श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पारजातु लोड़हि मन पिआरे ॥ कामधेनु सोही दरबारे ॥ त्रिपति संतोखु सेवा गुर पूरे नामु कमाइ रसाइणा ॥६॥ गुर कै सबदि मरहि पंच धातू ॥ भै पारब्रहम होवहि निरमला तू ॥ पारसु जब भेटै गुरु पूरा ता पारसु परसि दिखाइणा ॥७॥ कई बैकुंठ नाही लवै लागे ॥ मुकति बपुड़ी भी गिआनी तिआगे ॥ एकंकारु सतिगुर ते पाईऐ हउ बलि बलि गुर दरसाइणा ॥८॥ गुर की सेव न जाणै कोई ॥ गुरु पारब्रहमु अगोचरु सोई ॥ जिस नो लाइ लए सो सेवकु जिसु वडभाग मथाइणा ॥९॥ गुर की महिमा बेद न जाणहि ॥ तुछ मात सुणि सुणि वखाणहि ॥ पारब्रहम अपर्मपर सतिगुर जिसु सिमरत मनु सीतलाइणा ॥१०॥ {पन्ना 1078}

पद्अर्थ: पारजातु = मनोकामना पूरी करने वाला वृक्ष (हिन्दू धर्म पुस्तकों के अनुसार स्वर्ग में पाँच ऐसे वृक्ष माने गए हैं)। मन = हे मन! लोड़हि = (अगर तू हासिल करना) चाहता है। कामधेनु = (धेनु = गाय) मन की कामना पूरी करने वाली गाय (ये भी स्वर्ग में रहने वाली मानी गई है)। सोही = शोभा दे। दरबारे = (तेरे) दर से। त्रिपति = तृप्ति। रसाइणा = (रस+आयन, रसों का घर) सब रसों का श्रोत।6।

कै सबदि = के शबद से। मरहि = मर जाते हैं। पंच धातू = (कामादिक) पाँच विषौ। भै पारब्रहम = परमात्मा के डर-अदब में (रह के)। होवहि तू = तू हो जाएगा। निरमल = पवित्र करने वाला। पारसु = और धातुओं को सोना बना देने वाला पत्थर। भेटै = मिलता है। परसि = छू के। दिखाइणा = (परमात्मा) दिख जाता है।7।

लवै लागे = बराबरी कर सकते। बपुड़ी = निमाणी, बेचारी। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाला। ते = से। हउ = मैं। बलि बलि = सदा सदके।8।

अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। मथाइणा = माथे पर।9।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक नो' के कारण हटा दी गई है।

महिमा = वडिआई, उच्च आत्मिकता। न जाणहि = नहीं जानते (बहुवचन)। तुछ मात = तुच्छ मात्र, बहुत ही थोड़ा। सुणि = सुन के। अपरंपर = परे से परे।10।

अर्थ: हे प्यारे मन! अगर तू (स्वर्ग का) पारजात (वृक्ष) हासिल करना चाहता है, यदि तू चाहता है कि कामधेनु तेरे दरवाजे पर शोभायमान हो, तो पूरे गुरू की शरण पड़ा रह, गुरू से पूर्ण संतोख प्राप्त कर, (गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के) नाम-सिमरन की कमाई कर, हरी-नाम ही सारे रसों का श्रोत है।6।

हे प्यारे मन! गुरू के शबद की बरकति सेकामादिक पाँचों विषौ मर जाते हैं, (गुरू के शबद से) परमात्मा के भय-अदब में रह के तू पवित्र हो जाएगा। (हे मन! गुरू ही) पारस है। जब पूरा गुरू पारस मिल जाता है, तो उस पारस को छूने से (परमात्मा हर जगह) दिखाई दे जाता है।7।

हे भाई! अनेकों बैकुंठ (गुरू के दर्शनों की) बराबरी नहीं कर सकते। जो मनुष्य (गुरू के द्वारा) परमात्मा के साथ सांझ डालता है, वह मुक्ति को भी एक तुच्छ सी वस्तु समझ के (इसकी लालसा) त्याग देता है। हे भाई! गुरू के माध्यम से परमात्मा के साथ मिलाप होता है। मैं तो गुरू के दर्शनों से सदा सदके हूँ सदा बलिहार हॅँ।8।

हे भाई! गुरू की शरण (पड़ने का क्या महातम है? - ये भेद निरे दिमागी तौर पर) कोई मनुष्य नहीं समझ सकता (शरण पड़ के ही समझ पड़ती है)। गुरू (आत्मिक जीवन में) वही परमात्मा में जो ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है। जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठें, जिसको (परमात्मा खुद गुरू के चरणों से) लगाता है वह गुरू का सेवक बनता है।9।

हे भाई! गुरू की उच्चात्मिकता वेद (भी) नहीं जानते, वे (औरों से) सुन-सुन के रक्ती-मात्र ही बयान कर सके हैं। हे भाई! गुरू (उच्च आत्मिकता में) वह परमात्मा ही है जो परे से परे हैं और जिसका नाम सिमरने से मन शीतल हो जाता है।10।

जा की सोइ सुणी मनु जीवै ॥ रिदै वसै ता ठंढा थीवै ॥ गुरु मुखहु अलाए ता सोभा पाए तिसु जम कै पंथि न पाइणा ॥११॥ संतन की सरणाई पड़िआ ॥ जीउ प्राण धनु आगै धरिआ ॥ सेवा सुरति न जाणा काई तुम करहु दइआ किरमाइणा ॥१२॥ निरगुण कउ संगि लेहु रलाए ॥ करि किरपा मोहि टहलै लाए ॥ पखा फेरउ पीसउ संत आगै चरण धोइ सुखु पाइणा ॥१३॥ बहुतु दुआरे भ्रमि भ्रमि आइआ ॥ तुमरी क्रिपा ते तुम सरणाइआ ॥ सदा सदा संतह संगि राखहु एहु नाम दानु देवाइणा ॥१४॥ भए क्रिपाल गुसाई मेरे ॥ दरसनु पाइआ सतिगुर पूरे ॥ सूख सहज सदा आनंदा नानक दास दसाइणा ॥१५॥२॥७॥ {पन्ना 1078}

पद्अर्थ: जा की = जिस (गुरू) की। सोइ = शोभा। सुणी = सुन के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। रिदै = हृदय में। थीवै = हो जाता है। गुरमुखहु = गुरू के मुंह से, गुरू की राह चल के। अलाऐ = (नाम) उचारे। जिसु = उस (मनुष्य) को। जम कै पंथि = जमराज के राह पर। न पाइणा = नहीं डालता।11।

पड़िआ = (मैं भी) पड़ा हूँ। जीउ = जिंद। आगै = गुरू के आगे। सुरति = सूझ। जाणा = मैं जानूँ। काई = (स्त्रीलिंग है। पुल्रिग है 'कोई')। किरमाइणा = क्रिमि पर, कीड़े पर।12।

निरगुण = गुण हीन। कउ = को। संगि = गुरू की संगति में। मोहि = मुझे। टहलै = गुरू की टहल मे। फेरउ = मैं फेरूँ। पीसहु = मैं पीसता हूँ। संत = गुरू। धोइ = धो के।13।

भ्रमि = भटक के। तों = साथ, से। तुम सरणाइआ = तेरी शरण। संगि = साथ।14।

गुसाई = मालिक। सहज = आत्मिक अडोलता। नानक = हे नानक! दास दसाइणा = दासों का दास।15।

अर्थ: हे भाई! जिस (गुरू) की शोभा सुन के मन आत्मिक जीवन प्राप्त करता है, अगर गुरू (मनुष्य के) हृदय में आ बसे, तो हृदय शांत हो जाता है। अगर मनुष्य गुरू के रास्ते पर चल के हरी-नाम सिमरे, तो मनुष्य (लोक-परलोक में) शोभा कमाता है, गुरू उस मनुष्य को जमराज के रास्ते पर नहीं पड़ने देता।11।

हे प्रभू! मैं भी तेरे संत जनों की शरण पड़ा हूँ, मैंने अपनी जिंद, अपने प्राण, अपना धन संत जनों के आगे ला रखा है। मैं सेवा-भगती करने की कोई सूझ नहीं जानता। मुझ निमाणे पर तू स्वयं ही किरपा कर।12।

हे प्रभू! मुझ गुण-हीन को गुरू की संगति में मिलाए रख। मुझे गुरू की सेवा अहल में जोड़े रख। मैं गुरू के दर पर पंखा फेरता रहूँ, (चक्की) पीसता रहूँ, और गुरू के चरण धो के आनंद लेता रहूं।13।

हे प्रभू! मैं दरवाजों पर भटक-भटक के आया हूँ। तेरी ही कृपा से (अब) तेरी शरण आया हूँ। मुझे सदा ही अपने संत जनों की संगति में रख, और उनसे अपने नाम की खैर डलवा।14।

हे नानक! (कह- हे भाई!) जब (अब) मेरा मालिक प्रभू दयावान हुआ, तो मुझे पूरे गुरू के दर्शन हुए। अब मेरे अंदर सदा आत्मिक अडोलता और सुख-आनंद बने रहते हैं। मैं उसके दासों का दास बना रहता हूँ।15।2।7।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिमरै धरती अरु आकासा ॥ सिमरहि चंद सूरज गुणतासा ॥ पउण पाणी बैसंतर सिमरहि सिमरै सगल उपारजना ॥१॥ सिमरहि खंड दीप सभि लोआ ॥ सिमरहि पाताल पुरीआ सचु सोआ ॥ सिमरहि खाणी सिमरहि बाणी सिमरहि सगले हरि जना ॥२॥ सिमरहि ब्रहमे बिसन महेसा ॥ सिमरहि देवते कोड़ि तेतीसा ॥ सिमरहि जख्यि दैत सभि सिमरहि अगनतु न जाई जसु गना ॥३॥ सिमरहि पसु पंखी सभि भूता ॥ सिमरहि बन परबत अउधूता ॥ लता बली साख सभ सिमरहि रवि रहिआ सुआमी सभ मना ॥४॥ {पन्ना 1078-1079}

पद्अर्थ: सिमरै = सिमरता है, हर वक्त याद रखता है, रजा में चलता है। अरु = और। सिमरहि = सिमरते हैं (बहुवचन)। गुणतासा = गुणों का खजाना परमात्मा। पउण = पवन। बैसंतर = आग। सगल = सारी। उपारजना = सृष्टि।1।

दीप = द्वीप, टापू। सभि = सारे। लोआ = मण्डल (लोक)। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सचु सोआ = उस सदा स्थिर प्रभू को। खाणी = (अण्डज, जेरज सेतज उत्भुज आदि) खाणियां। बाणी = सब बोलियों (के बोलने वाले)।2।

ब्रहमे = (बहुवचन) अनेको ब्रहमा। बिसन = (बहुवचन)। महेसा = शि। कोड़ि तैतीसा = तेतिस करोड़। जखि् = जख (देवताओं की एक श्रेणी)। अगनतु = अनगिनत, वह परमात्मा जिसके गुण गिने नहीं जा सकते। जसु = सिफत सालाह। न जाई गना = गिना नहीं जा सकता।3।

सभि भूता = सारे जीव। परबत अउधूता = नांगे साधूओं की तरह अडोल टिके हुए पर्वत। लता = वेल। बली = (वल्ली) वेल। शाख = शाखा। रवि रहिआ = व्यापक है। सभ मना = सारे मनों में।4।

अर्थ: हे भाई! धरती परमात्मा की रजा में चल रही है आकाश उसकी रजा में है। चाँद और सूरज उस गुणों के खजाने प्रभू की रजा में चल रहे हैं। हवा पानी आग (आदिक तत्व) प्रभू की रजा में काम करि रहे हैं। सारी सृष्टि उसकी रजा में काम कर रही है।1।

हे भाई! सारे खंड, द्वाीप, मण्डल, पाताल और सारियां पुरियां, सारी खाणियों और बाणियों (के जीव), सारे प्रभू के सेवक सदा-स्थिर प्रभू की रजा में बरत रहे हैं।2।

हे भाई! अनेकों ब्रहमा, विष्णु और शिव, तैतिस करोड़ देवतागण, सारे जख और दैत्य उस अगनत प्रभू को हर वक्त याद कर रहे हैं। उसकी सिफतसालाह का अंत नहीं पाया जा सकता।3।

हे भाई! सारे पशु, पक्षी आदि जीव, जंगल और अडोल टिके हुए पहाड़, वेलें वृक्षों की शाखाएं, सब परमात्मा की रजा में काम कर रहे हैं। हे भाई! मालिक-प्रभू सब जीवों के मनों में बस रहा है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh