श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ गुर ते गिआनु पाइआ अति खड़गु करारा ॥ दूजा भ्रमु गड़ु कटिआ मोहु लोभु अहंकारा ॥ हरि का नामु मनि वसिआ गुर सबदि वीचारा ॥ सच संजमि मति ऊतमा हरि लगा पिआरा ॥ सभु सचो सचु वरतदा सचु सिरजणहारा ॥१॥ {पन्ना 1087}

अर्थ: (ज्ञान, मानो) बहुत ही तेजधार खड़ग है, यह ज्ञान गुरू से मिलता है, (जिसको मिला है उसका) माया की खातिर भटकना, मोह, लोभ, अहंकार-रूप किला (जिसमें वह घिरा हुआ था, इस ज्ञान-खड़ग से) काटा जाता है; गुरू के शबद में सुरति जोड़ने से उसके मन में परमात्मा का नाम बस जाता है। सिमरन के संजम से उसकी मति उक्तम हो जाती है, ईश्वर उसको प्यारा लगने लग जाता है; (आखिर उसकी ये हालत हो जाती है कि) सदा-स्थिर सृजनहार उसको हर जगह बसता दिखता है।1।

सलोकु मः ३ ॥ केदारा रागा विचि जाणीऐ भाई सबदे करे पिआरु ॥ सतसंगति सिउ मिलदो रहै सचे धरे पिआरु ॥ विचहु मलु कटे आपणी कुला का करे उधारु ॥ गुणा की रासि संग्रहै अवगण कढै विडारि ॥ नानक मिलिआ सो जाणीऐ गुरू न छोडै आपणा दूजै न धरे पिआरु ॥१॥ {पन्ना 1087}

पद्अर्थ: रासि = पूँजी, सरमाया। संग्रहै = इकट्ठी करे। विडारि = मार के।

अर्थ: हे भाई! केदारा राग को (और बाकी के) रागों में तभी जानो (भाव, केदारा राग की उपमा तभी करनी चाहिए, यदि इसे गाने वाला) गुरू के शबद में प्यार करने लग जाए, अंदर से अपनी मैल भी काटे और अपनी कुलों का भी उद्धार कर ले, गुणों की पूँजी इकट्ठी करे और अवगुणों को मार के निकाल दे।

हे नानक! (केदारा राग से रॅब में) जुड़ा हुआ उसे समझो जो कभी भी अपने गुरू का आसरा ना छोड़े और माया में मोह ना डाले।1।

मः ४ ॥ सागरु देखउ डरि मरउ भै तेरै डरु नाहि ॥ गुर कै सबदि संतोखीआ नानक बिगसा नाइ ॥२॥ {पन्ना 1087}

पद्अर्थ: भै तेरै = तेरे डर से, तेरे भय में रहने से। बिगसा = मैं विगसता हॅूँ, खिलता हूँ। नाइ = नाम से।

अर्थ: (हे प्रभू!) जब मैं (इस संसार-) समुंद्र को देखता हूँ तो डर के मारे सहम जाता हूँ (कि कैसे इसमें से बच के पार होऊँगा, पर) तेरे डर में रहने से (इस संसार-समुंद्र का कोई) डर नहीं रह जाता; क्योंकि, हे नानक! गुरू के शबद से मैं संतोख वाला बन रहा हूँ और प्रभू के नाम से मैं खिलता हूँ।2।

मः ४ ॥ चड़ि बोहिथै चालसउ सागरु लहरी देइ ॥ ठाक न सचै बोहिथै जे गुरु धीरक देइ ॥ तितु दरि जाइ उतारीआ गुरु दिसै सावधानु ॥ नानक नदरी पाईऐ दरगह चलै मानु ॥३॥ {पन्ना 1087}

पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। लहरी = लहरें ('लहर' का बहुवचन)। ठाक = रोक। सावधानु = सचेत, तत्पर (स+अवधान = ध्यान सहित, ध्यान करने वाला)

अर्थ: (संसार-) समुंद्र (तो विकारों की लहरों से) ठाठा मार रहा है पर मैं (गुरू-शबद-रूप) जहाज में चढ़ के (इस समुंद्र में से) पार हो जाऊँगा। अगर सतिगुरू हौसला दे तो इस सच्चे जहाज में चढ़ने से (यात्रा में) कोई रोक (कोई मुश्किल) नहीं आएगी। मुझे अपना गुरू सावधान दिखाई दे रहा है (मेरा दृढ़ निश्चय है कि गुरू मुझे) उस (प्रभू के) दर पर जा उतारेगा।

हे नानक! (ये गुरू का शबद जहाज) प्रभू की मेहर से मिलता है (इसकी बरकति से) प्रभू की हजूरी में आदर मिलता है।3।

पउड़ी ॥ निहकंटक राजु भुंचि तू गुरमुखि सचु कमाई ॥ सचै तखति बैठा निआउ करि सतसंगति मेलि मिलाई ॥ सचा उपदेसु हरि जापणा हरि सिउ बणि आई ॥ ऐथै सुखदाता मनि वसै अंति होइ सखाई ॥ हरि सिउ प्रीति ऊपजी गुरि सोझी पाई ॥२॥ {पन्ना 1087}

पद्अर्थ: निहकंटक = जिस में कोई काँटा चुभ ना सके। भुंचि = मान, भोग। सचु कमाई = सिमरन रूप कमाई। गुरि = गुरू ने।

अर्थ: (हे भाई!) गुरू के सन्मुख हो के सिमरन की कमाई कर (और इस तरह) निहकंटक राज का भोग कर, (क्योंकि) जो प्रभू सदा-स्थिर तख्त पर बैठ कर न्याय कर रहा है वह तुझे सत्संग में मिला देगा, वहाँ नाम-सिमरन की सच्ची शिक्षा कमाने से तेरी प्रभू से (समीपता) बन आएगी, इस जीवन में सुखदाता प्रभू मन में बसेगा और अंत के समय भी साथी बनेगा।

जिस मनुष्य को सतिगुरू ने समझ बख्शी उसका प्रभू के साथ प्यार बन जाता है।2।

सलोकु मः १ ॥ भूली भूली मै फिरी पाधरु कहै न कोइ ॥ पूछहु जाइ सिआणिआ दुखु काटै मेरा कोइ ॥ सतिगुरु साचा मनि वसै साजनु उत ही ठाइ ॥ नानक मनु त्रिपतासीऐ सिफती साचै नाइ ॥१॥ {पन्ना 1087}

पद्अर्थ: भूली भूली = बहुत समय तक विछड़ के भटकती हुई। पाधरु = पधरा रास्ता, सपाट राह। उत ही ठाइ = उसी जगह। त्रिपतासीअै = तृप्त हो जाता है, भटकने से हट जाता है। नाइ = नाम से।

अर्थ: बहुत समय से विछड़ी हुई मैं भटक रही हूँ, मुझे कोई सीधा सपाट रास्ता नहीं बताता, कोई जा के किसी सियाने लोगों से पूछो भला जो कोई मेरा कष्ट काट दे।

हे नानक! अगर सच्चा गुरू मन में आ बसे तो सज्जन प्रभू भी उसी जगह (भाव, हृदय में ही मिल जाता है), प्रभू की सिफत सालाह करने से और प्रभू का नाम सिमरने से मन भटकने से हट जाता है।1।

मः ३ ॥ आपे करणी कार आपि आपे करे रजाइ ॥ आपे किस ही बखसि लए आपे कार कमाइ ॥ नानक चानणु गुर मिले दुख बिखु जाली नाइ ॥२॥ {पन्ना 1087}

पद्अर्थ: करणी = जो करनी चाहिए। किस ही = जिस किसी को। गुर मिले = गुरू को मिलने से। बिखु = विष। नाइ = नाम से।

अर्थ: प्रभू अपनी रजा में स्वयं ही करने-योग्य काम करता है, आप ही जीव को बख्शता है आप ही (जिस पर मेहर करे उसमें साक्षात हो के भक्ति की) कार कमाता है।

हे नानक! गुरू को मिल के जिसके हृदय में प्रकाश होता है वह 'नाम' सिमर के विष-रूपी माया से पैदा हुए दुखों को जला देता है।2।

पउड़ी ॥ माइआ वेखि न भुलु तू मनमुख मूरखा ॥ चलदिआ नालि न चलई सभु झूठु दरबु लखा ॥ अगिआनी अंधु न बूझई सिर ऊपरि जम खड़गु कलखा ॥ गुर परसादी उबरे जिन हरि रसु चखा ॥ आपि कराए करे आपि आपे हरि रखा ॥३॥ {पन्ना 1087}

पद्अर्थ: दरबु = धन। लखा = लख, देख। कलखा = कल खा, काल का। जिनि = जिन्होंने। रखा = रक्षक।

अर्थ: हे मूर्ख! हे मन के गुलाम! माया को देख के गलती ना कर, यह (यहाँ से) चलने के वक्त किसी के साथ नहीं जाती, सो, सारे धन को झूठा साथी जान। (पर इस माया को देख के) मूर्ख अंधा मनुष्य नहीं समझता कि सिर पर जम की मौत की तलवार भी है (और इस माया से साथ टूटना है)।

जिन मनुष्यों ने हरी-नाम का रस चखा है वह गुरू की मेहर से (माया में मोह डालने की गलती से) बच जाते हैं; यह (उद्यम) प्रभू स्वयं ही (जीवों से) करवाता है (जीव में बैठ के, जैसे) खुद ही करता है, खुद ही जीव का रखवाला है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh