श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1080 मारू महला ५ ॥ प्रभ समरथ सरब सुख दाना ॥ सिमरउ नामु होहु मिहरवाना ॥ हरि दाता जीअ जंत भेखारी जनु बांछै जाचंगना ॥१॥ मागउ जन धूरि परम गति पावउ ॥ जनम जनम की मैलु मिटावउ ॥ दीरघ रोग मिटहि हरि अउखधि हरि निरमलि रापै मंगना ॥२॥ स्रवणी सुणउ बिमल जसु सुआमी ॥ एका ओट तजउ बिखु कामी ॥ निवि निवि पाइ लगउ दास तेरे करि सुक्रितु नाही संगना ॥३॥ रसना गुण गावै हरि तेरे ॥ मिटहि कमाते अवगुण मेरे ॥ सिमरि सिमरि सुआमी मनु जीवै पंच दूत तजि तंगना ॥४॥ {पन्ना 1080} पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! समरथ = हे सारी ताकतों के मालिक! सिमरउ = मैं सिमरता रहूँ। जीअ जंत = सारे जीव। भेखारी = मंगते। जनु = दास। बांछै = माँगता है, तमन्ना रखता है। जाचंगना = मंगता (बन के)।1। मागउ = मैं मांगता हूँ। जन धूरि = संत जनों की चरण धूड़। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। पावउ = मैं हासिल कर लूँ। दीरघ रोग = बड़े रोग। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। हरि अउखधि = हरी नाम की दवाई के साथ। निरमलि = निर्मल में। रापै = रंगा जाए। मंगना = मैं माँगता हूँ।2। स्रवणी = कानों से। सुणउ = मैं सुनता रहूँ। बिमल = पवित्र। सुआमी = हे स्वामी! ओट = आसरा। तजउ = मैं त्याग दूँ। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली। कामी = कामना, वासना। निवि = झुक के। पाइ लगउ = पाय लगउ, मैं पैर लगूँ। करि = कर के। सुक्रितु = नेक कमाई। संगना = शर्म लगे।3। रसना = जीभ। कमाते = कमाए हुए। अवगुण = विकार। सिमरि = सिमर के। जीवे = आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहे। दूत = वैरी। तंगना = तंग करने वाले।4। अर्थ: हे सारी ताकतों के मालिक प्रभू! हे सारे सुख देने वाले! (मेरे पर) मेहरवान हो, मैं तेरा नाम सिमरता रहूँ। हे भाई! परमात्मा दातें देने वाला है, सारे जीव (उसके दर के) मंगते हैं। (नानक उसका) दास मंगता बन के (उससे नाम की दाति) माँगता है।1। हे भाई! (प्रभू के दर से) मैं (उसके) सेवकों की चरण-धूल माँगता हूँ ताकि मैं सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकूँ, और अनेकों जन्मों की (विकारों की) मैल दूर कर सकूँ। हे भाई! हरी-नाम की दवाई से बड़े-बड़े रोग दूर हो जाते हैं। मैं भी (उसके दर से) माँगता हूँ कि उसके पवित्र नाम में (मेरा मन) रंगा रहे।2। हे स्वामी! (मेहर कर) मैं (अपने) कानों से तेरा पवित्र नाम सुनता रहूँ। मुझे सिर्फ तेरा ही आसरा है, (मेहर कर) मैं आत्मिक मौत लाने वाली काम वासना त्याग दूँ, मैं झुक-झुक के तेरे सेवकों के चरणों में लगता रहूँ। ये नेक कमाई करते हुए मुझे कभी शर्म महिसूस ना हो।3। हे स्वामी! हे हरी! (मेहर कर) मेरी जीभ तेरे गुण गाती रहे, और, मेरे (पिछले) किए हुए अवगुण मिट जाएं। (मेहर कर) तेरा नाम सिमर-सिमर के (और, सिमरन की बरकति से) दुखी करने वाले कामादिक पाँच वैरियों का साथ छोड़ के मेरा मन आत्मिक जीवन प्राप्त कर ले।4। चरन कमल जपि बोहिथि चरीऐ ॥ संतसंगि मिलि सागरु तरीऐ ॥ अरचा बंदन हरि समत निवासी बाहुड़ि जोनि न नंगना ॥५॥ दास दासन को करि लेहु गुोपाला ॥ क्रिपा निधान दीन दइआला ॥ सखा सहाई पूरन परमेसुर मिलु कदे न होवी भंगना ॥६॥ मनु तनु अरपि धरी हरि आगै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥ जिस का सा सोई प्रतिपालकु हति तिआगी हउमै हंतना ॥७॥ जलि थलि पूरन अंतरजामी ॥ घटि घटि रविआ अछल सुआमी ॥ भरम भीति खोई गुरि पूरै एकु रविआ सरबंगना ॥८॥ {पन्ना 1080} पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। बोहिथि = जहाज में। चरीअै = चढ़ना चाहिए। संगि = संगति में। सागरु = समुंद्र। तरीअै = तैरा जा सकता है। अरचा = अर्चना, फूल आदि भेट करके देवी पूजा करनी। बंदन = नमस्कार। समत निवासी = (सब जीवों में) एक समान बसने वाला। न नंगना = बेइज्जत नहीं होते।5। को = का। गुोपाला = हे गोपाल! (अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं ' ु' और 'ो'। असल शब्द है 'गोपाल' यहां पढ़ना है 'गुपाल')। निधान = खजाना। परमेसुर = हे परमेश्वर! भंगना = विछोड़ा।6। अरपि = भेटा करके। अरपि धरी = भेटा कर दी। सा = था, पैदा किया हुआ था। हति = मार के। हंतना = मारने वाली, आत्मिक मौत लाने वाली।7। जिस का: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है। जलि = जल में। थलि = धरती में। पूरन = व्यापक। घटि घटि = हरेक शरीर में। भीति = दीवार। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। रविआ = व्यापक। सरबंगना = सब में।8। अर्थ: हे भाई! (संसार-समुंद्र से पार लांघने के लिए परमात्मा के) सुंदर चरणों का ध्यान धर के (नाम-) जहाज में चढ़ना चाहिए, गुरू की संगति में मिल के (संसार-) समुंद्र से पार लांघा जा सकता है। परमात्मा को सब जीवों में एक-समान बस रहा जान लेना- यही है उसकी अर्चना-पूजा, यही है उसके आगे वंदना। (इस तरह) बार-बार जूनियों में पड़ कर दुखी नहीं होते।5। हे गोपाल! हे कृपा के खजाने! हे दीनों पर दया करने वाले! मुझे अपने दासों का दास बना ले। हे सर्व-व्यापक परमेश्वर! तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरा मददगार है। मुझे मिल, तुझसे मेरा कभी विछोड़ा ना हो।6। हे भाई! जिस मनुष्य ने अपना मन अपना तन परमात्मा के आगे भेटा कर दिया, वह मनुष्य अनेकों जन्मों का सोया हुआ (भी) जाग उठता है (आत्मिक जीवन की सूझ वाला हो जाता है)। जिस परमात्मा ने उसको पैदा किया था, वही उसका रखवाला बन जाता है, वह मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार को सदा के लिए त्याग देता है।7। हे भाई! पूरे गुरू ने (जिस मनुष्य की परमात्मा से विछोड़ा डालने वाली) भटकना की दीवार दूर कर दी, उसको परमात्मा सबमें व्यापक दिख जाता है; (उसको ये दिखाई दे जाता है कि) सबके दिलों की जानने वाला प्रभू जल में धरती में सब जगह व्यापक है, माया से ना छला जा सकने वाला हरी हरेक शरीर में मौजूद है।8। जत कत पेखउ प्रभ सुख सागर ॥ हरि तोटि भंडार नाही रतनागर ॥ अगह अगाह किछु मिति नही पाईऐ सो बूझै जिसु किरपंगना ॥९॥ छाती सीतल मनु तनु ठंढा ॥ जनम मरण की मिटवी डंझा ॥ करु गहि काढि लीए प्रभि अपुनै अमिओ धारि द्रिसटंगना ॥१०॥ एको एकु रविआ सभ ठाई ॥ तिसु बिनु दूजा कोई नाही ॥ आदि मधि अंति प्रभु रविआ त्रिसन बुझी भरमंगना ॥११॥ गुरु परमेसरु गुरु गोबिंदु ॥ गुरु करता गुरु सद बखसंदु ॥ गुर जपु जापि जपत फलु पाइआ गिआन दीपकु संत संगना ॥१२॥ {पन्ना 1080} पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, जिस भी तरफ। पेखउ = मैं देखता हूँ। सुख सागर = सुखों का समुंद्र। तोटि = घाटा, कमी। रतनागर = रतन+आकर, रत्नों की खान। अगह = अ+गह, जो पकड़ से परे है। अगाह = अथाह। मिति = मिनती, हद बंदी। किरपंगना = कृपा।9। सीतल = ठंडी। डंझा = सड़न, जलन। करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। प्रभि अपुनै = अपने प्रभू ने। अमिओ = अमृत। द्रिसटंगना = दृष्टि। अमिओ द्रिसटंगना = आत्मिक जीवन देने वाली दृष्टि।10। ऐको ऐकु = सिर्फ परमात्मा ही परमात्मा। रविआ = व्यापक है। आदि मधि अंति = जगत के आरम्भ में बीच में और आखिर में। त्रिसन = तष्णा। भरमंगना = भटकना।11 सद = सदा। गुर जपु = गुरू के बताए नाम का जाप। जापि = जप के। जपत = जपते हुए। दीपकु = दीया। गिआन दीपकु = ज्ञान का दीया, आत्मिक जीवन की सूझ का दीपक। संत संगना = गुरू की संगत, साध-संगति।12। अर्थ: हे भाई! मैं जिस तरफ भी देखता हूँ, सुखों का समुंद्र परमात्मा ही (बस रहा है)। रत्नों की खान उस परमात्मा के खजानों में कभी कमी नहीं आती। हे भाई! उस परमात्मा की हस्ती की कोई हद-बंदी नहीं पा सकता जो हरेक समय की पकड़ से परे है जिसको नापा नहीं जा सकता। पर, यह बात वह मनुष्य समझता है जिस पर उसकी कृपा हो।9। हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाली निगाह करके प्यारे प्रभू ने जिन (भाग्यशालियों) को (उनका) हाथ पकड़ कर (संसार-समुंद्र में से) निकाल लिया है, उनका हृदय शांत हो गया है, उनका मन उनका तन शांत हो गया है, उनकी वह जलन मिट गई है जो जनम-मरण के चक्करों में डालती है।10। हे भाई! (गुरू की कृपा से जिस मनुष्य की माया की) तृष्णा समाप्त हो जाती है भटकना खत्म हो जाती है (उसको यह दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा ही परमात्मा सब जगह बस रहा है, उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है, वह परमात्मा ही जगत-रचना के आरम्भ में था, वह परमात्मा ही अब मौजूद है, वह परमात्मा ही जगत के अंत में होगा।11। हे भाई! साध-संगति में टिक के गुरू का बताया हुआ हरी-नाम का जाप जपते हुए जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का दीया जल उठता है जिसको ये फल प्राप्त हो जाता है (उसको ये दिखाई दे जाता है कि) गुरू परमेश्वर (का रूप) है गुरू गोबिंद (का रूप) है, गुरू करतार (का रूप है) गुरू सदा बख्शिशें करने वाला है।12। जो पेखा सो सभु किछु सुआमी ॥ जो सुनणा सो प्रभ की बानी ॥ जो कीनो सो तुमहि कराइओ सरणि सहाई संतह तना ॥१३॥ जाचकु जाचै तुमहि अराधै ॥ पतित पावन पूरन प्रभ साधै ॥ एको दानु सरब सुख गुण निधि आन मंगन निहकिंचना ॥१४॥ काइआ पात्रु प्रभु करणैहारा ॥ लगी लागि संत संगारा ॥ निरमल सोइ बणी हरि बाणी मनु नामि मजीठै रंगना ॥१५॥ सोलह कला स्मपूरन फलिआ ॥ अनत कला होइ ठाकुरु चड़िआ ॥ अनद बिनोद हरि नामि सुख नानक अम्रित रसु हरि भुंचना ॥१६॥२॥९॥ {पन्ना 1080-1081} पद्अर्थ: पेखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। सभु किछु = हरेक चीज। बानी = बाणी, बोल। कीनो = किया। तुमहि = तू ही। सहाई = सहायता करने वाला। संतह तना = संतों का आसरा।13। जाचकु = मंगता। जरचै = माँगता है (एकवचन)। अराधै = आराधता है। पतित पावन = हे पतितों को पवित्र करने वाले! साधै = (तुझ) साध को। सरब सुख = हे सारे सुखों को देने वाले! गुण निधि = हे गुणों के खजाने! आन = (नाम के बिना) और। निह किंचना = कुछ भी नहीं, निकम्मा।14। पात्रु = योग्य बर्तन। काइआ = काया, शरीर। लागि = छू। संगारा = संगति में। सोइ = शोभा। हरि बाणी = प्रभू कीसिफति सालाह की बाणी के सदका। नामि = नाम में। मजीठै = मजीठ (के पक्के रंग) मे।15। सोलह कला = सोलह कला वाला, पूरी तौर पर। अनत = अनंत। अनत कला = बेअंत ताकतों वाला। चढ़िआ = (सूरज जैसे हृदय आकाश में) प्रकट हुआ। अनद बिनोद = आनंद खुशियां। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाल नाम रस। भुंचना = भोगता है, भुंचित करता है।16। अर्थ: हे भाई! (संसार में) मैं जो कुछ देखता हूँ सब कुछ मालिक-प्रभू (का ही रूप) है, जो कुछ मैं सुनता हूँ, प्रभू ही हर जगह स्वयं बोल रहा है। हे प्रभू! जो कुछ जीव करते हैं, वह तू ही कर रहा है। तू शरण पड़ने वालों की सहायता करने वाला है, तू (अपने) संतों का सहारा है।13। हे पतित-पावन प्रभू! हे पूरन साधु प्रभू! (तेरे दर का) मंगता (दास) तुझसे ही माँगता है तुझे ही आराधता है। हे सारे सुख देने वाले प्रभू! गुणों के खजाने प्रभू! (तेरा दास तुझसे) सिर्फ (तेरे नाम का) दान (ही माँगता है), और माँगें माँगना बेअर्थ हैं (निकम्मी हैं)।14। हे भाई! जिस मनुष्य को साध-संगति में छूह लग जाती है, समर्थ प्रभू उसके शरीर को (नाम की दाति हासिल करने के लिए) योग्य बर्तन बना देता है। परमात्मा की सिफत-सालाह वाली बाणी के द्वारा उस मनुष्य की अच्छी शोभा बन जाती है, उसका मन मजीठ (के पक्के रंग जैसे) नाम-रंग में रंगा जाता है।15। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय-आकाश में बेअंत ताकतों वाला प्रभू-सूर्य चढ़ जाता है (प्रभू प्रकट हो जाता है), उसका जीवन पूरी तौर पर सफल हो जाता है। हे नानक! हरी-नाम की बरकति से उस मनुष्य के अंदर आनंद व खुशियों के सुख बने रहते हैं, वह मनुष्य सदा आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-रस भोगता रहता है।16।2।9। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |