श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1071 किस ही जोरु अहंकार बोलण का ॥ किस ही जोरु दीबान माइआ का ॥ मै हरि बिनु टेक धर अवर न काई तू करते राखु मै निमाणी हे ॥१३॥ निमाणे माणु करहि तुधु भावै ॥ होर केती झखि झखि आवै जावै ॥ जिन का पखु करहि तू सुआमी तिन की ऊपरि गल तुधु आणी हे ॥१४॥ हरि हरि नामु जिनी सदा धिआइआ ॥ तिनी गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ बिनु सेवा पछोताणी हे ॥१५॥ तू सभ महि वरतहि हरि जगंनाथु ॥ सो हरि जपै जिसु गुर मसतकि हाथु ॥ हरि की सरणि पइआ हरि जापी जनु नानकु दासु दसाणी हे ॥१६॥२॥ {पन्ना 1071} पद्अर्थ: जोरु = ताकत, जोर, मान। दीबान = आसरा। धर = आसरा। काई = (स्त्री लिंग। कोई = पुलिंग)। करते = हे करतार! मैं = मुझे।13। किस ही: 'किसु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। करहि = तू करता है। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। होर केती = और कितनी ही दुनिया। झखि = दुखी हो के। पखु = मदद। ऊपरि = सबके ऊपर। गल = बात। आणी = ले आए।14। जिनी = जिन्होंने। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। जिनि = जिस ने।15। वरतहि = व्यापक है। जगंनाथु = जगत का नाथ। गुर हाथु = गुरू का हाथ। जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। जापी = मैं जपूँ। दासु दसाणी = दासों का दास।16। अर्थ: हे भाई! किसी के अंदर अच्छा बोल सकने के अहंकार की ताकत है। किसी को माया के आसरे का भरोसा है। मुझे परमात्मा के बिना और कोई आसरा नहीं सहारा नहीं। हे करतार! मेरी निमाणी की रक्षा तू ही कर।13। हे स्वामी! तू निमाणे का माण है। जो तुझे अच्छा लगता है, वही तू करता है। (तेरी रज़ा से दूर जाने का यतन करके) बेअंत दुनिया दुखी हो-हो के जनम-मरण के चक्करों में पड़ती है। हे स्वामी! तू जिनका पक्ष करता है, उनकी बात हर जगह मानी जाती है।14। हे भाई! जिन मनुष्यों ने सदा परमात्मा का नाम सिमरा, उन्हों ने गुरू की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया। हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा की सेवा-भक्ति की, उसने सुख पाया। प्रभू की सेवा-भक्ति के बिना दुनिया पछताती (ही) है।15। हे हरी! तू जगत का नाथ है। तू सबमें व्यापक है। हे भाई! वही मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है जिसके माथे पर गुरू का हाथ होता है। हे भाई! (मैं भी) हरी की शरण पड़ा हूँ, मैं भी हरी का नाम जपता हूँ। दास नानक हरी के दासों का दास है।16।2। मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कला उपाइ धरी जिनि धरणा ॥ गगनु रहाइआ हुकमे चरणा ॥ अगनि उपाइ ईधन महि बाधी सो प्रभु राखै भाई हे ॥१॥ जीअ जंत कउ रिजकु स्मबाहे ॥ करण कारण समरथ आपाहे ॥ खिन महि थापि उथापनहारा सोई तेरा सहाई हे ॥२॥ मात गरभ महि जिनि प्रतिपालिआ ॥ सासि ग्रासि होइ संगि समालिआ ॥ सदा सदा जपीऐ सो प्रीतमु वडी जिसु वडिआई हे ॥३॥ सुलतान खान करे खिन कीरे ॥ गरीब निवाजि करे प्रभु मीरे ॥ गरब निवारण सरब सधारण किछु कीमति कही न जाई हे ॥४॥ {पन्ना 1071} पद्अर्थ: कला = गुप्त ताकत, शक्ति, सक्ता। उपाइ = पैदा कर के। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरणा = धरती। गगनु = आकाश। रहाइआ = टिकाया। हुकमे = हुकम से ही। चरणा = आसरा (दे के)। ईधन = ईधन। बाधी = बाँधी हुई है। राखै = रक्षा करता है।1। कउ = को। संबाहे = पहुँचाता है। करण = सृष्टि। कारण = मूल। आपाहे = माया की पाह से रहित, निर्लिप। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश कर सकने वाला। सहाई = मददगार।2। जिनि = जिस (प्रभू) ने। प्रतिपालिआ = रक्षा की। सासि = (हरेक) सांस के साथ। ग्रासि = (हरेक) ग्रास के साथ। संगि = साथ। समालिआ = संभाल करता है। जपीअै = जपना चाहिए।3। सुलतान = बादशाह। खान = सरदार। कीरे = कीड़े। निवाजि = निवाज के, ऊँचे करके। मीरे = अमीर। गरब = अहंकार। सरब सधारण = सबको आसरा देने वाला।4। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (अपने ही अंदर से) शक्ति पैदा करके धरती की सृजना की है, जिसने अपने हुकम का ही आसरा दे के आकाश को स्तंभ दिया हुआ है, जिसने आग पैदा करके इसको ईधन (लकड़ियों) में बाँध रखा है, वही परमात्मा (सब जीवों की) रक्षा करता है।1। हे भाई! जो परमात्मा सारे ही जीवों को रिज़क पहुँचाता है, जो सृष्टि का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक व निर्लिप है, जो एक छिन में पैदा करके नाश करने की समर्थता रखता है, वही परमात्मा (हर वक्त) तेरा भी मददगार है।2। हे भाई! जिस परमात्मा ने माँ के पेट में (तेरी) पालना की, तेरे हरेक सांस के साथ तेरी हरेक ग्रास के साथ तेरा संगी बन के तेरी संभाल की, जिस परमात्मा की इतनी बड़ी वडिआई है, उस प्रीतम प्रभू को सदा ही सदा ही जपना चाहिए।3। हे भाई! वह परमात्मा बादशाहों और खानों को एक छिन में कीड़े (कंगाल) बना देता है, गरीबों को ऊँचे करके अमीर बना देता है। वह परमात्मा (अहंकारियों का) अहंकार दूर करने वाला है, वह परमात्मा सबका आसरा है, हे भाई! उसका मूल्य नहीं डाला सकता।4। सो पतिवंता सो धनवंता ॥ जिसु मनि वसिआ हरि भगवंता ॥ मात पिता सुत बंधप भाई जिनि इह स्रिसटि उपाई हे ॥५॥ प्रभ आए सरणा भउ नही करणा ॥ साधसंगति निहचउ है तरणा ॥ मन बच करम अराधे करता तिसु नाही कदे सजाई हे ॥६॥ गुण निधान मन तन महि रविआ ॥ जनम मरण की जोनि न भविआ ॥ दूख बिनास कीआ सुखि डेरा जा त्रिपति रहे आघाई हे ॥७॥ मीतु हमारा सोई सुआमी ॥ थान थनंतरि अंतरजामी ॥ सिमरि सिमरि पूरन परमेसुर चिंता गणत मिटाई हे ॥८॥ {पन्ना 1071} पद्अर्थ: पतिवंता = इज्जत वाला। जिसु मनि = जिस के मन में। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। जिनि = जिस (करतार) ने।5। प्रभ सरणा = प्रभू की शरण में। निहचउ = अवश्य। बच = वचन। अराधे = सिमरता है। सजाई = सजा, दण्ड, कष्ट।6। गुण निधान = गुणों का खजाना। रविआ = सिमरा। सुखि = सुख में। त्रिपति रहे आघाई = माया की तृष्णा की ओर से पूरी तौर पर तृप्त हो गए।7। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतरि, हरेक जगह में (अंतरि = में)। सिमरि = सिमर कै। गणत = चिंता फिक्र।8। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में हरी भगवान आ बसता है, वह (असल) इज्जतदार है, वही (असल) धनाढ है। जिस परमात्मा ने यह सृष्टि पैदा की है, वही है माता-पिता, वही है पुत्र-रिश्तेदार और भाई (वही है हमेशा साथ निभने वाला संबंधी)।5। हे भाई! प्रभू की शरण पड़ने से किसी किस्म के डर की आवश्यक्ता नहीं रहती। हे भाई! गुरू की संगत में रहने से अवश्य (सारे डरों से) पार-उतारा हो जाता है। जो मनुष्य अपने मन से वचनों से कर्मों से करतार हरी की आराधना करता रहता है, उसको कभी कोई कष्ट छू नहीं सकता।6। हे भाई! जो मनुष्य अपने मन में अपने तन में परमात्मा को याद रखता है, वह जनम-मरण के चक्र में नहीं भटकता। उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है, वह सदा के लिए आत्मिक आनंद में ठिकाना बना लेता है, क्योंकि वह (तृष्णा की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त होता है।7। हे भाई! वही मालिक प्रभू हम जीवों का (असल) मित्र है। उस पूरन दिल की जानने वाला वह प्रभू हरेक जगह में बस रहा है। सबके परमेश्वर का नाम सदा सिमर के मनुष्य अपनी सारी चिंता-फिक्र मिटा लेता है।8। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |