श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1083 पतित पावन दुख भै भंजनु ॥ अहंकार निवारणु है भव खंडनु ॥ भगती तोखित दीन क्रिपाला गुणे न कित ही है भिगा ॥१३॥ निरंकारु अछल अडोलो ॥ जोति सरूपी सभु जगु मउलो ॥ सो मिलै जिसु आपि मिलाए आपहु कोइ न पावैगा ॥१४॥ आपे गोपी आपे काना ॥ आपे गऊ चरावै बाना ॥ आपि उपावहि आपि खपावहि तुधु लेपु नही इकु तिलु रंगा ॥१५॥ एक जीह गुण कवन बखानै ॥ सहस फनी सेख अंतु न जानै ॥ नवतन नाम जपै दिनु राती इकु गुणु नाही प्रभ कहि संगा ॥१६॥ {पन्ना 1083} पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। भै = (बहुवचन) सारे डर। भंजनु = नाश करने वाला। निवारणु = दूर करने वाला। भव = जनम मरण का चक्कर। तोखित = प्रसन्न होता है। कित ही गुणे = किसी भी (और) गुण से ('कितु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। भिगा = भीगता, पतीजता।13। मउलो = खिला हुआ है। आपहु = अपने यतन से।14। आपे = आप ही। काना = कान्हा, कृष्ण। बाना = बन में। उपावहि = तू पैदा करता है। खपावहि = तू नाश करता है। लेपु = प्रभाव, असर, दबाव। इकु तिलु = रक्ती भर भी। रंगा = दुनिया के रंग तमाशों के।15। जीह = जीभ। कवन = कौन कौन? सहस = हजार। फनी = फनों से। सेख = शेषनाग। नवतन = नया। इकु गुणु प्रभ = प्रभू का एक (भी) गुण। कहि संगा = कह सकता।16। अर्थ: हे भाई! परमात्मा विकारियों को पवित्र करने वाला है, (जीवों के) सारे दुख सारे डर दूर करने वाला है, अहंकार दूर करने वाला है और जनम-मरण का चक्कर नाश करने वाला है। हे भाई! दीनों पर कृपा करने वाला प्रभू भक्ति से खुश होता है, किसी भी अन्य गुण से नहीं पतीजता।13। हे भाई! आकार-रहित परमात्मा को माया छल नहीं सकती, (माया के हमलों के आगे) वह डोलने वाला नहीं है। वह निरा नूर ही नूर है (उसके नूर से) सारा जगत खिल रहा है। (उस परमात्मा को) वही मनुष्य (ही) मिल सकता है, जिसको वह स्वयं मिलाता है। (उसकी मेहर के बिना निरे) अपने उद्यम से कोई भी मनुष्य उसको मिल नहीं सकता।14। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही गोपियाँ है, स्वयं ही कृष्ण है। प्रभू खुद ही गऊओं को वृन्दावन में चराता है । हे प्रभू! तू स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही नाश करता है। दुनिया के रंग-तमाशों का तेरे ऊपर तिल भर भी असर नहीं होता।15। हे प्रभू! (मेरी) एक जीभ (तेरे) कौन-कौन से गुण बयान कर सकती है? हजार फनों वाला शेषनाग भी (तेरे गुणों का) अंत नहीं जानता। वह दिन-रात (तेरे) नए-नए नाम जपता है, पर, हे प्रभू! वह तेरा एक भी गुण बयान नहीं कर सकता।16। ओट गही जगत पित सरणाइआ ॥ भै भइआनक जमदूत दुतर है माइआ ॥ होहु क्रिपाल इछा करि राखहु साध संतन कै संगि संगा ॥१७॥ द्रिसटिमान है सगल मिथेना ॥ इकु मागउ दानु गोबिद संत रेना ॥ मसतकि लाइ परम पदु पावउ जिसु प्रापति सो पावैगा ॥१८॥ जिन कउ क्रिपा करी सुखदाते ॥ तिन साधू चरण लै रिदै पराते ॥ सगल नाम निधानु तिन पाइआ अनहद सबद मनि वाजंगा ॥१९॥ किरतम नाम कथे तेरे जिहबा ॥ सति नामु तेरा परा पूरबला ॥ कहु नानक भगत पए सरणाई देहु दरसु मनि रंगु लगा ॥२०॥ तेरी गति मिति तूहै जाणहि ॥ तू आपे कथहि तै आपि वखाणहि ॥ नानक दासु दासन को करीअहु हरि भावै दासा राखु संगा ॥२१॥२॥११॥ {पन्ना 1083} पद्अर्थ: गही = पकड़ी। जगत पिता = हे जगत के पिता! भइआनक = भयानक, डरावने। दुतर = (दुष्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है। इछा = अच्छी भावना, मेहर की निगाह। करि = कर के। संगि = साथ।17। द्रिसटिमान = जो कुछ दिख रहा है। मिथेना = मिथ्या, नाशवंत। मागउ = मैं माँगता हूँ। रेना = चरण धूड़। मसतकि = माथे पर। लाइ = लगा के। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पावउ = मैं प्राप्त करूँ। जिसु प्रापति = जिसके भाग्यों में प्राप्ति लिखी हुई है।18। करी = की। जिन कउ = जिन पर। रिदै = हृदय में। पराते = परोए। नाम निधानु = नाम का खजाना। अनहद = एक रस। मनि = मन में। वाजंगा = बजते हैं। किरतम = बनाए हुए, घड़े हुए। परा पूरबला = आदि कदीमों का। नानक = हे नानक! रंगु = आत्मिक आनंद।20। गति = आत्मिक हालत। मिति = तिथि, मिणती। तेरी गति मिति = तू कैसा है और कितना बड़ा है, ये बात। तै = और। को = का। दासा संगा = दासों की संगति में।21। अर्थ: हे जगत के पिता! मैंने तेरी ओट ली है, मैं तेरी शरण आया हूँ। जमदूत बड़े डरावने हैं, बड़े डर दे रहे हैं। माया (एक ऐसा समुंद्र है जिस) में से पार लांघना मुश्किल है। हे प्रभू! दयावान हो, मुझे कृपा करके साध-संगति में रख।17। हे गोबिंद! ये दिखाई देता पसारा सब नाशवंत है। मैं (तुझसे) एक (यह) दान माँगता हूँ (कि मुझे) संतजनों की चरण-धूड़ (मिले)। (ये धूड़) मैं (अपने) माथे पर लगा के सबसे उच्च दर्जा हासिल करूँ। जिस के भाग्यों में तूने जिस चरण-धूड़ की प्राप्ति लिखी है वही हासिल कर सकता है।18। हे सुखों के देने वाले! जिन पर तू मेहर करता है वह गुरू के चरणों को अपने हृदय में परो लेते हैं। उनको सारे खजानों से श्रेष्ठ नाम-खजाना मिल जाता है। उनके मन में (जैसे) एक-रस बाजे बजने लगते हैं।19। हे प्रभू! (हमारी जीवों की) जीभ तेरे वह नाम उचारती है जो नाम (तेरे गुण देख-देख के जीवों ने) बनाए हुए हैं। पर 'सतिनामु' तेरा आदि कदीमी का नाम है (भाव, तू 'अस्तित्व वाला' है, तेरा यह 'अस्तित्व' जगत-रचना से पहले भी मौजूद था)। हे नानक! कह- (हे प्रभू!) तेरे भगत तेरी शरण पड़े रहते हैं, तू उनको दर्शन देता है, उनके मन में आनंद बना रहता है।20। हे प्रभू! तू कैसा है और कितना बड़ा है- ये बात तू स्वयं ही जानता है। अपनी 'गति मिति' तू बता सकता है और खुद ही बयान करता है। हे प्रभू! नानक को दासों का दास बनाए रख। और, हे हरी! अगर तेरी मेहर हो तो (नानक को) अपने दासों की संगति में रख।21।2।11। मारू महला ५ ॥ अलह अगम खुदाई बंदे ॥ छोडि खिआल दुनीआ के धंधे ॥ होइ पै खाक फकीर मुसाफरु इहु दरवेसु कबूलु दरा ॥१॥ सचु निवाज यकीन मुसला ॥ मनसा मारि निवारिहु आसा ॥ देह मसीति मनु मउलाणा कलम खुदाई पाकु खरा ॥२॥ सरा सरीअति ले कमावहु ॥ तरीकति तरक खोजि टोलावहु ॥ मारफति मनु मारहु अबदाला मिलहु हकीकति जितु फिरि न मरा ॥३॥ कुराणु कतेब दिल माहि कमाही ॥ दस अउरात रखहु बद राही ॥ पंच मरद सिदकि ले बाधहु खैरि सबूरी कबूल परा ॥४॥ {पन्ना 1083} पद्अर्थ: अगम = अपहुँच ईश्वर। खुदाई बंदे = हे खुदा के बंदे! धंधे = झमेले। पै खाकु फकीर = फकीरों के पैरों की खाक़। होइ = हो के। मुसाफरु = परदेसी। दरा = (प्रभू के) दर पे।1। सचु = सदा स्थिर हरीनाम का सिमरन। यकीन = श्रद्धा। मुसला = मुसल्ला, वह फुहड़ी चादर जिस पर मुसलमान नमाज़ पढ़ता है। मनसा = मन का फुरना। मारि = मार के। निवारहु = दूर करो। आसा = (फकीर का) डंडा। देह = शरीर। मउलाणा = मौलवी। कलम खुदाई = खुदा का कलमा। पाकु = पवित्र।2। सरा सरीअति = शरह शरीअति, धार्मिक रहणी, बाहरी धार्मिक रहित। ले = ले कर। तरीकति = मन को पवित्र करने का तरीका। तरक = त्याग। खोजि = खोज के। टोलावहु = ढूँढो। मारफति = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। अबदाला = हे अब्दाल फकीर! (फकीरों के पाँच दर्जे = वली, गौंस, कुतब, अबदाल और कलंदर)। हकीकति = मुसलमानों के अनुसार चौथा पद जहाँ रॅब के साथ मिलाप हो जाता है। जितु = जिस (मिलाप) से। मरा = मौत, आत्मिक मौत।3। माहि = में। कमाही = (नाम सिमरन की) कमाई कर। दस अउरात = दस औरतों को, दस इन्द्रियों को। बद राही = बुरे रास्ते से। पंच मरद = कामादिक पाँच सूरमे। सिदकि = सिदक से। ले = ले के, पकड़ के। बाधहु = बाँध रखो। खैरि = खैर से। (ख़ैरु = दान)। खै़रि सबूरी = संतोख के खै़र से। कबूल = परवान।4। अर्थ: हे अल्लाह के बँदे! हे अपहुँच रॅब के बंदे! हे ख़ुदा के बंदे! (निरे) दुनिया वाले ख्याल छोड़ दे, (निरे) दुनियावी झमेले छोड़ दे। रॅब के फकीरों के पैरों की खाक हो के (दुनिया में) मुसाफिर बना रह। इस तरह का फकीर रॅब के दर पर कबूल हो जाता है।1। हे ख़ुदा के बंदे! सदा कायम रहने वाले रॅब के नाम (की याद) को (अपनी) निमाज़ बना। रॅब के ऊपर भरोसा - ये तेरा मुसल्ला हो। हे ख़ुदा के फकीर! (अपने अंदर से) मन का फुरना मार के खत्म कर दे- इसको डंडा बना। (तेरा यह) शरीर (तेरी) मस्जिद हो, (तेरा) मन (उस मस्जिद में) मुल्ला (बना रहे)। (इस मन को सदा) पवित्र और साफ रख- ये तेरे लिए ख़ुदाई कलमा है।2। हे ख़ुदा के बंदे! (ख़ुदा का नाम) ले के बँदगी की कमाई करा कर- यह है असल शरह शरीअति (बाहरी धार्मिक रहन-सहन)। हे रॅब के बंदे! (स्वैभाव) त्याग के (अपने अंदर बसते रॅब को) खोज के ढूँढ- ये है मन को साफ़ रखने का तरीका। हे अब्दाल फकीर! अपने मन को वश में रख - यह है मारफति (आत्मिक जीवन की सूझ)। रॅब से मिला रह- ये है हकीकति (चौथा पद)। (ये हकीकति ऐसी है कि) इससे दोबारा आत्मिक मौत नहीं होती।3। हे ख़ुदा के बंदे! अपने दिल में खुदा के नाम की कमाई करता रह- ये है कुरान, ये है कतेबों की तालीम। हे ख़ुदा के बंदे! अपनी दस इन्द्रियों को बुरे रास्तों से रोक के रख! सिदक की मदद से पाँच कामादिक शूरवीरों को पकड़ के बाँध के रख। संतोख की ख़ैर की बरकति से तू खुदा के दर पर कबूल हो जाएगा।4। मका मिहर रोजा पै खाका ॥ भिसतु पीर लफज कमाइ अंदाजा ॥ हूर नूर मुसकु खुदाइआ बंदगी अलह आला हुजरा ॥५॥ सचु कमावै सोई काजी ॥ जो दिलु सोधै सोई हाजी ॥ सो मुला मलऊन निवारै सो दरवेसु जिसु सिफति धरा ॥६॥ सभे वखत सभे करि वेला ॥ खालकु यादि दिलै महि मउला ॥ तसबी यादि करहु दस मरदनु सुंनति सीलु बंधानि बरा ॥७॥ दिल महि जानहु सभ फिलहाला ॥ खिलखाना बिरादर हमू जंजाला ॥ मीर मलक उमरे फानाइआ एक मुकाम खुदाइ दरा ॥८॥ {पन्ना 1083-1084} पद्अर्थ: मका = मक्का; देश अरब का वह प्रसिद्ध शहर जिसका दर्शन करने हर साल मुसलमान दूर दराज़ से पहुँचते हैं, हज़रत मुहम्मद साहिब मक्के में ही पैदा हुए थे। मिहर = तरस, दया। रोज़ा = रोजा। पै खाका = सबके पैरों की खाक होना। भिसतु = बहिश्त। पीर लफज = गुरू के वचन। अंदाजा = अंदाजे से, पूरी तौर पर। हूर = बहिश्त की सुंदर सि्त्रयाँ। नूर = परमात्मा का प्रकाश। मुसकु = सुगंधी। खुदाइआ = खुदा की बँदगी। बंदगी अलह = अल्लाह की बंदगी। आला = आहला, श्रेष्ठ। हुजरा = बँदगी करने के लिए एक अलग छोटा सा कमरा।5। सचु = सदा कायम रहने वाले ख़ुदा की याद। सोधै = सोधता है, पड़तालता है पवित्र रखता है। हाजी = मक्के का हज करने वाला, हज के मौक पर मक्के का दर्शन करने वाला। मलऊन = विकारों को। निवारै = दूर करता है। जिसु धरा = जिस का आसरा।6। वखत = वक्त (शब्द 'वक़त' इस्लामी शब्द है, और 'वेला' व 'बेला' हिन्दका शब्द है)। खालकु = ख़लकत को पैदा करने वाला। दस मरदनु = दसों (इन्द्रियों) को जीत लेने वाला रॅब, दसों इन्द्रियों को वश में करा देने वाला अल्लाह। सीलु = अच्छा स्वभाव। बंधानि = परहेज़, विकारों से संकोच। बरा = श्रेष्ठ।7। सभ = सारी श्रेष्ठ। फिलहाला = नाशवंत, चंद रोजा। बिरादर = हे भाई! खिलखाना = परिवार, टॅबर टोर। हमू = सारा। मीर = शाह। उमरे = अमीर लोग। फानाइआ = नाशवंत, फनाह होने वाले। मुकाम = कायम रहने वाला।8। अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (दिल में सबक लिए) तरस को (हॅज-स्थान) मक्का (समझ)। (सबके) पैरों की ख़ाक हुए रहना (असल) रोज़ा है। गुरू के बचनों पर पूरी तरह से चलना -ये है बहिश्त। ख़ुदा के नूर का जहूर ही हूरें हैं, ख़ुदा की बूँदगी ही कसतूरी है। ख़ुदा की बँदगी ही सबसे बढ़िया हुजरा है (जहाँ मन विकारों से हट के एक ठिकाने पर रह सकता है)।5। हे ख़ुदा के बँदे! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले अल्लाह की बंदगी करता है वह है (असल) काज़ी। जो मनुष्य अपने दिल को पवित्र रखने का यतन करता रहता है वही है (असल) हॅज करने वाला। जो मनुष्य (अपने अंदर से) विकारों को दूर करता है वह (असल) मुल्ला है। जिस मनुष्य को ख़ुदा की सिफत-सालाह का सहारा है वह (असल) फ़कीर।6। हे ख़ुदा के बँदे! हर वक्त हर समय ख़ालक को मौला को अपने दिल में याद करता रह। हर वक्त ख़ुदा को याद करते रहो- यही है तसब्बी। वह ख़ुदा दसों इन्द्रियों को वश में ला सकता है। हे ख़ुदा के बँदे! अच्छा स्वभाव और (विकारों से) मज़बूती से परहेज़ ही सुन्नत (समझ)।7। हे अल्लाह के बँदे! सारी रचना का अपने दिल में नाशवंत जान। हे भाई! ये टॅबर-टोर (परिवार आदि) का मोह सब बँधन (में फसाने वाले ही) हैं। शाह, पातशाह, अमीर लोक सब नाशवंत हैं। सिर्फ ख़ुदा का दर ही सदा कायम रहने वाला है।8। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |