श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1095 डखणे मः ५ ॥ जे तू वतहि अंङणे हभ धरति सुहावी होइ ॥ हिकसु कंतै बाहरी मैडी वात न पुछै कोइ ॥१॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: वतहि = आ जाएं। अंङणे = (अंगड़े, आँगन) (हृदय-) आँगन में। हभ = सारी। धरति = (भाव,) शरीर। वात = बात, खबर। अर्थ: हे प्रभू कंत! अगर तू मेरे (हृदय-) आँगन में आ जाए, तो मेरा सारा शरीर ही सुंदर हो जाता है। पर एक पति-प्रभू के बिना कोई मेरी खबर-सुरति नहीं पूछता (भाव, अगर प्रभू हृदय में बस जाए, तो सारे शुभ गुणों से ज्ञान-इन्द्रियां चमक उठती हैं। अगर प्रभू से विछोड़ा है तो कोई शुभ-गुण तेरे नजदीक नहीं फटकता)।1। मः ५ ॥ हभे टोल सुहावणे सहु बैठा अंङणु मलि ॥ पही न वंञै बिरथड़ा जो घरि आवै चलि ॥२॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: हभे = सारे। टोल = पदार्थ। मलि = कब्जा करके। अंङणु = (अंगणु) आँगन में। पही = जीव राही, पथिक। वंञै = (वंजे) जाता है। बिरथड़ा = खाली हाथ। जो = जिस जीव के द्वारा। घरि = घर में, हृदय घर में। अर्थ: जिस जीव-पथिक (राही) का हृदय-आँगन पति-प्रभू घेर के (कब्जा करके) बैठ जाता है, उसको सारे पदार्थ (उपभोग करने) फबते हैं (क्योंकि) जो जीव-पथिक (बाहरी पदार्थों की ओर से) परत के अंतरात्मे आ टिकता है वह (जगत से) खाली हाथ नहीं जाता।2। मः ५ ॥ सेज विछाई कंत कू कीआ हभु सीगारु ॥ इती मंझि न समावई जे गलि पहिरा हारु ॥३॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: कंत कू = कंत की खातिर। हभु = सारा। इती = इतनी भी। मंझि = बीच में, मेरे और पति के बीच। न समावई = नहीं टिक सकती, टिकी हुई अच्छी नहीं लगती। गलि = गले में। अर्थ: मैंने पति को मिलने के लिए सेज बिछाई है व अन्य सारा हार-श्रृंगार किया (हृदय-सेज सजाने के लिए कई धार्मिक साधन किए), पर अब (जब वह मिल गया है तो) अगर मैं (अपने गले में) एक हार भी पहन लूँ (तो यह हार पति-मिलाप के रास्ते में दूरी पैदा करता है, और) पति और मेरे बीच इतनी दूरी के लिए भी जगह नहीं है (इतनी दूरी भी नहीं होनी चाहिए) (भाव, लोकाचारी धार्मिक साधन पति-मिलाप के रास्ते में रुकावट हैं)।3। पउड़ी ॥ तू पारब्रहमु परमेसरु जोनि न आवही ॥ तू हुकमी साजहि स्रिसटि साजि समावही ॥ तेरा रूपु न जाई लखिआ किउ तुझहि धिआवही ॥ तू सभ महि वरतहि आपि कुदरति देखावही ॥ तेरी भगति भरे भंडार तोटि न आवही ॥ एहि रतन जवेहर लाल कीम न पावही ॥ जिसु होवहि आपि दइआलु तिसु सतिगुर सेवा लावही ॥ तिसु कदे न आवै तोटि जो हरि गुण गावही ॥३॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: समावही = तू व्यापक है। किउ = किस तरीके से? भंडार = खजाने। तोटि = कमी। ऐहि = ये सारे। कीम = कीमत, मूल्य। अर्थ: हे प्रभू! तू पारब्रहम है सबसे बड़ा मालिक है, तू जनम-मरण के चक्करों में नहीं आता। तू अपने हुकम से जगत पैदा करता है, (जगत) पैदा करके (इसमें) व्यापक है। तेरा रूप बयान नहीं किया जा सकता, फिर जीव तेरा ध्यान किस तरीके से धरें? हे प्रभू! तू सब जीवों में खुद मौजूद है, (सबमें) अपनी ताकत दिखा रहा है। (तेरे पास) तेरी भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं जो कभी खत्म नहीं हो सकते। तेरे गुणों के खजाने ऐसे रतन-जवाहर और लाल हैं जिनका मूल्य नहीं डाला जा सकता (जगत में कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जिसके बदले में गुणों के खजाने मिल सकें)। जिस जीव पर तू दया करता है उसको सतिगुरू की सेवा में जोड़ता है। (गुरू की शरण आ के) जो मनुष्य प्रभू के गुण गाते हैं, उनको किसी किस्म की कमी नहीं रहती।3। डखणे मः ५ ॥ जा मू पसी हठ मै पिरी महिजै नालि ॥ हभे डुख उलाहिअमु नानक नदरि निहालि ॥१॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: मू = मैं। पसी = देखता हूँ। हठ मै = हृदय में। महिजै = मेरे। उलाहिअमु = उसने मेरे (दुख) उतार दिए हैं। नदरि = मेहर की निगाह। निहालि = देख के। अर्थ: जब मैं (ध्यान से) हृदय में देखती हूँ, तो मेरा पति-प्रभू मेरे साथ (मेरे दिल में) मौजूद है। हे नानक! मेहर की निगाह कर के उसने मेरे सारे दुख दूर कर दिए हैं।1। मः ५ ॥ नानक बैठा भखे वाउ लमे सेवहि दरु खड़ा ॥ पिरीए तू जाणु महिजा साउ जोई साई मुहु खड़ा ॥२॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: भखे वाउ = तेरी वा भख रहा है, तेरी हवा ले रहा है, तेरी सोय सुन रहा है, तेरी सदा सुन रहा है। लंमे = बेअंत जीव। सेवहि = सेवते हैं, घेर बैठे हैं। पिरीऐ = हे पति! साउ = स्वाउ, मनोरथ। जोई = ताक रहा हूँ। साई = साई! अर्थ: हे प्रभू! बेअंत जीव खड़े तेरा दर सेवते हैं, मैं नानक भी (तेरे दर पर खड़ा) तेरी सोय सुन रहा हूँ। हे पति! तू मेरे दिल की जानता है, हे साई! मैं खड़ा तेरा मुँह ताक रहा हूँ।2। मः ५ ॥ किआ गालाइओ भूछ पर वेलि न जोहे कंत तू ॥ नानक फुला संदी वाड़ि खिड़िआ हभु संसारु जिउ ॥३॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: गालाइओ = बोल रहा है। भूछ = मति हीन, नापाक। वेलि = स्त्री (बेल पेड़ के आसरे बढ़ती-फलती है, स्त्री पति के आसरे सुखी रह सकती है। स्त्री की उपमा बेल से दी गई है। जगत फुलवाड़ी में स्त्री वेल के समान है)। न जोहै = ना देख। जिउ फुला संदी वाड़ि = जैसे फुलवाड़ी (खिली हुई) है। संदी = की। वाड़ि = बगीची, बाड़ी। कंत तू = तू (हर जगह) कंत को (देख)। अर्थ: (हे जीव!) तू हर जगह कंत प्रभू को देख, पराई स्त्री को (दुर्भावना से) ना देख, और (कामातुर हो के) मति-हीन नापाक बोल ना बोल। हे नानक! जैसे फुलवाड़ी खिली होती है वैसे ही यह सारा संसार खिला हुआ है (यहाँ कोई फूल तोड़ना नहीं है, किसी पराई सुंदरी के प्रति बुरी भावना नहीं रखनी)।3। पउड़ी ॥ सुघड़ु सुजाणु सरूपु तू सभ महि वरतंता ॥ तू आपे ठाकुरु सेवको आपे पूजंता ॥ दाना बीना आपि तू आपे सतवंता ॥ जती सती प्रभु निरमला मेरे हरि भगवंता ॥ सभु ब्रहम पसारु पसारिओ आपे खेलंता ॥ इहु आवा गवणु रचाइओ करि चोज देखंता ॥ तिसु बाहुड़ि गरभि न पावही जिसु देवहि गुर मंता ॥ जिउ आपि चलावहि तिउ चलदे किछु वसि न जंता ॥४॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: सुघड़ ु = सुघड़, सुंदर घाड़त वाला। सरूपु = सुंदर। महि = में। पूजंता = पूजा करने वाला। दाना = जानने वाला। बीना = देखने वाला। सतवंता = शुभ आचरण वाला। चोज = तमाशे। बाहुड़ि = दोबारा, फिर। गरभि = गर्भ में, जून में। मंता = उपदेश। वसि = इख़ि्यार में, वश में। अर्थ: हे प्रभू! तू सुघड़, समझदार और सुंदर है, सब जीवों में तू ही मौजूद है, (सो) तू स्वयं ही मालिक है स्वयं ही सेवक है स्वयं ही अपनी पूजा कर रहा है (हरेक जीव के अंदर व्यापक होने के कारण) तू खुद ही (जीवों के कामों को) जानता है देखता है, तू खुद ही अच्छे आचरण वाला है। हे मेरे हरी भगवान! तू खुद ही जती है, खुद ही पवित्र आचरण वाला है। यह सारा जगत-पसारा तूने खूद ही पसारा हुआ है। तू खुद ही यह जगत-खेल खेल रहा है। (जीवों के) पैदा होने-मरने का तमाशा तूने खुद ही रचाया हुआ है, ये तमाशे कर के तू खुद ही देख रहा है। हे प्रभू! जिस मनुष्य को तू गुरू उपदेश की दाति देता है, उसको दोबारा जूनियों के चक्करों में नहीं डालता। (तेरे पैदा किए हुए इन) जीवों के वश में कुछ नहीं है, जैसे तू खुद जीवों को चला रहा है, वैसे ही चल रहे हैं।4। डखणे मः ५ ॥ कुरीए कुरीए वैदिआ तलि गाड़ा महरेरु ॥ वेखे छिटड़ि थीवदो जामि खिसंदो पेरु ॥१॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: कुरीऐ कुरीऐ = नदी के किनारे किनारे। वैदिआ = हे जाने वाले! तलि = (तेरे पैरों के) नीचे। महरेरु = मेढ़, मिट्टी का किनारा। गाड़ा महरेरु = बड़ी मेढ़। वेखे = देखना, ध्यान रखना। छिटड़ि थीवदो = लिबड़ जाएगा। जामि = जब। खिसंदो = फिसल गया। पेरु = पैर। अर्थ: हे (संसार-) नदी के किनारे-किनारे जाने वाले! तेरे पैरों तले (तेरे रास्ते में) बड़ी मेढ़ (बड़ी बंध, मिट्टी की बनी हुई रुकावट) लगी हुई है। ध्यान रखना, जब भी तेरा पैर फिसल गया, तो (मोह के कीचड़ से) लिबड़ जाएगा।1। मः ५ ॥ सचु जाणै कचु वैदिओ तू आघू आघे सलवे ॥ नानक आतसड़ी मंझि नैणू बिआ ढलि पबणि जिउ जुमिओ ॥२॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: वैदिओ = नाशवंत, चले जाने वाला। आघू आघे = आगे आगे। सलवे = (तू) एकत्र करता है। आतसड़ी = आग। नैणू = मक्खन। बिआ = दूसरी बात, दूसरा। ढलि = ढल के (पानी के ढल जाने से), गिर के। पबणि = चुपक्ती। जुंमिओ = नाश हो जाती है। अर्थ: (हे जीव!) नाशवंत काँच (-रूपी माया) को तू सदा-स्थिर जानता है, व और-और इकट्ठी करता है। पर, हे नानक! (कह- यह माया यूँ है) जैसे आग में मक्खन नाश हो जाता है (पिघल जाता है), या, जैसे (पानी के ढल जाने से) चुपक्ती गिर के नाश हो जाती है।2। मः ५ ॥ भोरे भोरे रूहड़े सेवेदे आलकु ॥ मुदति पई चिराणीआ फिरि कडू आवै रुति ॥३॥ {पन्ना 1095} पद्अर्थ: भोरे रूहड़े = हे भोली जिंदे! हे भोली रूह! आलकु = आलस। चिराणीआ मुदति = ढेर समय। कडू = कब? अर्थ: हे भोली रूह! परमात्मा को सिमरते हुए तू आलस करती है। लंबी मुद्दतों के बाद (ये मनुष्य जनम मिला है, अगर सिमरन से वंचित बीत गया) तो दोबारा (क्या पता है?) कब (मनुष्य जन्म की) ऋतु आए।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |