श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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इकु जाचिकु मंगै दानु दुआरै ॥ जा प्रभ भावै ता किरपा धारै ॥ देहु दरसु जितु मनु त्रिपतासै हरि कीरतनि मनु ठहराइदा ॥९॥ रूड़ो ठाकुरु कितै वसि न आवै ॥ हरि सो किछु करे जि हरि किआ संता भावै ॥ कीता लोड़नि सोई कराइनि दरि फेरु न कोई पाइदा ॥१०॥ जिथै अउघटु आइ बनतु है प्राणी ॥ तिथै हरि धिआईऐ सारिंगपाणी ॥ जिथै पुत्रु कलत्रु न बेली कोई तिथै हरि आपि छडाइदा ॥११॥ वडा साहिबु अगम अथाहा ॥ किउ मिलीऐ प्रभ वेपरवाहा ॥ काटि सिलक जिसु मारगि पाए सो विचि संगति वासा पाइदा ॥१२॥ {पन्ना 1076}

पद्अर्थ: जाचिकु = मंगता (एक वचन)। दुआरै = दर पे (खड़ा)। जा = या, जब। प्रभ भावै = प्रभू को अच्छा लगे। जितु = जिस (दर्शन) से। त्रिपतासै = तृप्त हो जाता है। कीरतनि = । रूढ़ो = सुंदर। कितै = किसी तरीके से। वसि = वश में। जि = जो कुछ। कीता लोड़नि = करना चाहते हैं। कराइनि = करा लेते हैं। दरि = दर से। फेरु = रुकावट।10।

अउघट = मुश्किल। धिआईअै = सिमरना चाहिए। सारिंगपाणी = धर्नुधारी प्रभू (सारिंग = धनुष। पानी = पाणि, हाथ)। कलत्र = स्त्री।11।

अगम = अपहुँच। अथाहा = गहरा। वेपरवाह = बेमुथाज। काटि = काट के। सिलक = फाही। मारगि = (सही) रास्ते पर।12।

अर्थ: (प्रभू का दास) एक मँगता (बन के उसके) दर पर (खड़ा उसके दर्शनों की) ख़ैर माँगता है। जब प्रभू की रजा होती है तब वह किरपा करता है। (मँगता यूँ माँगता जाता है- हे प्रभू!) अपने दर्शन दे, जिसकी बरकति से मन (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है और सिफतसालाह में टिक जाता है।9।

हे भाई! सुंदर प्रभू किसी तरीके से वश में नहीं आता पर जो कुछ उसके संत चाहते हैं वह वही कुछ कर देता है। (प्रभू के संत जन जो कुछ) करना चाहते हैं वही कुछ प्रभू से करवा लेते हैं। प्रभू के दर पे उनके रास्ते में कोई रुकावट नहीं डाल सकता।10।

हे प्राणी! (जीवन-सफर में) जहाँ भी कोई मुश्किल आ बनती है, वहीं धर्नुधारी प्रभू का नाम सिमरना चाहिए। जहाँ ना पुत्र ना स्त्री कोई भी साथी नहीं बन सकता, वहाँ प्रभ स्वयं (मुश्किलों से) छुड़ा लेता है।11।

हे भाई! परमात्मा अपहुँच है, अथाह है, बड़ा मालिक है। उस बेमुहताज को जीव अपने उद्यम से नहीं मिल सकता। वह प्रभू स्वयं ही जिस मनुष्य को (माया के मोह की) फाही काट के सही जीवन-राह पर डालता है, वह मनुष्य साध-संगति में आ टिकता है।12।

हुकमु बूझै सो सेवकु कहीऐ ॥ बुरा भला दुइ समसरि सहीऐ ॥ हउमै जाइ त एको बूझै सो गुरमुखि सहजि समाइदा ॥१३॥ हरि के भगत सदा सुखवासी ॥ बाल सुभाइ अतीत उदासी ॥ अनिक रंग करहि बहु भाती जिउ पिता पूतु लाडाइदा ॥१४॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥ गुरमुखि प्रगटु भइआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाइदा ॥१५॥ तू आपे करता कारण करणा ॥ स्रिसटि उपाइ धरी सभ धरणा ॥ जन नानकु सरणि पइआ हरि दुआरै हरि भावै लाज रखाइदा ॥१६॥१॥५॥ {पन्ना 1076}

पद्अर्थ: बूझै = (जो मनुष्य) समझ लेता है। कहीअै = कहा जाता है। दुइ = दोनों। समसरि = बराबर, एक समान। सहीअै = सहना चाहिए। जाइ = जाती है। त = तब। ऐको बूझै = एक परमात्मा को ही सब कुछ करने कराने वाला समझता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में।13।

सुख वासी = आत्मिक आनंद में टिके रहने वाले। बाल सुभाइ = बालक जैसे स्वभाव में, वैर विरोध से परे रह के। अतीत = विरक्त। करहि = करते हैं। लाडाइदा = लाड कराता है।14।

अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां) ज्ञान इन्द्रियों की पहॅुंच से परे। जा = या, जब। गुरमुखि = गुरू से। जिन मसतकि = जिन के माथे पर। धुरि = धुर से, प्रभू के हुकम अनुसार। लेखु = किए कर्मों के अनुसार भाग्यों में लिखे लेख।15।

करता = पैदा करने वाला। करणा = करण, जगत। कारण = मूल। धरी = आसरा दिया हुआ है। धरणा = धरती। हरि दुआरै = हरी के दर पे। हरि भावै = जो हरी को अच्छी लगे। लाज = इज्जत।16।

अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य परमात्मा का भगत कहा जाता है, जो (हरेक हो रही कार को परमात्मा की) समझता है (और, यह निश्चय रखता है कि) दुख (आए चाहे) सुख, दोनों को एक समान सहना चाहिए। पर मनुष्य तब ही सिर्फ परमात्मा को सब कुछ करने-कराने में समर्थ समझता है जब उसके अंदर से अहंकार दूर होता है। वह मनुष्य गुरू के सन्मुख रह के आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।13।

हे भाई! परमात्मा के भगत सदा आत्मिक आनंद लेते हैं। वे सदा वैर-विरोध से परे रहते हैं, विरक्त और माया के मोह से ऊपर रहते हैं। जैसे पिता अपने पुत्र को कई लाड लडाता है, (वैसे ही भगत प्रभू-पिता की गोद में रह के) कई तरह के अनेकों आत्मिक रंग (का आनंद) लेते हैं।14।

हे भाई! परमात्मा अपहुँच है, ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है। वह किसी भी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। उसे तभी मिला जा सकता है, जब वह स्वयं ही मिलाता है। गुरू के माध्यम से उन मनुष्यों के हृदय में प्रकट होता है जिनके माथे पर (पूर्बले संस्कारों के अनुसार) धुर से ही मिलाप का लेख लिखा होता है।15।

हे प्रभू! तू स्वयं ही पैदा करने वाला है, तू खुद ही जगत का मूल है। तूने स्वयं ही सृष्टि पैदा करके सारी धरती को सहारा दिया हुआ है।

हे भाई! दास नानक उसी प्रभू के दर पर (गिरा हुआ है, उसी की) शरण पड़ा हुआ है। उसकी अपनी रज़ा होती है तो (लोक-परलोक में जीव की) इज्जत रख लेता है।16।1।5।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जो दीसै सो एको तूहै ॥ बाणी तेरी स्रवणि सुणीऐ ॥ दूजी अवर न जापसि काई सगल तुमारी धारणा ॥१॥ आपि चितारे अपणा कीआ ॥ आपे आपि आपि प्रभु थीआ ॥ आपि उपाइ रचिओनु पसारा आपे घटि घटि सारणा ॥२॥ इकि उपाए वड दरवारी ॥ इकि उदासी इकि घर बारी ॥ इकि भूखे इकि त्रिपति अघाए सभसै तेरा पारणा ॥३॥ आपे सति सति सति साचा ॥ ओति पोति भगतन संगि राचा ॥ आपे गुपतु आपे है परगटु अपणा आपु पसारणा ॥४॥ {पन्ना 1076}

पद्अर्थ: दीसै = दिख रहा है। ऐको तू है = सिर्फ तू ही तू है। बाणी = आवाज। स्रवणि = कानों से। सुणीअै = सुनी जा रही है। अवर = और। काई = ('कोई' पुलिंग है, और 'काई' स्त्रीलिंग)। सगल = सारी सृष्टि। धारणा = आसरा दिया हुआ है।1।

चितारे = संभाल करता है, ख्याल रखता है। कीआ = पैदा किया हुआ (जगत)। आपे = स्वयं ही। थीआ = (हर जगह मौजूद) है। उपाइ = पैदा करके। रचिओनु = उस (प्रभू) ने रचा है। पसारा = जगत खिलारा। घटि घटि = हरेक घट में। सारणा = सार लेता है।2।

इकि = ('इक' का बहुवचन) कई। दरवारी = दरबार वाले। उदासी = विरक्त। घरबारी = गृहस्ती। भूखे = तृष्णा के अधीन। त्रिपति अघाऐ = पूरी तौर पर तृप्त। सभसै = हरेक जीव को। पारणा = परना, आसरा।3।

सति = सत्य, सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। ओति पोति = ताने पेटे में (ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ)। संगि = साथ। राचा = रचा मिचा, मिला हुआ। गुपतु = छुपा हुआ। आपु = अपने आप को। पसारणा = खिरा हुआ है।4।

अर्थ: हे प्रभू! (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सब कुछ सिर्फ तू ही तू है। (सब जीवों में सिर्फ तू ही बोल रहा है) तेरे ही बोल कानों से सुने जा रहे हैं। सारी सृष्टि तेरी ही रची हुई है, कोई भी चीज तुझसे अलग नहीं दिख रही।1।

हे भाई! अपने पैदा किए जगत की प्रभू स्वयं ही संभाल कर रहा है, हर जगह प्रभू स्वयं ही स्वयं है। प्रभू ने स्वयं ही अपने आप से पैदा करके ये जगत-पसारा रचा है। हरेक शरीर में स्वयं ही (व्यापक होके सबकी) सार लेता है।2।

हे प्रभू! तूने कई बड़े दरबारों वाले पैदा किए हैं, कई त्यागी और कई गृहस्ती बना दिए हैं। तूने कई तो ऐसे पैदा किए हैं जो सदा तृष्णा के अधीन रहते हैं, और कई पूरी तरह से तृप्त हैं। हरेक जीव को तेरा ही सहारा है।3।

हे भाई! परमात्मा सिर्फ स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है। ताने-पेटे की तरह अपले भक्तों के साथ रचा-मिला रहता है। (जीवात्मा के रूप में हरेक जीव के अंदर) खुद ही छुपा हुआ है, यह दिखाई देता पसारा भी वह खुद ही है। (जगत-रूप में) उसने अपने आप को खुद ही खिलारा हुआ है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh