श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1072

हरि का नामु कोटि लख बाहा ॥ हरि जसु कीरतनु संगि धनु ताहा ॥ गिआन खड़गु करि किरपा दीना दूत मारे करि धाई हे ॥९॥ हरि का जापु जपहु जपु जपने ॥ जीति आवहु वसहु घरि अपने ॥ लख चउरासीह नरक न देखहु रसकि रसकि गुण गाई हे ॥१०॥ खंड ब्रहमंड उधारणहारा ॥ ऊच अथाह अगम अपारा ॥ जिस नो क्रिपा करे प्रभु अपनी सो जनु तिसहि धिआई हे ॥११॥ बंधन तोड़ि लीए प्रभि मोले ॥ करि किरपा कीने घर गोले ॥ अनहद रुण झुणकारु सहज धुनि साची कार कमाई हे ॥१२॥ {पन्ना 1072}

पद्अर्थ: कोटि = करोड़। बाहा = बाँहें, साथी, मददगार। जसु कीरतनु = सिफत सालाह। संगि ताहा = उस (मनुष्य) के पास। खड़गु = तलवार। करि = कर के। दूत = (कामादिक) वैरी। धाई = हल्ला।9।

जपु जपने = जपने योग्य जप। जीति = जीत के। घरि अपने = अपने घर में, स्वै स्वरूप में, प्रभू चरणों में। रसकि = रस से, प्रेम से। गाई = गाता है।10।

उधारणहारा = विकारों से बचा सकने वाला। अथाह = बहुत ही गहरा। अगंम = अपहुँच। तिसहि = तिसु ही, उस (परमात्मा) को ही ('तिसु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)।11।

तोड़ि = तोड़ के। प्रभि = प्रभू ने। घर गोले = घर के सेवक। अनहद = एक रस, लगातार, बिना बजाए बज रहा। रुण झुण = मीठा सुरीला राग। रुणझुणकारु = लगातार हो रहा मीठा सुरीला राग। सहज = आत्मिक अडोलता। धुनि = सुर। साची = सदा कायम रहने वाली।12।

अर्थ: हे भाई! (जैसे वैरियों का मुकाबला करने के लिए बहुत सारी बाँहें और बहुत सारे साथी मनुष्य के लिए सहारा होते हैं, वैसे ही कामादिक वैरियों से मुकाबले में मनुष्य के लिए) परमात्मा का नाम (मानो) लाखों-करोड़ों बाहें हैं, परमात्मा का यश-कीर्तन उसके पास धन है। जिस मनुष्य को परमात्मा आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार कृपा करके देता है, वह मनुष्य हमला करके कामादिक वैरियों को मार लेता है।9।

हे भाई! परमात्मा के नाम का जाप जपा करो, यही जपने-योग्य जप है। (इस जप की बरकति से कामादिक वैरियों को) जीत के अपने असल घर में टिके रहोगे। चौरासी लाख जूनियों के नर्क देखने नहीं पड़ेंगे। (जो मनुष्य) प्रेम से प्रभू के गुण गाता है (उसको यह फल प्राप्त होता है)।10।

हे भाई! परमात्मा खंडो-ब्रहमंडों के जीवों को विकारों से बचाने के योग्य है। वह प्रभू ऊँचा है अथाह है अपहुँच है बेअंत है। जिस मनुष्य पर वह अपनी कृपा करता है वह मनुष्य उसी प्रभू को ही सिमरता रहता है।11।

हे भाई! जिस मनुष्य के (माया के मोह के) बँधन तोड़ के प्रभू ने उसको अपना बना लिया, मेहर करके जिसको उसने अपने घर का दास बना लिया, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कार करता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की तार बँधी रहती है, और उसके अंदर सिफतसालाह का (मानो) लगातार मीठा सुरीला राग होता रहता है।12।

मनि परतीति बनी प्रभ तेरी ॥ बिनसि गई हउमै मति मेरी ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै जग महि सोभ सुहाई हे ॥१३॥ जै जै कारु जपहु जगदीसै ॥ बलि बलि जाई प्रभ अपुने ईसै ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न दीसै एका जगति सबाई हे ॥१४॥ सति सति सति प्रभु जाता ॥ गुर परसादि सदा मनु राता ॥ सिमरि सिमरि जीवहि जन तेरे एकंकारि समाई हे ॥१५॥ भगत जना का प्रीतमु पिआरा ॥ सभै उधारणु खसमु हमारा ॥ सिमरि नामु पुंनी सभ इछा जन नानक पैज रखाई हे ॥१६॥१॥ {पन्ना 1072}

पद्अर्थ: मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। परतीति = श्रद्धा। प्रभ = हे प्रभू! मति मेरी = 'मेरी मेरी' करने वाली मति, ममता की मति। अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभू ने। सोभ = शोभा। सुहाई = सुंदर बनी।13।

जै जैकारु = सिफत सालाह। जगदीसै = जगदीश की, जगत के मालिक की (जगत+ईश)। जाई = मैं जाता हूँ। ईस = ईश्वर। जगति सबाई = सारे जगत में।14।

सति = सदा कायम रहने वाला। परसादि = कृपा से। राता = रंगा हुआ। सिमरि = सिमर के। ऐकंकारि = इक ओअंकार में, सर्व व्यापक में।15।

उधारणु = पार लंघाने वाला। पुंनी = पूरी हो गई। पैज = लाज, इज्जत।16।

अर्थ: हे प्रभू! जिस मनुष्य के मन में तेरे प्रति श्रद्धा बन जाती है, उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, उसकी ममता वाली बुद्धि नाश हो जाती है। हे भाई! अपने प्रभू ने जिस मनुष्य की सहायता की उसके सारे जगत में शोभा चमक पड़ी।13।

हे भाई! जगत के मालिक प्रभू की सिफत सालाह करते रहो। मैं तो अपने ईश्वर प्रभू से सदा सदके जाता हूँ। उस प्रभू के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं दिखता। सारे जगत में वह एक स्वयं ही स्वयं है।14।

हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा को सदा-स्थिर जान लिया है उसका मन गुरू की कृपा से उसमें रंगा रहता है। हे प्रभू! तेरे सेवक तेरा नाम सिमर-सिमर के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, वे सदा तेरे सर्व-व्यापक स्वरूप में लीन रहते हैं।15।

हे भाई! हमारा मालिक-प्रभू अपने भक्तों का प्यारा है, सब जीवों का पार-उतारा करने वाला है। उसका नाम सिमर-सिमर के उसके भक्तों की हरेक आस पूरी हो जाती है। हे नानक! परमात्मा अपने सेवकों की सदा लाज रखता है।16।1।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संगी जोगी नारि लपटाणी ॥ उरझि रही रंग रस माणी ॥ किरत संजोगी भए इकत्रा करते भोग बिलासा हे ॥१॥ जो पिरु करै सु धन ततु मानै ॥ पिरु धनहि सीगारि रखै संगानै ॥ मिलि एकत्र वसहि दिनु राती प्रिउ दे धनहि दिलासा हे ॥२॥ धन मागै प्रिउ बहु बिधि धावै ॥ जो पावै सो आणि दिखावै ॥ एक वसतु कउ पहुचि न साकै धन रहती भूख पिआसा हे ॥३॥ धन करै बिनउ दोऊ कर जोरै ॥ प्रिअ परदेसि न जाहु वसहु घरि मोरै ॥ ऐसा बणजु करहु ग्रिह भीतरि जितु उतरै भूख पिआसा हे ॥४॥ सगले करम धरम जुग साधा ॥ बिनु हरि रस सुखु तिलु नही लाधा ॥ भई क्रिपा नानक सतसंगे तउ धन पिर अनंद उलासा हे ॥५॥ {पन्ना 1072}

पद्अर्थ: संगी = साथी, 'नारि' का साथी, काया का साथी। जोगी = (असल में) निर्लिप, विरक्त (जीवात्मा)। नारि = स्त्री, काया। लपटाणी = लिपटी हुई है, चिपकी हुई है। उरझि रही = (काया स्त्री जीवात्मा जोगी के साथ) उलझी हुई है, उसको अपने मोह में फसा रही है। किरत = पिछले किए कर्म। किरत संजोगी = किए कर्मों के संजोगों से। इकत्रा = इकट्ठे। करते = करते हैं।1।

पिरु = (काया स्त्री का) पति, जीवात्मा। धन = स्त्री, काया। ततु = तुरत। माने = मानती है। धनहि = काया स्त्री को। सीगारि = श्रृंगार के। संगानै = (अपने) साथ। मिलि = मिल के। प्रिउ = जीवात्मा पति।2।

मागै = माँगती है। बहु बिधि = कई तरह। धावै = दौड़ा फिरता है। पावै = हासिल करता है। जो = जो कुछ। आनि = ला के। इक वसतु = नाम पदार्थ। कउ = को। रहती = बनी रहती है।3।

बिनउ = विनती। दोऊ कर = दोनों हाथ। जोरै = जोड़ती है। प्रिअ = हे प्यारे! परदेसि = पराए देश में। घरि मोरे = मेरे घर में, मेरे में ही। ग्रिह भीतिरि = मेरे ही घर में, इसी काया में। जितु = जिस (वणज) से।4।

सगले = सारे। सगले जुग = सारे युगों में, सदा से ही। करम धरम साधा = निहित धार्मिक कर्म किए गए हैं। तिलु = रक्ती भर भी। लाधा = मिला। सतसंगे = साध-संगति में। अनंद उलासा = आत्मिक आनंद।5।

अर्थ: हे भाई! (यह जीवात्मा असल में विरक्त) जोगी (है, यह काया-) स्त्री का साथी (जब बन जाता है, तो काया-) स्त्री (इसके साथ) लिपटी रहती है, इसको अपने मोह में फसाती रहती है, (और इसके साथ माया के) रंग रस भोगती है। किए कर्मों के संजोगों से (यह जीवात्मा और काया) इकट्ठे होते हैं, और, (दुनिया के) भोग विलास करते रहते हैं।1।

हे भाई! जो कुछ जीवात्मा-पति काया-स्त्री को कहता है वह तुरन्त मानती है जीवात्मा पति काया-स्त्री को सजा-सँवार के अपने साथ रखता है। मिल के दिन-रात ये इकट्ठे बसते हैं। जीवात्मा-पति काया-स्त्री को (कई तरह के) हौसले देता रहता है।2।

हे भाई! काया-स्त्री (भी जो कुछ) माँगती है, (वह हासिल करने के लिए) जीवात्मा-पति कई तरह की दौड़-भाग करता फिरता है। जो कुछ उसको मिलता है, वह ला के (अपनी काया-स्त्री को) दिखा देता है। (पर इस दौड़-भाग में इसको) नाम-पदार्थ नहीं मिल सकता, (नाम-पदार्थ के बिना) काया-स्त्री की (माया वाली) भूख-प्यास टिकी रहती है।3।

हे भाई! काया-स्त्री दोनों हाथ जोड़ती है और (जीवात्मा-पति के आगे) विनती करती है - हे प्यारे! (मुझे छोड़ के) किसी और देश में ना चले जाना, मेरे ही इस घर में टिके रहना। इसी घर में कोई ऐसा वव्यापार करता रह, जिससे मेरी भूख-प्यास मिटती रहे (मेरी जरूरतें पूरी होती रहें)।4।

पर, हे भाई! सदा से ही लोग मिथे हुए धार्मिक कर्म करते आए हैं। हरी-नाम के स्वाद के बिना किसी को भी रक्ती भर सुख नहीं मिला। हे नानक! जब साध-संगति में परमात्मा की कृपा होती है तब यह जीवात्मा और काया मिल के (नाम की बरकति से) आत्मिक आनंद लेते हैं।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh