नानक! (कह-) उन मनुष्यों की ही फिर ऊँची आत्मिक अवस्था बनती है जो गुरू की शरण पड़ते हैं।4।

गुरमुखि प्रीति सदा है साची ॥ सतिगुर ते मागउ नामु अजाची ॥ होहु दइआलु क्रिपा करि हरि जीउ रखि लेवहु गुर सरणाई हे ॥५॥ अम्रित रसु सतिगुरू चुआइआ ॥ दसवै दुआरि प्रगटु होइ आइआ ॥ तह अनहद सबद वजहि धुनि बाणी सहजे सहजि समाई हे ॥६॥ जिन कउ करतै धुरि लिखि पाई ॥ अनदिनु गुरु गुरु करत विहाई ॥ बिनु सतिगुर को सीझै नाही गुर चरणी चितु लाई हे ॥७॥ जिसु भावै तिसु आपे देइ ॥ गुरमुखि नामु पदारथु लेइ ॥ आपे क्रिपा करे नामु देवै नानक नामि समाई हे ॥८॥ {पन्ना 1069}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। साची = सदा टिके रहने वाली। ते = से। मागउ = मैं माँगता हूँ। अजाची = जो जाचा ना जा सके, जिसकी कीमति का अंदाजा ना लग सके, अमूल्य।5।

अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। चुआइआ = नाम रस पैदा करने की सहायता की। दसवै दुआरि = दसवें द्वार में, दिमाग में, सोच मण्डल में। तह = उस आत्मिक अवस्था में। अनहद = बिना बजाए बजने वाले। सबद वजहि = शबद बजते हैं, पांच शबद बजते हैं, पाँच किस्मों के साज़ बजते हैं। धुनि = सुर, आत्मिक सुर, आत्मिक आनंद। धुनि बाणी = सिफतसालाह की बाणी से पैदा हुआ आत्मिक आनंद। सहजे सहजि = हर वक्त आत्मिक अडोलता में।6।

करतै = करतार ने। धुरि = धुर से। लिखि = (किए कर्मों के अनुसार) लिख के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करत = करते हुए। विहाई = (उम्र) बीतती है। को = कोई मनुष्य। सीझै = कामयाब होता। लाई = लगा के।7।

जिसु भावै = जो मनुष्य उसको अच्छा लगता है। देइ = देता है। लेइ = लेता है। नामि = नाम में। समाई = लीन रहता है।8।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसकी प्रभू से प्रीति पक्की होती है। (वह हर समय इस प्रकार अरदास करता रहता है-) मैं गुरू से (तेरा) अमूल्य नाम माँगता हूँ। हे हरी! दयावान हो, कृपा कर। मुझे गुरू की शरण में रख।5।

हे भाई! गुरू (जिस मनुष्य के हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पैदा करता है, (परमात्मा) उसके सोच-मंडल में प्रकट हो जाता है। उस अवस्था में उस मनुष्य के अंदर सिफत सालाह की बाणी से (इस प्रकार) आत्मिक आनंद पैदा होता है (जैसे, मानो वहाँ) पाँच किस्मों के साज़ बज रहे हैं। वह मनुष्य हर वक्त आत्मिक आनंद में लीन रहता है।6।

पर, हे भाई! (आत्मिक आनंद की यह दाति उन्हें ही मिलती है) जिनके भाग्यों में करतार ने धुर दरगाह से लिख के रख दी है। उनकी उम्र सदा गुरू को याद करते हुए बीतती है। हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना कोई मनुष्य (जिंदगी में) सफल नहीं होता। तू सदा गुरू के चरणों में अपना चिक्त जोड़े रख।7।

हे भाई! जो जीव उस परमात्मा को प्यारा लगता है उसको वह स्वयं ही (नाम की दाति) देता है। वह मनुष्य गुरू से यह कीमती नाम हासिल करता है। हे नानक! (कह-) जिसके ऊपर वह प्रभू कृपा करता है उसको अपना नाम देता है। वह मनुष्य नाम में लीन रहता है।8।

गिआन रतनु मनि परगटु भइआ ॥ नामु पदारथु सहजे लइआ ॥ एह वडिआई गुर ते पाई सतिगुर कउ सद बलि जाई हे ॥९॥ प्रगटिआ सूरु निसि मिटिआ अंधिआरा ॥ अगिआनु मिटिआ गुर रतनि अपारा ॥ सतिगुर गिआनु रतनु अति भारी करमि मिलै सुखु पाई हे ॥१०॥ गुरमुखि नामु प्रगटी है सोइ ॥ चहु जुगि निरमलु हछा लोइ ॥ नामे नामि रते सुखु पाइआ नामि रहिआ लिव लाई हे ॥११॥ गुरमुखि नामु परापति होवै ॥ सहजे जागै सहजे सोवै ॥ गुरमुखि नामि समाइ समावै नानक नामु धिआई हे ॥१२॥ {पन्ना 1069}

पद्अर्थ: गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। मनि = मन में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। गुर ते = गुरू से। सद = सदा। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ।9।

सूरु = सूरज। निसि अंधिआरा = रात का अंधेरा। गुर रतनि अपारा = गुरू के बेअंत कीमती (ज्ञान) रत्न से। अति भारी = बहुत ही कीमती। करमि = मेहर से। मिलै = मिलता है (एकवचन)।10।

सोइ = शोभा। प्रगटि = बिखरी। चहु जुगि = सदा के लिए। लोइ = जगत में। नामे नामि = नाम ही नाम, हर वक्त नाम में। रते = रंगे हुए। लिव = लगन।11।

गुरमुखि = गुरू से। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में। समाइ = समा के। समावै = समाया रहता है।12।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में आत्मिक जीवन की श्रेष्ठ सूझ उभर आई, उसने आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा का कीमती नाम पा लिया। पर यह वडिआई गुरू से (ही) मिलती है। मैं सदा ही गुरू से सदके जाता हूँ।9।

हे भाई! (जैसे जब) सूरज चढ़ता है (तब) रात का अंधेरा मिट जाता है, (इसी तरह) गुरू के बेअंत कीमती ज्ञान-रत्न से अज्ञान-अंधेरा दूर हो जाता है। हे भाई! गुरू का (दिया हुआ) 'ज्ञान रत्न' बहुत ही कीमती है। परमात्मा की मेहर से जिसको यह मिलता है, वह आत्मिक आनंद पाता है।10।

हे भाई! गुरू के द्वारा जिसको हरी-नाम प्राप्त होता है, उसकी शोभा पसर जाती है, वह सदा के लिए पवित्र जीवन वाला हो जाता है, वह सारे जगत में अच्छा माना जाता है। हे भाई! हर वक्त हरी-नाम में रंगे रहने के कारण वह सुख पाता है, वह हरी-नाम में हर वक्त सुरति जोड़े रखता है।11।

हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू के द्वारा हरी-नाम हासिल होता है, वह जागता और सोया हुआ हर समय आत्मिक अडोलता में टिका रहता है (आत्मिक अडोलता में जागता है आत्मिक अडोलता में सोता है)। हे नानक! गुरू के द्वारा नाम में ही लीन हो के वह मनुष्य (परमात्मा में) लीन रहता है, वह हर समय हरी-नाम ही सिमरता है।12।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh