श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तू साहिबु हउ सेवकु कीता ॥ जीउ पिंडु सभु तेरा दीता ॥ करन करावन सभु तूहै तूहै है नाही किछु असाड़ा ॥१॥ तुमहि पठाए ता जग महि आए ॥ जो तुधु भाणा से करम कमाए ॥ तुझ ते बाहरि किछू न होआ ता भी नाही किछु काड़ा ॥२॥ ऊहा हुकमु तुमारा सुणीऐ ॥ ईहा हरि जसु तेरा भणीऐ ॥ आपे लेख अलेखै आपे तुम सिउ नाही किछु झाड़ा ॥३॥ तू पिता सभि बारिक थारे ॥ जिउ खेलावहि तिउ खेलणहारे ॥ उझड़ मारगु सभु तुम ही कीना चलै नाही को वेपाड़ा ॥४॥ {पन्ना 1081}

पद्अर्थ: हउ = मैं। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभु = हर जगह। असाड़ा = हमारा।1।

तुमहि = तू (स्वयं) ही। पठाऐ = भेजे, घले। तुधु भाणा = तुझे अच्छा लगा। से = वह (बहुवचन)। ते = से। ता भी = इतना खलजगन होते हुए भी। काड़ा = चिंता फिकर।2।

ऊहा = वहाँ, उस लोक में, परलोक में। सुणीअै = सुना जाता है। ईहा = यहाँ, इस लोक में। भणीअै = उचारा जाता है। आपे लेख = तू आप ही लेख लिखने वाला। अलेखै = (तू) लेखे से बाहर। सिउ = साथ। झाड़ा = झगड़ा।3।

सभि = सारे। थारे = तेरे। उझड़ु = औझड़, गलत रास्ते। मारगु = (सीधा) रास्ता। वेपाड़ा = उलटे रहे। को = कोई मनुष्य।4।

अर्थ: हे प्रभू! तू (मेरा) मालिक है, मैं तेरा (पैदा) किया हुआ सेवक हूँ। ये जिंद ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। हे प्रभू! (जगत में) सब कुछ करने वाला तू ही है (जीवों से) करवाने वाला भी तू ही है। हम जीवों का कोई जोर नहीं चल सकता।1।

हे प्रभू! तू ही (जीवों को) भेजता है, तो (ये) जगत में आते हैं। जो तुझे अच्छा लगता है, उसी तरह के कर्म जीव करते हैं। हे प्रभू! तेरे हुकम से बाहर कुछ भी नहीं हो सकता। इतना बड़ा पसारा होते हुए भी तुझे कोई फिक्र नहीं है।2।

हे प्रभू! परलोक में भी तेरा (ही) हुकम (चल रहा) सुना जा रहा है, इस लोक में भी तेरी ही सिफत-सालाह उचारी जा रही है। हे प्रभू! तू स्वयं ही (जीवों के किए कर्मों के) लेखे (लिखने वाला) है, तू आप ही लेखे से बाहर है। तेरे साथ (जीव) कोई झगड़ा नहीं डाल सकते।3।

हे प्रभू! तू (सब जीवों का) पिता है, सारे (जीव) तेरे बच्चे हैं। जैसे तू (इन बच्चों को) खेलाता है, वैसे ही ये खेल रहे हैं। हे प्रभू! गलत रास्ता और ठीक रास्ता सब कुछ तूने स्वयं ही बनाया हुआ है। कोई भी जीव (अपने आप) गलत रास्ते पर चल नहीं सकता।4।

इकि बैसाइ रखे ग्रिह अंतरि ॥ इकि पठाए देस दिसंतरि ॥ इक ही कउ घासु इक ही कउ राजा इन महि कहीऐ किआ कूड़ा ॥५॥ कवन सु मुकती कवन सु नरका ॥ कवनु सैसारी कवनु सु भगता ॥ कवन सु दाना कवनु सु होछा कवन सु सुरता कवनु जड़ा ॥६॥ हुकमे मुकती हुकमे नरका ॥ हुकमि सैसारी हुकमे भगता ॥ हुकमे होछा हुकमे दाना दूजा नाही अवरु धड़ा ॥७॥ सागरु कीना अति तुम भारा ॥ इकि खड़े रसातलि करि मनमुख गावारा ॥ इकना पारि लंघावहि आपे सतिगुरु जिन का सचु बेड़ा ॥८॥ {पन्ना 1081}

पद्अर्थ: इकि = ('इक' का बहुवचन) कई। ग्रिह = घर। पठाऐ = भेजे। देस दिसंतरि = देस देस अंतरि, और और देशों में। इक ही कउ = कईयों को। इन महि = तेरे इन कामों में। कूड़ा = झूठा, गलत। किआ कहीअै = क्या कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता।5।

कवन = कौन? सैसारी = गृहस्ती। दाना = सियाना। होछा = मूर्ख, जल्दबाजी वाले स्वभाव का। सुरता = ऊँची सुरति वाला, उच्च सूझ वाला। जड़ा = जड़, मूर्ख।6।

हुकमे = (तेरे) हुकम में ही। हुकमि = हुकम अनुसार। धड़ा = (तेरे मुकाबले पर) बल वाला।7।

सागरु = समुंद्र। अति भारा = बहुत बड़ा। खड़े = डाल दिए, भेज दिए। रसातलि = नर्क में। करि = कर के, बना के। मनमुख = मन के मुरीद। गावारा = मूर्ख। लंघावहि = तू लंघाता है। सच = सदा कायम रहने वाला। बेड़ा = जहाज।8।

अर्थ: हे प्रभू! कई जीव ऐसे हैं जिन्हें तूने घर में बैठाया हुआ है। कई ऐसे हैं जिनकों और-और देशों में भेजता है। कई जीवों को तूने घास काटने पर लगा दिया है, कईयों को तूने राजे बना दिया है। तेरे इन कामों में किसी काम को गलत नहीं कहा जा सकता।5।

हे प्रभू! तेरे हुकम से बाहर ना कोई मुक्ति है ना कोई नर्क है। तेरे हुकम के बिना ना कोई गृहस्ती है ना कोई भक्त बन सकता है। ना कोई बड़े जिगरे वाला है ना कोई होछे स्वभाव वाला है। तेरे हुकम के बिना ना कोई ऊँची सूझ वाला है ना कोई मूर्ख है।6।

हे प्रभू! तेरे ही हुकम में (किसी को) मूक्ति (मिलती) है, तेरे ही हुकम में (किसी को) नर्क (मिलता) है। तेरे ही हुकम में कोई गृहस्ती है और कोई भगत है। हे प्रभू! तेरे ही हुकम में कोई जल्दबाज स्वभाव और कोई गंभीर स्वभाव वाला है। तेरे मुकाबले पर और कोई धड़ा है ही नहीं।7।

हे प्रभू! यह बेअंत बड़ा संसार-समुंद्र तूने स्वयं ही बनाया है। (यहाँ) कई जीवों को मन के मुरीद-मूर्ख बना के तू स्वयं ही नर्क में डालता है। कई जीवों को तूने खुद ही (इस संसार-समुंद्र से) पार लंधा लेता है। जिनके लिए तू गुरू को सदा कायम रहने वाला जहाज बना देता है।8।

कउतकु कालु इहु हुकमि पठाइआ ॥ जीअ जंत ओपाइ समाइआ ॥ वेखै विगसै सभि रंग माणे रचनु कीना इकु आखाड़ा ॥९॥ वडा साहिबु वडी नाई ॥ वड दातारु वडी जिसु जाई ॥ अगम अगोचरु बेअंत अतोला है नाही किछु आहाड़ा ॥१०॥ कीमति कोइ न जाणै दूजा ॥ आपे आपि निरंजन पूजा ॥ आपि सु गिआनी आपि धिआनी आपि सतवंता अति गाड़ा ॥११॥ केतड़िआ दिन गुपतु कहाइआ ॥ केतड़िआ दिन सुंनि समाइआ ॥ केतड़िआ दिन धुंधूकारा आपे करता परगटड़ा ॥१२॥ {पन्ना 1081}

पद्अर्थ: कउतकु = खेल तमाशा। कालु = मौत। हुकमि = हुकम में। पठाइआ = भेजा। ओपाइ = पैदा कर के। समाया = लीन कर देता है, समाप्त कर देता है। विगसै = खुश होता है। सभि = सारे। माणे = माणता है। रचनु = जगत रचना। आखाड़ा = अखाड़ा।9।

नाई = वडिआई। जाई = जगह। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) इन्द्रियों की पहुँच से परे। आहाड़ा = माप, तोल।10।

आपे = स्वयं ही। निरंजन = (निर+अंजन) (माया के मोह की) कालिख से रहित। पूजा = पहुँचता है, बराबर का है। गिआनी = गहरी सांझ डालने वाला। धिआनी = सुरति जोड़ने वाला। गाढ़ा सतवंता = बहुत ऊँचे आचरण वाला।11।

केतड़िआ दिन = अनेकों दिन, बहुत सारा समय। गुपतु = छुपा हुआ। सुंनि = शून्य में, अफुर अवस्था में, उस हालत में जहाँ कोई फुरना नहीं उठता। धुंधूकारा = अंधेरा ही अंधेरा, वह हालत जो जीवों की समझ से परे है। करता = करता है।12।

अर्थ: हे भाई! यह काल (मौत, जो प्रभू का बनाया एक) खिलौना (ही है, उसने अपने) हुकम अनुसार (जगत में) भेजा है। (प्रभू आप ही) सारे जीवों को पैदा करके खत्म कर देता है। (प्रभू आप ही इस तमाशे को) देख रहा है (और देख-देख के) खुश हो रहा है, (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सारे रंग भोग रहा है। इस जगत-रचना को उसने एक अखाड़ा बनाया हुआ है।9।

हे भाई! वह मालिक प्रभू (बहुत) बड़ा है, उसकी वडिआई (भी बहुत) बड़ी है, वह बहुत बड़ा दाता है, उसकी जगह (जहाँ वह रहता है बहुत) बड़ी है। वह अपहुँच है, ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं, बेअंत है, तोला नहीं जा सकता। उसके तोलने के लिए कोई भी माप-तोल नहीं है।10।

हे भाई! और कोई भी जीव उसका मूल्य नहीं डाल सकता, वह निर्लिप प्रभू अपने बराबर का खुद ही है। वह आप ही अपने आप को जानने वाला है, आप ही अपने आप में समाधि लगाने वाला है। वह बहुत ही उच्च आचरण वाला है।11।

हे भाई! (अब जगत बनने पर ज्ञानी लोग) कहते हैं कि बेअंत समय वह गुप्त ही रहा, बेअंत समय वह शून्य अवस्था में टिका रहा। बेअंत वक्त तक एक ऐसी अवस्था बनी रही जो जीवों की समझ से परे है। फिर उसने स्वयं ही अपने आप को (जगत के रूप में) प्रकट कर लिया।12।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh