श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिमरहि थूल सूखम सभि जंता ॥ सिमरहि सिध साधिक हरि मंता ॥ गुपत प्रगट सिमरहि प्रभ मेरे सगल भवन का प्रभ धना ॥५॥ सिमरहि नर नारी आसरमा ॥ सिमरहि जाति जोति सभि वरना ॥ सिमरहि गुणी चतुर सभि बेते सिमरहि रैणी अरु दिना ॥६॥ सिमरहि घड़ी मूरत पल निमखा ॥ सिमरै कालु अकालु सुचि सोचा ॥ सिमरहि सउण सासत्र संजोगा अलखु न लखीऐ इकु खिना ॥७॥ करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा जिसु भगती लावहु जनमु पदारथु सो जिना ॥८॥ {पन्ना 1079}

पद्अर्थ: थूल = स्थूल, बड़े आकार वाला। सूखम = सूक्ष्म, बहुत ही छोटे आकार वाला। सभि = सारे। सिध = सिद्ध, जोग साधना में निपुन्न योगी। साधिक = योग साधना करने वाले साधक। मंता = मंत्र, जाप। गुपत प्रगट = दिखाई देते और ना दिखाई देते जीव। प्रभ = हे प्रभू! धना = धनी, मालिक।5।

आसरमा = चारों आश्रमों के प्राणी (ब्रहमचर्य, गृहस्त, वानप्रस्थ, सन्यास)। वरना = (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) चार वर्णों के प्राणी। सभि = सारे। गुनी = गुणवान। बेते = विद्वान। रैणी = रात।6।

मूरत = महूरत। निमखा = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। कालु = मौत। अकालु = जनम। सुचि = शरीरिक पवित्रता। सोचा = शौच, शारीरिक क्रिया साधनी। सउण सासत्र = ज्योतिष आदि के शास्त्र। अलखु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके।7।

करावनहार = (जीवों से) करवा सकने वाला। घट = हृदय। करि = कर के। जिना = जीतता।8।

अर्थ: हे मेरे प्रभू! बहुत बड़े आकार के शरीरों से ले के बहुत ही सूक्ष्म शरीरों वाले सारे जीव, सिद्ध और साधिक, दृश्य और अदृश्य सारे जीव तुझे ही सिमरते हैं। हे प्रभू! तू सारे भवनों का मालिक है।5।

हे भाई! चारों आश्रमों के नर और नारियाँ, सब जातियों और वर्णों के सारे प्राणी, गुणवान, चतुर सियाने सारे जीव परमात्मा को ही सिमरते हैं। (सारे जीव) रात और दिन हर वक्त उसी प्रभू को सिमरते हैं।6।

हे भाई! घड़ी महूरत पल निमख (आदि समय के बटवारे) प्रभू के हुकम-नियम में गुजरते जा रहे हैं। मौत प्रभू के हुकम में चल रही है, जनम प्रभू के हुकम में चल रहा है। सुच और शारीरिक क्रिया - ये भी कार हुकम में ही चल रही है। संजोग आदि बताने वाले ज्योतिष व अन्य शास्त्र उसके हुकम में ही चल रहे हैं। पर, प्रभू स्वयं ऐसा है कि उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, तिल मात्र भी बयान नहीं किया जा सकता।7।

हे सब कुछ आप कर सकने वाले और जीवों से करवा सकने वाले स्वामी! हे सब दिलों की जानने वाले प्रभू! तू मेहर करके जिस मनुष्य को अपनी भक्ति में लगाता है, वह इस कीमती मानस जन्म की बाजी जीत जाता है।8।

जा कै मनि वूठा प्रभु अपना ॥ पूरै करमि गुर का जपु जपना ॥ सरब निरंतरि सो प्रभु जाता बहुड़ि न जोनी भरमि रुना ॥९॥ गुर का सबदु वसै मनि जा कै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ सूख सहज आनंद नाम रसु अनहद बाणी सहज धुना ॥१०॥ सो धनवंता जिनि प्रभु धिआइआ ॥ सो पतिवंता जिनि साधसंगु पाइआ ॥ पारब्रहमु जा कै मनि वूठा सो पूर करमा ना छिना ॥११॥ जलि थलि महीअलि सुआमी सोई ॥ अवरु न कहीऐ दूजा कोई ॥ गुर गिआन अंजनि काटिओ भ्रमु सगला अवरु न दीसै एक बिना ॥१२॥ {पन्ना 1079}

पद्अर्थ: जा कै मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। वूठा = आ बसा। करमि = बख्शिश से। सरब निरंतरि = सबके अंदर। जाता = जान लिया। बहुड़ि = दोबारा, फिर। भरमि = भटक के। रुना = रोया, दुखी हुआ।9।

भ्रमु = भटकना। ता का = उस (मनुष्य) का। भागै = भाग जाता है (एक वचन)। सहज = आत्मिक अडोलता। अनहद = एक रस, लगातार। धुना = रौंअ।10।

जिनि = जिस (मनुष्य) ने। पतिवंता = इज्जत वाला। संगु = साथ। साध संगु = गुरू का साथ। पूर करंमा = पूरे भाग्यों वाला। छिना = गुप्त, छुपा हुआ। ना छिना = मशहूर।11।

जलि = जल में। थलि = धरती मे। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। कहीअै = बताया जा सकता। गुर गिआन अंजनि = गुरू के ज्ञान के सुरमे ने। सगला = सारा। दीसै = दिखता।12।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में प्यारा प्रभू आ बसता है, वह (प्रभू की) पूरी मेहर से गुरू का (बताया) नाम-जाप जपता है। वह मनुष्य उस प्रभू को सबके अंदर बसता पहचान लेता है, वह मनुष्य दोबारा जूनियों की भटकना में दुखी नहीं होता।9।

हे भाई! जिस मनुष्य के मन में गुरू का शबद टिक जाता है, उसका दुख उसका दर्द दूर हो जाता है,, उसकी भटकना समाप्त हो जाती है। उसके अंदर आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं, उसको परमात्मा के नाम का स्वाद आने लग पड़ता है, गुरबाणी की बरकति से उसके अंदर एक-रस आत्मिक अडोलता की धुनि (रौंअ) चलती रहती है।10।

हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभू का ध्यान धरा वह नाम-खजाने का मालिक बन गया, जिस मनुष्य ने गुरू का साथ हासिल कर लिया वह (लोक-परलोक में) इज्जत वाला हो गया। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसा, वह बड़ी किस्मत वाला हो गया वह (जगत में) प्रसिद्ध हो गया।11।

हे भाई! वही मालिक-प्रभू जल में धरती में आकाश में बसता है, उसके बिना कोई दूसरा बताया नहीं जा सकता। हे भाई! गुरू के ज्ञान के सुरमे ने (जिस मनुष्य की आँखों का) सारा भ्रम (-जाल) काट दिया, उसको एक परमात्मा के बिना (कहीं कोई) और नहीं दिखता।12।

ऊचे ते ऊचा दरबारा ॥ कहणु न जाई अंतु न पारा ॥ गहिर ग्मभीर अथाह सुआमी अतुलु न जाई किआ मिना ॥१३॥ तू करता तेरा सभु कीआ ॥ तुझु बिनु अवरु न कोई बीआ ॥ आदि मधि अंति प्रभु तूहै सगल पसारा तुम तना ॥१४॥ जमदूतु तिसु निकटि न आवै ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गावै ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन जो स्रवणी प्रभ का जसु सुना ॥१५॥ तू सभना का सभु को तेरा ॥ साचे साहिब गहिर ग्मभीरा ॥ कहु नानक सेई जन ऊतम जो भावहि सुआमी तुम मना ॥१६॥१॥८॥ {पन्ना 1079}

पद्अर्थ: ते = से। ऊचे ते ऊचा = सबसे ऊँचा। पारा = उस पार का किनारा। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। किआ मिना = मैं क्या मिण सकता हूँ? मैं गिन तौल नहीं सकता।13।

सभु = सारा जगत। बीआ = दूसरा। आदि मधि अंति = जगत रचना के शुरू में बीच में और आखिर में। तुम तना = तेरे शरीर का, तेरे तन का।14।

निकटि = नजदीक। साध संगि = गुरू की संगति में। ता के = उस मनुष्य के। स्रवणी = कानों से।15।

सभु को = हरेक जीव। साहिब = हे साहिब! सचे = हे सदा कायम रहने वाले! नानक = हे नानक! सोई जन = वही मनुष्य (बहुवचन)। सुआमी = हे स्वामी!

अर्थ: हे प्रभू! तेरा दरबार सब (दरबारों) से ऊँचा है, उसका आखिरी और उसका परला छोर बताया नहीं जा सकता। हे गहरे और अथाह (समुंद्र)! हे बड़े जिगरे वाले! हे मालिक! तू अतुल्य है, तुझे तोला नहीं जा सकता, तुझे मापा नहीं जा सकता।13।

हे प्रभू! तू पैदा करने वाला है, सारा जगत तेरा पैदा किया हुआ है। तेरे बिना (तेरे जैसा) कोई और दूसरा नहीं है। जगत के आरम्भ से आखिर तक तू सदा कायम रहने वाला है। ये सारा जगत पसारा तेरे ही अपने आप का है।14।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की संगति में रह के परमात्मा की सिफतसालाह के गीत गाता है, जमदूत उसके नजदीक नहीं आ सकता (मौत उसको डरा नहीं सकती। आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं आ सकती)। जो मनुष्य अपने कानों से प्रभू का यश सुनता रहता है, उसकी सारी जरूरतें पूरी हो जाती हैं।15।

हे प्रभू! तू सारे जीवों का (पति) है। हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। हे नानक! कह- (हे सदा कायम रहने वाले मालिक! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले प्रभू) वही मनुष्य श्रेष्ठ हैं जो तुझे अच्छे लगते हैं।16।1।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh