श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1084 अवलि सिफति दूजी साबूरी ॥ तीजै हलेमी चउथै खैरी ॥ पंजवै पंजे इकतु मुकामै एहि पंजि वखत तेरे अपरपरा ॥९॥ सगली जानि करहु मउदीफा ॥ बद अमल छोडि करहु हथि कूजा ॥ खुदाइ एकु बुझि देवहु बांगां बुरगू बरखुरदार खरा ॥१०॥ हकु हलालु बखोरहु खाणा ॥ दिल दरीआउ धोवहु मैलाणा ॥ पीरु पछाणै भिसती सोई अजराईलु न दोज ठरा ॥११॥ काइआ किरदार अउरत यकीना ॥ रंग तमासे माणि हकीना ॥ नापाक पाकु करि हदूरि हदीसा साबत सूरति दसतार सिरा ॥१२॥ {पन्ना 1084} पद्अर्थ: अवलि = (निमाज़ का) पहला (वक्त)। दूजी = दूसरी (निमाज़)। साबूरी = संतोख। तीजै = (निमाज़ के) तीसरे (वक्त)। हलेमी = निम्रता। चउथै = चौथे (वक्त) में। खैरी = सबका भला माँगना। पंजे = (कामादिक) पाँच ही। इकतु = एक में। इकतु मुकामै = एक ही जगह में, वश में (रखने)। ऐहि = ('ऐह' का बहुवचन)। वखत = निमाज़ के वक्त। अपर परा = परे से परे, बहुत बढ़िया।9। सगली = सारी (सृष्टि) में। सउफीदा = वज़ीफा, इस्लामी श्रद्धा अनुसार सदा जारी रखने वाला एक पाठ। बद अमल = बुरे काम। हथि = हाथ में। कूजा = कूज़ा, लोटा, असतावा। बुझि = समझ के। बुरगू = सिंगी जो मुसलमान फकीर बजाते हैं। बरखुरदार = भला बच्चा। खरा = अच्छा।10। हकु = हक की कमाई, अपनी नेक मेहनत से कमाई हुई माया। बखोरहु = खाओ। मैलाणा = विकारों की मैल। पीरु = गुरू, राहबर। भिसती = बहिश्त का हकदार। दोज = दोज़क (में)। ठरा = ठेलता, फेंकता।11। काइआ = शरीर। किरदार = अमल, अच्छे बुरे काम। अउरत = स्त्री। अउरत यकीना = पतिव्रता स्त्री। हकीना = हॅक के, रॅबी मिलाप के। नापाक = अपवित्र। पाकु = पवित्र। हदीस = पैग़ंबरी पुस्तक जिसको कुरान के बाद दूसरा दर्जा दिया जाता है, इसमें इस्लामी शरह की हिदायत है। हदूरि हदीसा = हजूरी हदीस, रॅबी शरह की किताब। साबत सूरति = (सुन्नत, लबें काटने आदि की शरह ना कर के) शरीर को ज्यों का त्यों रखना। दसतार सिरा = सिर पर दस्तार (का कारण बनती है), इज्जत आदर का वसीला है।12। अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (तेरी उम्र के) ये पाँच वक्त तेरे वास्ते बड़े ही लाभदायक हो सकते हैं (अगर तू) पहले वक्त में रॅब की सिफत सलाह करता रहे, अगर संतोष तेरी दूसरी निमाज़ हो, निमाज़ के तीसरे वक्त में तू विनम्रता धारण करे, और चौथे वक्त में तू सबका भला माँगे, अगर पाँचवें वक्त में तू कामादिक पाँचों को ही वश में रखे (भाव, रॅब की सिफतसालाह, संतोष, विनम्रता, सबका भला माँगना और कामादिक पाँचों को वश में रखना- ये पाँच हैं आत्मिक जीवन की पाँच निमाज़ें, और ये जीवन को बहुत ऊँचा करती हैं)।9। हे अल्ला के बँदे! सारी सृष्टि में एक ही ख़ुदा को बसता जान- इसको तू हर वक्त अपना रॅबी सलाम का पाठ बनाए रख। बुरे काम करने छोड़ दे- ये पानी का लोटा तू अपने हाथ में पकड़ (शरीर की स्वच्छता के लिए)। ये यकीन बना कि सारी ख़लकत का एक ही ख़ुदा है- ये बाँग सदा दिया कर। हे फकीर सांई! ख़ुदा अच्छा पुत्र बनने का यतन किया कर-ये सिंज्ञीं बजाया कर।10। हे ख़ुदा के बँदे! हॅक की कमाई करा कर- ये है 'हलाल', ये खाना खाया कर। (दिल में से भेद भाव निकाल के) दिल को दरिया बनाने का यतन कर, (इस तरह) दिल की (विकारों की) मैल धोया कर। हे अल्लाह के बँदे! जो मनुष्य अपने गुरू-पीर (के हुकम) को पहचानता है, वह बहिश्त का हकदार बन जाता है, अज़राइल उसको दोज़क में नहीं फैंकता।11। हे ख़ुदा के बँदे! अपने इस शरीर को, जिसके द्वारा सदा अच्छे-बुरे काम किए जाते हैं अपनी वफ़ादार औरत (पतिव्रता स्त्री) बना, (और, विकारों के रंग-तमाशों में डूबने की जगह, इस पतिव्रता स्त्री के माध्यम से) रॅबी मिलाप के रंग-तमाशे भोगा कर। हे अल्ला के बँदे! (विकारों में) मलीन हो रहे मन को पवित्र करने का यतन कर- यही है रॅबी मिलाप पैदा करने वाली शरह की किताब। (सुन्नत, लबें कटाने आदि की शरह छोड़ के) अपनी शकल को ज्यों का त्यों रख- यह (लोक-परलोक में) इज्जत-सम्मान प्राप्त करने का वसीला बन जाता है।12। मुसलमाणु मोम दिलि होवै ॥ अंतर की मलु दिल ते धोवै ॥ दुनीआ रंग न आवै नेड़ै जिउ कुसम पाटु घिउ पाकु हरा ॥१३॥ जा कउ मिहर मिहर मिहरवाना ॥ सोई मरदु मरदु मरदाना ॥ सोई सेखु मसाइकु हाजी सो बंदा जिसु नजरि नरा ॥१४॥ कुदरति कादर करण करीमा ॥ सिफति मुहबति अथाह रहीमा ॥ हकु हुकमु सचु खुदाइआ बुझि नानक बंदि खलास तरा ॥१५॥३॥१२॥ {पन्ना 1084} पद्अर्थ: दिलि = दिल वाला। मोम दिलि = मोम जैसे (नर्म) दिल वाला। अंतर की = अंदर की। ते = से। कुसम = फूल। पाटु = रेशम। पाकु = पवित्र। हरा = (हारिण) हिरन की खाल, मृग छाला।13। मरदाना = सूरमा। सेखु = शेख। नरा = नरहर, परमात्मा।14। कुदरति कादर = कादर की कुदरत को, करतार की रची रचना को। करण करीमा = करीम के करण को, बख्शिंद प्रभू के रचे जगत को। रहीम = रहम करने वाला रॅब। मुहबति = प्यार। हकु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम को। बुझि = समझ के। बंदि = माया के मोह के बँधन। तरा = तैर जाते हैं15। अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (असल) मुसलमान वह है जो मोम जैसे नर्म दिल वाला होता है और जो अपने दिल के अंदरूनी (विकारों की) मैल धो देता है। (वह मुसलमान) दुनियावी रंग-तमाशों के नजदीक नहीं फटकता (जो इस तरह पवित्र रहता है) जैसे फूल रेशम घी और मृगछाला पवित्र (रहते हैं)।13। हे ख़ुदा के बँदे! जिस मनुष्य पर मेहरवान (मौला) की हर वक्त मेहर रहती है, (विकारों के मुकाबले पर) वही मनुष्य सूरमा मर्द (साबित होता) है। वही है (असल) शेख मसाइक और हाज़ी, वही है (असल) ख़ुदा का बँदा जिस पर ख़ुदा की मेहर की निगाह रहती है।14। हे नानक! (कह- ) हे ख़ुदा के बँदे! कादर की कुदरति को, बख्शिंद मालिक के रचे हुए जगत को, बेअंत गहरे रहिम-दिल ख़ुदा की मुहब्बत और सिफत-सालाह को, सदा कायम रहने वाले प्रभू के हुकम को, सदा कायम रहने वाले ख़ुदा को समझ के माया के मोह के बँधनों से मुक्ति मिल जाती है, और, संसार-समुंद्र से पार लांघा जाता है।15।3।12। मारू महला ५ ॥ पारब्रहम सभ ऊच बिराजे ॥ आपे थापि उथापे साजे ॥ प्रभ की सरणि गहत सुखु पाईऐ किछु भउ न विआपै बाल का ॥१॥ गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ रकत किरम महि नही संघारिआ ॥ अपना सिमरनु दे प्रतिपालिआ ओहु सगल घटा का मालका ॥२॥ चरण कमल सरणाई आइआ ॥ साधसंगि है हरि जसु गाइआ ॥ जनम मरण सभि दूख निवारे जपि हरि हरि भउ नही काल का ॥३॥ समरथ अकथ अगोचर देवा ॥ जीअ जंत सभि ता की सेवा ॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज बहु परकारी पालका ॥४॥ {पन्ना 1084} पद्अर्थ: सभ ऊच = सबसे ऊँचा। बिराजे = टिका हुआ हैं आपे = आप ही। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। साजे = साजता है, बनाता है। गहत = पकड़ते हुए। पाईअै = पाते हैं। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। बाल = बाला, माया।1। जिनहि = जिनि ही, जिस ने ('जिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। उबारिआ = बचाया। रकत = रक्त, लहू। किरम = कीड़े। नही संघारिआ = नहीं मरने दिया। दे = दे के। प्रतिपालिआ = रक्षा की। घट = शरीर।2। चरण कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। साध संगि = साध-संगति में। जसु = सिफत सालाह। सभि = सारे। जनम मरन सभि दूख = जनम से मरने तक के सारे दुख, सारी उम्र के दुख। निवारे = दूर करता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत।3। समरथ = सब ताकतों का मालिक। अकथ = जिसके स्वरूप का बयान ना किया जा सके। अगोचर = (अ+गो+चर) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। सेवा = प्रकाश रूप। सभि = सारे। ता की = उस (परमात्मा की)। सेवा = शरण। अंडज = अंड+ज, अण्डे से पैदा होने वाले। उतभुज = (उद्भिज्ज = sprouting, germinating as a plant) धरती में से उगने वाले। बहु परकारी = अनेकों तरीके से।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबसे ऊँचे (आत्मिक) ठिकाने पर टिका रहता है, वह खुद ही (सबको) पैदा करके आप ही नाश करता है, वह स्वयं ही रचना रचता है। हे भाई! उस परमात्मा का आसरा लेने से आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ रहता है, माया के मोह का डर तिल मात्र भी अपना जोर नहीं डाल सकता।1। हे भाई! जिस परमात्मा ने (जीवों को) माँ की पेट की आग में बचाए रखा, जिसने माँ का लहू के कृमियों के बीच (जीव को) मरने ना दिया उसने (तब) अपने (नाम का) सिमरन दे के रक्षा की। हे भाई! वह प्रभू सारे जीवों का मालिक है।2। हे भाई! जो मनुष्य प्रभू के सोहणें चरणों की शरण में आ जाता है, जो मनुष्य साध-संगति में (रह के) परमात्मा की सिफतसालाह करता है, परमात्मा उसके सारी उम्र के दुख दूर कर देता है। परमात्मा का नाम जप-जप के उसको (आत्मिक) मौत का डर नहीं रह जाता।3। हे भाई! परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, उसका स्वरूप सही तरह से बयान नहीं किया जा सकता, वह ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, वह नूर ही नूर है। सारे जीव-जंतुओं को उसी का ही आसरा है। हे भाई! अंडज-जेरज-सेतज-उत्भुज -इन चारों ही खाणियों के जीवों को वह कई तरीकों से पालने वाला है।4। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |