श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1077 सदा सदा सद होवणहारा ॥ ऊचा अगमु अथाहु अपारा ॥ ऊणे भरे भरे भरि ऊणे एहि चलत सुआमी के कारणा ॥५॥ मुखि सालाही सचे साहा ॥ नैणी पेखा अगम अथाहा ॥ करनी सुणि सुणि मनु तनु हरिआ मेरे साहिब सगल उधारणा ॥६॥ करि करि वेखहि कीता अपणा ॥ जीअ जंत सोई है जपणा ॥ अपणी कुदरति आपे जाणै नदरी नदरि निहालणा ॥७॥ संत सभा जह बैसहि प्रभ पासे ॥ अनंद मंगल हरि चलत तमासे ॥ गुण गावहि अनहद धुनि बाणी तह नानक दासु चितारणा ॥८॥ {पन्ना 1077} पद्अर्थ: सद = सदा। होवणहारा = कायम रह सकने वाला। अगमु = अपहुँच। अपारा = बेअंत। ऊणे = कम। भरि = भर के। ऐहि = ('एह' का बहुवचन)। चलत = (बहुवचन) करिश्में।5। मुखि = मुँह से। सालाही = मैं सिफॅतसालाह करूँ। सचे साहा = हे सदा स्थिर शाह! नैणी = आँखों से। पेखा = देखूँ। करनी = कानों से। सुणि = सुन के। साहिब = हे साहिब! सगल = सारे जीव।6। वेखहि = तू देखता है, संभाल करता है। करि = (पैदा) करके। सोई = उस परमात्मा को ही। आपे = आप ही। नदरी = मेहर की निगाह वाला। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालणा = देखता है।7। संत सभा = साधसंगति। जह = जहाँ। बैसहि = बैठते हैं (बहुवचन)। प्रभ पासे = प्रभू के पास, प्रभू के चरणों में। मंगल = खुशियां। गावहि = गाते हैं। अनहदि धुनि = एक रस सुर से। तह = वहाँ। चितारणा = चेते करता है।8। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा ही सदा ही जीवित रहने वाला है, (आत्मिक अवस्था में) वह बहुत ऊँचा है, अपहुँच है, अथाह है, बेअंत है। उस मालिक प्रभू के ये करिश्मे-तमाशे हैं कि खाली (बर्तन) भर देता है और भरों को खाली कर देता है।5। हे सदा कायम रहने वाले पातशाह! (मेहर कर) मैं मुँह से तेरी सिफतसालाह करता रहूँ। हे अपहुँच और अथाह प्रभू! (कृपा कर, हर जगह) मैं (तुझे) आँखों से देखूँ। कानों से तेरी सिफतसालाह सुन-सुन के मेरा मन मेरा तन (आत्मिक जीवन से) हरा-भरा हुआ रहे। हे मेरे मालिक! तू सब जीवों का बेड़ा पार करने वाला है।6। हे प्रभू! तू सब जीवों को पैदा कर-कर के अपने पैदा किए हुओं की संभाल करने वाला है। हे भाई! सारे जीव-जंतु उसी सृजनहार को जपते हैं। अपनी कुदरति (पैदा करने की ताकत) को खुद ही जानता है। मेहर का मालिक प्रभू मेहर की निगाह से सबकी ओर देखता है।7। हे भाई! जिस साध-संगति में (संत जन) प्रभू के चरणों में बैठते हैं, प्रभू के करिश्मों-तमाशों का जिकर करके आत्मिक आनंद खुशियाँ लेते हैं, और एक-रस सुर में बाणी के द्वारा प्रभू के गुण गाते हैं, (यदि प्रभू की मेहर हो तो) उस साध-संगति में दास नानक भी उसके गुण अपने दिल में बसाए।8। आवणु जाणा सभु चलतु तुमारा ॥ करि करि देखै खेलु अपारा ॥ आपि उपाए उपावणहारा अपणा कीआ पालणा ॥९॥ सुणि सुणि जीवा सोइ तुमारी ॥ सदा सदा जाई बलिहारी ॥ दुइ कर जोड़ि सिमरउ दिनु राती मेरे सुआमी अगम अपारणा ॥१०॥ तुधु बिनु दूजे किसु सालाही ॥ एको एकु जपी मन माही ॥ हुकमु बूझि जन भए निहाला इह भगता की घालणा ॥११॥ गुर उपदेसि जपीऐ मनि साचा ॥ गुर उपदेसि राम रंगि राचा ॥ गुर उपदेसि तुटहि सभि बंधन इहु भरमु मोहु परजालणा ॥१२॥ {पन्ना 1077} पद्अर्थ: आवणु जाणा = (जीवों का) पैदा होना और मरना। चलतु = तमाशा, खेल। करि = पैदा कर के। अपारा = बेअंत प्रभू। उपावणहारा = पैदा करने की समर्था वाला। कीआ = पैदा किए हुए को।9। सुणि = सुन के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। सोइ = खबर, शोभा। जाई = मैं जाता हूँ। दुइ कर = दोनों हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। सिमरउ = सिमरूँ, मैं सिमरता हूँ। अपारणा = हे अपार!।10। सालाही = मैं सालाहूँ। जपी = जपूँ। माही = में। बूझि = समझ के। जन = प्रभू के सेवक। निहाला = प्रसन्न। घालणा = मेहनत, कमाई।11। उपदेसि = उपदेश से। जपीअै = जपना चाहिए। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर प्रभू। रंगि = प्रेम रंग में। राचा = रच मिच जाता है। तूटहि = टूट जाते हैं (बहुवचन)। सभि = सारे। परजालणा = अच्छी तरह जल जाता है।12। अर्थ: हे प्रभू! (जीवों का) पैदा होने और मरना- ये सारा तेरा (रचा हुआ) खेल है। हे भाई! बेअंत प्रभू ये खेल कर कर के देख रहा है। पैदा करने की समर्थता वाला प्रभू स्वयं (जीवों को) पैदा करता है। अपने पैदा किए हुए (जीवों) को (स्वयं ही) पालता है।9। हे प्रभू! तेरी शोभा सुन-सुन के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ, मैं तुझसे सदा ही सदके जाता हूँ। हे मेरे अपहुँच और बेअंत मालिक! (जब तेरी मेहर होती है) मैं दोनों हाथ जोड़ के दिन-रात तुझे सिमरता हूँ।10। हे प्रभू! तुझे छोड़ के मैं किसी और की सिफतसालाह नहीं कर सकता। मैं अपने मन में सिर्फ एक तुझे ही जपता हूँ। तेरे सेवक तेरी रज़ा को समझ के सदा प्रसन्न रहते हैं - ये है तेरे भक्तों की घाल-कमाई।11। हे भाई! गुरू के उपदेश से मन में सदा-स्थिर प्रभू का नाम जपना चाहिए। गुरू के उपदेश पर चल के मन प्रभू के प्रेम-रंग में रंगा रहता है। हे भाई! गुरू के उपदेश की बरकति से (मनुष्य के अंदर से माया-मोह के) सारे बँधन टूट जाते हैं। मनुष्य की यह भटकना, मनुष्य का यह मोह अच्छी तरह जल जाता है।12। जह राखै सोई सुख थाना ॥ सहजे होइ सोई भल माना ॥ बिनसे बैर नाही को बैरी सभु एको है भालणा ॥१३॥ डर चूके बिनसे अंधिआरे ॥ प्रगट भए प्रभ पुरख निरारे ॥ आपु छोडि पए सरणाई जिस का सा तिसु घालणा ॥१४॥ ऐसा को वडभागी आइआ ॥ आठ पहर जिनि खसमु धिआइआ ॥ तिसु जन कै संगि तरै सभु कोई सो परवार सधारणा ॥१५॥ इह बखसीस खसम ते पावा ॥ आठ पहर कर जोड़ि धिआवा ॥ नामु जपी नामि सहजि समावा नामु नानक मिलै उचारणा ॥१६॥१॥६॥ {पन्ना 1077} पद्अर्थ: जह = जहाँ। राखै = (परमात्मा हमें) रखता है। सुख थाना = सुख देने वाली जगह। सहज = प्रभू की रजा में ही। भला = भला। माना = मानता है। बैर = (सारे) वैर। सभु = हर जगह। ऐको = एक परमात्मा को ही।13। चूके = समाप्त हो गए। अंधिआरे = (आत्मिक जीवन की राह के) अंधेरे। निरारे = निराला, निर्लिप। आपु = स्वै भाव। छोडि = त्याग के। जिस का = जिस (प्रभू) का ('जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है)। सा = था, है। तिसु घालणा = उस (प्रभू के नाम) की घाल कमाई।14। को = कोई (विरला) मनुष्य। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै संगि = के साथ, की संगति में। सभु कोई = हरेक जीव। सधारणा = आसरा देने वाला।15। बखसीस = दाति। ते = से। पावा = पाऊँ, हासिल करूँ। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। धिआवा = मैं सिमरता रहूँ। जपी = जपूँ। नामि = नाम में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावा = समाया रहूँ।16। अर्थ: हे भाई! ('अैसा को वडभागी आइआ' जो ये निश्चय रखता है कि) जहाँ (परमात्मा हमें) रखता है वही (हमारे लिए) सुख देने वाली जगह है, (जो मनुष्य) जो कुछ रजा में हो रहा है उसको भलाई के लिए मानता है, (जिस मनुष्य के अंदर से) सारे वैर-विरोध मिट जाते हैं, (जिसको जगत में) कोई वैरी नहीं दिखता, (जो) हर जगह सिर्फ परमात्मा को ही देखता है।13। हे भाई! ('अैसा को वडभागी आइआ', जिसके अंदर से) सारे भय समाप्त हो जाते हैं, आत्मिक जीवन के रास्ते के सारे अंधेरे दूर हो जाते हैं, (जिसके अंदर) निर्लिप प्रभू प्रकट हो जाता है, (जो मनुष्य) स्वैभाव दूर करके परमात्मा की शरण पड़ता है, जिस प्रभू का पैदा किया हुआ है उसी (के सिमरन) की घाल-कमाई करता है।14। हे भाई! कोई विरला ही ऐसा भाग्यशाली मनुष्य पैदा होता है, जो आठों पहर मालिक-प्रभू का नाम याद करता है। उस मनुष्य की संगति में (रह के) हरेक मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है, वह मनुष्य अपने परिवार के लिए सहारा बन जाता है।15। हे नानक! (कह-हे भाई! अगर मेरे मालिक की मेरे ऊपर मेहर हो तो) मैं उस मालिक से ये दाति हासिल करूँ कि आठों पहर दोनों हाथ जोड़ के उसका नाम सिमरता रहूँ, उसका नाम जपता रहूँ, उसके नाम में आत्मिक अडोलता में लीन रहूँ, मुझे उसका नाम जपने की दाति मिली रहे।16।1।6। मारू महला ५ ॥ सूरति देखि न भूलु गवारा ॥ मिथन मोहारा झूठु पसारा ॥ जग महि कोई रहणु न पाए निहचलु एकु नाराइणा ॥१॥ गुर पूरे की पउ सरणाई ॥ मोहु सोगु सभु भरमु मिटाई ॥ एको मंत्रु द्रिड़ाए अउखधु सचु नामु रिद गाइणा ॥२॥ जिसु नामै कउ तरसहि बहु देवा ॥ सगल भगत जा की करदे सेवा ॥ अनाथा नाथु दीन दुख भंजनु सो गुर पूरे ते पाइणा ॥३॥ होरु दुआरा कोइ न सूझै ॥ त्रिभवण धावै ता किछू न बूझै ॥ सतिगुरु साहु भंडारु नाम जिसु इहु रतनु तिसै ते पाइणा ॥४॥ जा की धूरि करे पुनीता ॥ सुरि नर देव न पावहि मीता ॥ सति पुरखु सतिगुरु परमेसरु जिसु भेटत पारि पराइणा ॥५॥ {पन्ना 1077-1078} पद्अर्थ: सूरति = शक्ल। देखि = देख के। गवारा = हे मूर्ख! मिथन = झूठा। मोहारा = मोह का। पसारा = खिलारा। निहचलु = सदा कायम रहने वाला।1। सभु भरमु = हरेक किस्म का भरम। मिटाई = (गुरू) मिटाता है। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्का करता है। अउखधु = दवा, औषधि। सचु = सदा सि्fार। रिद = हृदय में।2। जिसु नामै कउ = जिस के नाम को। जा की = जिस प्रभू की। दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला।3। दुआरा = दरवाजा, दर। त्रिभवण = तीनों भवनों में। धावै = (जो) दौड़ता फिरे। भंडारु = खजाना। तिसै ते = उस (गुरू) से ही।4। पुनीता = पवित्र। सुर = स्वर्ग के रहने वाले। नर = मनुष्य। मीता = हे मित्र! 5। अर्थ: हे मूर्ख! (जगत के पदार्थों की) सूरत देख के गलती ना खा। ये सारा झूठे मोह का झूठा पसारा है। जगत में कोई भी सदा के लिए टिका नहीं रह सकता, सिर्फ एक परमात्मा सदा कायम रहने वाला है।1। हे भाई! पूरे गुरू की शरण पड़ा रह। गुरू (शरण पड़े मनुष्य का) मोह-सोग और सारा भरम मिटा देता है। गुरू एक ही उपदेश हृदय में बसाता है, एक ही दवाई देता है कि हृदय में सदा कायम रहने वाला हरी-नाम सिमरना चाहिए।ै2। हे भाई! जिस परमात्मा के नाम को अनेकों देवते तरसते हैं, सारे ही भगत जिस प्रभू की सेवा-भक्ति करते हैं, जो परमात्मा निखस्मों का खसम हैं, जो परमात्मा गरीबों के दुख नाश करने वाला है, वह परमात्मा पूरे गुरू से मिलता है।3। हे भाई! और कोई दर (ऐसा) नहीं सूझता (जहाँ से रतन-नाम मिल सके)। यदि मनुष्य तीनों भवनों में दौड़-भाग करता फिरे तो भी उसको नाम-रतन की कोई सूझ नहीं पड़ सकती। एक गुरू ही ऐसा शाह है जिसके पास नाम का खजाना है। उस गुरू से नाम-रतन मिल सकता है।4। हे भाई! जिस (प्रभू) की चरण-धूल पवित्र कर देती है, हे मित्र! उसको देवते मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकते। सिर्फ हरी-रूप गुरू पुरख ही है जिसको मिलने से (संसार-समुंद्र से) पार लांघा जा सकता है।5। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |