श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अगमु अगोचरु गुरू दिखाइआ ॥ भूला मारगि सतिगुरि पाइआ ॥ गुर सेवक कउ बिघनु न भगती हरि पूर द्रिड़्हाइआ गिआनां हे ॥५॥ गुरि द्रिसटाइआ सभनी ठांई ॥ जलि थलि पूरि रहिआ गोसाई ॥ ऊच ऊन सभ एक समानां मनि लागा सहजि धिआना हे ॥६॥ गुरि मिलिऐ सभ त्रिसन बुझाई ॥ गुरि मिलिऐ नह जोहै माई ॥ सतु संतोखु दीआ गुरि पूरै नामु अम्रितु पी पानां हे ॥७॥ गुर की बाणी सभ माहि समाणी ॥ आपि सुणी तै आपि वखाणी ॥ जिनि जिनि जपी तेई सभि निसत्रे तिन पाइआ निहचल थानां हे ॥८॥ सतिगुर की महिमा सतिगुरु जाणै ॥ जो किछु करे सु आपण भाणै ॥ साधू धूरि जाचहि जन तेरे नानक सद कुरबानां हे ॥९॥१॥४॥ {पन्ना 1075}

पद्अर्थ: अगमु = अपहुँच प्रभू। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मारगि = (सही जीवन-) राह पर। सतिगुरि = गुरू ने। कउ = को। बिघनु = रुकावट। भगती = भक्ति के कारण। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का किया। गिआन = परमात्मा के साथ गहरी सांझ।5।

गुरि = गुरू ने। द्रिसटाइआ = दिखा दिया। जलि = जल में। थलि = धरती में। पूरि रहिआ = व्यापक हो के। गोसाई = सृष्टि का मालिक प्रभू। ऊन = खाली। मनि = मन में। सहजि = आत्मिक अडोलता से।6।

गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। नह जोहै = देख नहीं सकती, घूर नहीं सकती। माई = माया। सतु संतोखु = सेवा और संतोख। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। पानां = पिलाता है।7।

सभ माहि समाणी = सब जीवों के हृदय में टिकने योग्य है। तै = और। जिनि जिनि = जिस जिस ने। तेई सभि = वह सारे ही। निसत्रे = (संसार समुंद्र से) पार लांघ गए। तिन = उन्होंने (बहुवचन)।8।

महिमा = वडिआई, बड़ा जिगरा। भाणै = रजा में। साधू धूरि = गुरू की चरण धूड़। जाचहि = मांगते हैं (बहुवचन)। सद = सदा।9।

अर्थ: हे भाई! कुमार्ग पर जा रहे मनुष्य को गुरू ने ही (सदा) सही जीवन-राह पर डाला है, गुरू ने ही उसको अपहुँच और अगोचर परमात्मा के दर्शन करवाए हैं। भगती की बरकति से गुरू के सेवक के जीवन-सफर में कोई रुकावट नहीं पड़ती गुरू ही पूर्ण परमात्मा के साथ गहरी सांझ सेवक के हृदय में पक्की करता है।5।

हे भाई! गुरू ने (ही सेवक को परमात्मा) सब जगह बसता दिखाया है (और बताया है कि) सृष्टि का मालिक जल में धरती में (हर जगह) व्यापक है, ऊँची और खाली सब जगहों पर एक समान ही व्यापक है। (गुरू के माध्यम से ही सेवक के) मन में आत्मिक अडोलता की बरकति से प्रभू-चरणों में सुरति जुड़ती है।6।

यदि मनुष्य को गुरू मिल जाए तो वह (मनुष्य के अंदर से) सारी तृष्णा (की आग) बुझा देता है, मनुष्य पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। (जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने सत और संतोख बख्शा,) वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल खुद पीता है व औरों को भी पिलाता है।7।

हे भाई! गुरू की बाणी सब जीवों के हृदय में टिकने योग्य है, गुरू ने (परमात्मा से) खुद सुनी और (दुनिया के जीवों को) खुद सुनाई है। जिस जिस मनुष्य ने यह बाणी हृदय में बसाई है, वह सारे संसार-समुंद्र से पार लांघ गए, उन्होंने वह आत्मिक ठिकाना हासिल कर लिया है जो (माया के प्रभाव तहत) डोलता नहीं है।8।

हे भाई! गुरू की उच्च-आत्मिकता गुरू (ही) जानता है (गुरू ही जानता है कि परमात्मा) जो कुछ करता है अपनी रजा में करता है। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) तेरे सेवक गुरू के चरणों की धूल माँगते हैं और (गुरू से) सदा सदके जाते हैं।9।1।4।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आदि निरंजनु प्रभु निरंकारा ॥ सभ महि वरतै आपि निरारा ॥ वरनु जाति चिहनु नही कोई सभ हुकमे स्रिसटि उपाइदा ॥१॥ लख चउरासीह जोनि सबाई ॥ माणस कउ प्रभि दीई वडिआई ॥ इसु पउड़ी ते जो नरु चूकै सो आइ जाइ दुखु पाइदा ॥२॥ कीता होवै तिसु किआ कहीऐ ॥ गुरमुखि नामु पदारथु लहीऐ ॥ जिसु आपि भुलाए सोई भूलै सो बूझै जिसहि बुझाइदा ॥३॥ हरख सोग का नगरु इहु कीआ ॥ से उबरे जो सतिगुर सरणीआ ॥ त्रिहा गुणा ते रहै निरारा सो गुरमुखि सोभा पाइदा ॥४॥ {पन्ना 1075}

पद्अर्थ: आदि = (सब का) आरम्भ। निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = सुरमा, माया के मोह की कालिख) माया के प्रभाव से रहित। निरंकारा = निर+आकार, जिसका कोई खास स्वरूप बताया ना जा सके। निरारा = निराला, अलग। वरनु = रंग। चिहनु = चिन्ह, निशान। हुकमे = हुकम से।1।

सबाई = सारी। माणस कउ = मनुष्य जन्म को। प्रभि = प्रभू ने। दीई = दी है। ते = से। चूकै = चूक जाता है। आइ जाइ = जनम मरण के चक्कर में पड़ के।2।

कीता = प्रभू का किया हुआ। तिसु किआ कहीअै = उसकी वडिआई करनी व्यर्थ है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। लहीअै = हासिल करना चाहिए। भुलाऐ = गलत राह पर डाल दे। जिसहि = जिसु ही ('जिसु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)।3।

हरख = खुशी। सोग = ग़मी। नगरु = शरीर शहर। से = वह (बहुवचन)। उबरे = (माया के प्रभाव से) बच जाते हैं। ते = से। निरारा = निराला, बचा हुआ।4।

अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा, जो सबका मूल है जो माया के प्रभाव से रहित हैऔर जिसका कोई खास स्वरूप बताया नहीं जा सकता, सब जीवों में मौजूद है, और फिर भी निर्लिप रहता है। उस का कोई (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण नहीं, कोई जाति नहीं, कोई चिन्ह नहीं। वह अपने हुकम अनुसार ही सारी सृष्टि पैदा करता है।1।

हे भाई! सारी चौरासी लाख जूनियों में से परमात्मा ने मानस जनम को वडिआई दी है। पर जो मनुष्य इस सीढ़ी पर से भटक जाता है, वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ कर दुख भोगता है।2।

हे भाई! परमात्मा के पैदा किए हुए की वडिआई करना व्यर्थ है (परमात्मा की सिफतसालाह करनी चाहिए) गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का कीमती नाम प्राप्त करना चाहिए। (पर जीव के वश की बात नहीं है) जिस मनुष्य को परमात्मा खुद गलत रास्ते पर डाल देता है, वह मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। वह मनुष्य ही सही जीवन-राह समझता है जिसको परमात्मा खुद समझाता है।3।

हे भाई! परमात्मा ने इस मनुष्य-शरीर को खुशी-ग़मी का नगर बना दिया है। वह मनुष्य ही (इनके प्रभाव से) बचते हैं जो गुरू की शरण पड़ते हैं। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के माया के तीन गुणों से निराला रहता है वह (लोक परलोक में) शोभा कमाता है।4।

अनिक करम कीए बहुतेरे ॥ जो कीजै सो बंधनु पैरे ॥ कुरुता बीजु बीजे नही जमै सभु लाहा मूलु गवाइदा ॥५॥ कलजुग महि कीरतनु परधाना ॥ गुरमुखि जपीऐ लाइ धिआना ॥ आपि तरै सगले कुल तारे हरि दरगह पति सिउ जाइदा ॥६॥ खंड पताल दीप सभि लोआ ॥ सभि कालै वसि आपि प्रभि कीआ ॥ निहचलु एकु आपि अबिनासी सो निहचलु जो तिसहि धिआइदा ॥७॥ हरि का सेवकु सो हरि जेहा ॥ भेदु न जाणहु माणस देहा ॥ जिउ जल तरंग उठहि बहु भाती फिरि सललै सलल समाइदा ॥८॥ {पन्ना 1075-1076}

पद्अर्थ: जो = जो (भी कर्म)। कीजै = किया जाए। बंधनु = फाही। पैरे = पैरों में। कुरुता = कु+ऋतु का, बेऋतु के, बे बहारा। जंमै = उगता। लाहा = कमाई। मूल = राशि पूँजी।5।

परधाना = सबसे श्रेष्ठ कर्म। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। लाइ धिआना = सुरति जोड़ के। तरै = (संसार समुंद्र से) पार लांघता है। दरगाह = हजूरी में। पति = इज्जत।6।

दीप = टापू। सभि = सारे। लोआ = लोक, मण्डल। कालै वसि = काल के वश में। प्रभि = प्रभू ने। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। अबिनासी = नाश रहित। तिसहि = तिसु ही ('तिसु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)।7।

सेवकु = भगत। भेदु = फर्क, दूरी। माणस देहा = मनुष्य का शरीर। जल तरंग = पानी की लहरें। उठहि = उठती हैं (बहुवचन)। सललै = पानी में। सलल = पानी।8।

अर्थ: हे भाई! (नाम सिमरन के बिना तीर्थ-स्नान आदि भले ही) अनेकों बहुत सारे (मिथे हुए धार्मिक) कर्म किए जाएं, जो भी ऐसा कर्म किया जाता है, वह इस जीवन-सफर में मनुष्य के पैरों में फंदा बनता है। (मनुष्य के आत्मिक जीवन के लिए हरी-नाम के सिमरन की आवश्यक्ता है। और और कर्म यूँ ही व्यर्थ हैं, जैसे,) बे-ऋतु में (बहार के बिना) बीजा हुआ बीज उगता नहीं। मनुष्य कमाई भी गवाता है और राशि-पूँजी भी गवाता है।5।

हे भाई! (जुगों का बटवारा करने वालों के अनुसार भी) कलियुग में कीर्तन ही प्रधान कर्म है। (वैसे तो सदा ही) गुरू की शरण पड़ कर सुरति जोड़ के परमात्मा का नाम जपना चाहिए। (जो मनुष्य जपता है) वह खुद (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है, अपनी सारी कुलों को पार लंघा लेता है, और परमात्मा की हजूरी में इज्जत से जाता है।6।

हे भाई! ये जितने भी खंड-मण्डल-पाताल-द्वीप हैं, ये सारे परमात्मा ने खुद ही काल के अधीन रखे हुए हैं। नाश-रहित प्रभू खुद ही सदा कायम रहने वाला है, जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करता है वह भी अटल जीवन वाला हो जाता है। (जनम-मरण के चक्कर से बच जाता है)।7।

हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाला मनुष्य परमात्मा जैसा ही हो जाता है। उस का मनुष्य का शरीर (देख के परमात्मा से उसका) फर्क ना समझो। (सिमरन करने वाला मनुष्य इस तरह ही है) जैसे कई किस्मों की पानी की लहरें उठती हैं, दोबारा पानी में ही पानी मिल जाता है।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh