श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1096

पउड़ी ॥ तुधु रूपु न रेखिआ जाति तू वरना बाहरा ॥ ए माणस जाणहि दूरि तू वरतहि जाहरा ॥ तू सभि घट भोगहि आपि तुधु लेपु न लाहरा ॥ तू पुरखु अनंदी अनंत सभ जोति समाहरा ॥ तू सभ देवा महि देव बिधाते नरहरा ॥ किआ आराधे जिहवा इक तू अबिनासी अपरपरा ॥ जिसु मेलहि सतिगुरु आपि तिस के सभि कुल तरा ॥ सेवक सभि करदे सेव दरि नानकु जनु तेरा ॥५॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: रेखिआ = रेख, चिन्ह चक्र। वरन = वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र)। माणस = मनुष्य। ऐ = यह। जाहरा = प्रकट, प्रत्यक्ष। लेपु = असर, प्रभाव। न लाहरा = नहीं लगता। अनंदी = आनंद लेने वाला। समाहरा = समाई हुई है, व्यापक। बिधाते = हे सृजनहार! नरहरा = हे परमात्मा! अपरपरा = परे से परे। दरि = दर पर।

अर्थ: हे प्रभू! तेरा कोई (खास) रूप नहीं कोई चक्र-चिन्ह नहीं। तेरी कोई (विशेष) जाति नहीं, (ब्राहमण खत्री आदि) तेरा कोई (खास) वर्ण नहीं है। ये मनुष्य तुझे कहीं दूर जगह पर बसता समझते हैं, तू (तो) हर जगह मौजूद है, सब जीवों में व्यापक हो के पदार्थ भोग रहा है, (फिर भी) तुझे माया का असर छू नहीं सकता। तू सदा आनंद में रहने वाला है, बेअंत है, सबमें व्यापक है, सबमें तेरी ज्योति टिकी हुई है।

हे सृजनहार! हे परमात्मा! सारे देवताओं में तू स्वयं ही देवता (प्रकाश करने वाला) है। तू परे से परे है, तू नाश रहित है, मेरी एक जीभ तेरी आराधना करने के समर्थ नहीं है।

हे प्रभू! जिस मनुष्य को तू गुरू मिला देता है, उसकी सारी कुलों का उद्धार हो जाता है, तेरे सारे सेवक तेरी सेवा करते हैं, मैं तेरा दास नानक (भी तेरे ही) दर पर (पड़ा हूँ)।5।

डखणे मः ५ ॥ गहडड़ड़ा त्रिणि छाइआ गाफल जलिओहु भाहि ॥ जिना भाग मथाहड़ै तिन उसताद पनाहि ॥१॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: गहडड़ड़ा = (शरीर-) छप्पर। त्रिणि = तृण से, तीले से। छाइआ = बना हुआ। गाफल = गाफ़ल मनुष्य का। भाहि = आग में, तृष्णा अग्नि में। उसताद = गुरू। पनाहि = ओट, आसरा, सहारा।

अर्थ: गाफ़ल मनुष्य का घास से बना हुआ शरीर-छप्पर तृष्णा की आग में जल रहा है। जिन लोगों के माथे पर अच्छे भाग्य जागते हैं, उन्हें गुरू का सहारा मिल जाता है (और वे तृष्णा की आग से बच जाते हैं)।1।

मः ५ ॥ नानक पीठा पका साजिआ धरिआ आणि मउजूदु ॥ बाझहु सतिगुर आपणे बैठा झाकु दरूद ॥२॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: आणि = ला के। मउजूद = (खाने के लिए) तैयार। दरूद = दुआ, अरदास (मुसलमान ईद आदि पवित्र दिन अल्लाह नमिक्त अपने काज़ी को बढ़िया चोखा खाना पका के भेट करते हैं। काज़ी आ के पहले दरूद पढ़ता है, फिर वह खाना स्वीकार करता है। उसके बाद घर वालों को खाने को मिलता है। जब तक काज़ी नहीं आता, घर के बच्चे क्या बड़े क्या ताकते हैं इन्जार करते हैं। तैयार हुए खाने उनके सामने पड़े रहते हैं, पर उनको खाने की इज़ाज़त नहीं होती। इसी तरह जीव कई तरह के साधन करता रहे, पर गुरू की शरण पड़े बिना प्रभू की मेहर का दर नहीं खुलता)।

अर्थ: हे नानक! (नियाज़ आदि देने के लिए श्रद्धालु मुसलमान आटा) पिसा के पका के खाना सँवार के तैयार ला के रखता है, (पर जब तक पीर आ के) दुआ (ना पढ़े, वह) बैठा झाकता है। (जैसे मनुष्य अनेकों धार्मिक साधन करता है, पर) जब तक गुरू ना मिले मनुष्य रॅब की रहमत का बैठा इन्जार करता है।2।

मः ५ ॥ नानक भुसरीआ पकाईआ पाईआ थालै माहि ॥ जिनी गुरू मनाइआ रजि रजि सेई खाहि ॥३॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: भुसरी = गुड़ वाली रोटी, रोट, मंन, धरती पर पकाई हुई रोटी, (भु+श्रित) भु = भूमि, धरती। श्रित = employed, used। भूश्रित = धरती का आसरा ले के तैयार की हुई।

नोट: गरीब टपरी वास लोक ईट आदि व बब्बर आदि को तपा के ही रोटी पका लेते हैं।

रजि रजि = पेट भर भर के, स्वाद लगा लगा के।

अर्थ: हे नानक! (अगर कोई मनुष्य इतने ही गरीब हैं कि रसोई चौका आदि प्रयोग करने की जगह) धरती पर ही रोट पका लेते हैं और थाल में डाल लेते हैं, अगर उन्होंने (अपने) गुरू को खुश कर लिया है (अगर गुरू के बताए हुए राह पर चल के उन्होंने अपने गुरू की प्रसन्नता हासिल कर ली है) तो वह उन भुसरियों को धरती पर पकाई हुई रोटियों को ही स्वाद लगा के खाते हैं (भाव, गरीब मनुष्यों को गरीबी में ही सुखी जीवन अनुभव होता है अगर वे गुरू के रास्ते पर चल के गुरू की प्रसन्नता प्राप्त कर लेते हैं)।3।

पउड़ी ॥ तुधु जग महि खेलु रचाइआ विचि हउमै पाईआ ॥ एकु मंदरु पंच चोर हहि नित करहि बुरिआईआ ॥ दस नारी इकु पुरखु करि दसे सादि लुोभाईआ ॥ एनि माइआ मोहणी मोहीआ नित फिरहि भरमाईआ ॥ हाठा दोवै कीतीओ सिव सकति वरताईआ ॥ सिव अगै सकती हारिआ एवै हरि भाईआ ॥ इकि विचहु ही तुधु रखिआ जो सतसंगि मिलाईआ ॥ जल विचहु बि्मबु उठालिओ जल माहि समाईआ ॥६॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: विचि = (जीवों के) अंदर। मंदरु = मनुष्य शरीर। पंच चोर = कामादिक पाँचो। करहि = करते हैं। दर नारी = दस इन्द्रियां। पुरखु = मन। सादि = स्वाद में। ऐनि माइआ = इस माया ने। फिरहि = (दस नारी) फिरती हैं। हाठा = तरफें। सिव = जीव। सकति = माया। भाईआ = भाई, अच्छी लगी। इकि = कई जीव। बिंबु = बुलबुला।

अर्थ: हे प्रभू! तूने जीवों के अंदर अहंम डाल दिया है, (और इस तरह) जगत में एक तमाशा रच दिया है। यह मनुष्य शरीर एक है (इसमें) कामादिक पाँच चोर हैं जो सदा ही बुराई करते रहते हैं। (एक तरफ) मन अकेला है, (इसके साथ) दस इन्द्रियां हैं, ये दसों ही (माया के) स्वाद में फसी हुई हैं। इस मोहनी माया ने इनको मोहा हुआ है (इस वास्ते ये) सदा भटकती फिरती हैं।

(पर) ये दोनों तरफें तूने खुद ही बनाई हैं, जीवात्मा और माया की खेल तूने ही रची है। हे हरी! तुझे ऐसा ही अच्छा लगा है कि जीवात्मा माया के मुकाबले में हार रही है।

पर जिनको तूने सत्संग में जोड़ा है उनको तूने माया में से बचा लिया है (और अपने चरणों में लीन कर रखा है) जैसे पानी में से बुलबुला पैदा होता है और पानी में ही लीन हो जाता है (वह तेरे अंदर लीन हुए रहते हैं)।6।

डखणे मः ५ ॥ आगाहा कू त्राघि पिछा फेरि न मुहडड़ा ॥ नानक सिझि इवेहा वार बहुड़ि न होवी जनमड़ा ॥१॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: त्राघि = तमन्ना कर। पिछा = पीछे को। फेरि = फेरना, मोड़ना। मुहडड़ा = कंधा। सिझि = सफल हो। इवेहा वार = इसी बार, इसी जनम में। बहुड़ि = दोबारा, फिर। जनमड़ा = जन्म।

अर्थ: (हे भाई!) आगे बढ़ने की तमन्ना कर, पीछे को कंधा ना मोड़ (जीवन को और-और ऊँचा उठाने के लिए उद्यम कर, नीच ना होने दे)। हे नानक! इसी जन्म में कामयाब हो (जीवन-खेल जीत) ताकि दोबारा जन्म ना लेना पड़े।1।

मः ५ ॥ सजणु मैडा चाईआ हभ कही दा मितु ॥ हभे जाणनि आपणा कही न ठाहे चितु ॥२॥

पद्अर्थ: सजणु = मित्र, प्रभू। मैडा = मेरा। चाईआ = चाव वाला, प्यार भरे दिल वाला। हभ कही दा = हर किसी का। हभे = सारे जीव। जाणनि = जानते हैं। कही चितु = किसी का भी दिल। न ठाहे = नहीं गिराता, नहीं तोड़ता।

अर्थ: मेरा मित्र-प्रभू प्यार भरे दिल वाला है, हर किसी का मित्र है (हरेक के साथ प्यार करता है)। सारे ही जीव उस प्रभू को अपना (मित्र) मानते हैं, वह किसी का दिल नहीं तोड़ता।2।

मः ५ ॥ गुझड़ा लधमु लालु मथै ही परगटु थिआ ॥ सोई सुहावा थानु जिथै पिरीए नानक जी तू वुठिआ ॥३॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: गुझड़ा = (अंदर) छुपा हुआ। लधमु = मैंने ढूँढा, पाया। मथै = माथे पर। थिआ = हो गया। सुहावा = सुहावना। पिरीऐ जी = हे पिर जी! हे प्रभू पति जी! नानक = हे नानक! (कह)। वुठिआ = आ बसा।

अर्थ: (प्रभू-पति की मेहर हुई, तब वह प्रभू-) लाल मेरे अंदर छुपा हुआ ही मुझे मिल गया, (इसकी बरकति से) मेरे माथे पर प्रकाश हो गया (भाव, मेरा मन तन खिल उठा)। हे नानक! (कह-) हे प्रभू पति! जिस हृदय में तू आ बसता है, वह हृदय सुंदर हो जाता है।3।

पउड़ी ॥ जा तू मेरै वलि है ता किआ मुहछंदा ॥ तुधु सभु किछु मैनो सउपिआ जा तेरा बंदा ॥ लखमी तोटि न आवई खाइ खरचि रहंदा ॥ लख चउरासीह मेदनी सभ सेव करंदा ॥ एह वैरी मित्र सभि कीतिआ नह मंगहि मंदा ॥ लेखा कोइ न पुछई जा हरि बखसंदा ॥ अनंदु भइआ सुखु पाइआ मिलि गुर गोविंदा ॥ सभे काज सवारिऐ जा तुधु भावंदा ॥७॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: मेरै वलि = मेरी तरफ। मुहछंदा = मुथाजी। बंदा = सेवक। लखमी = लक्ष्मी, माया। तोटि = कमी। रहंदा = रखता। मेदनी = धरती। सभि = सारे। मंगहि = मांगते, चितवते। मिलि = मिल के। तुधु भावंदा = तुझे भाए।

अर्थ: हे प्रभू! जब तू मेरी सहायता में हो तो मुझे किसी और की मुथाजी नहीं रह जाती। जब मैं तेरा सेवक बनता हूँ, तब तू मुझे सब कुछ दे देता है। मुझे धन-पदार्थ की कोई कमी नहीं रहती मैं (तेरा यह नाम-धन) बाँटता हूँ और एकत्र भी करता हूँ। धरती के चौरासी लाख जीव ही मेरी सेवा करने लग जाते हैं। तू वैरियों को भी मेरे मित्र बना देता है, कोई भी मेरा बुरा नहीं चितवते।

हे हरी! जब तू मुझे बख्शने वाला हो, तो कोई भी मुझसे मेरे कर्मों का हिसाब नहीं पूछता, क्योंकि गोविंद-रूप गुरू को मिल के मेरे अंदर ठंड पड़ जाती है मुझे सुख प्राप्त हो जाता है। जब तेरी रज़ा हो, तो मेरे सारे काम सवर जाते हैं।7।

डखणे मः ५ ॥ डेखण कू मुसताकु मुखु किजेहा तउ धणी ॥ फिरदा कितै हालि जा डिठमु ता मनु ध्रापिआ ॥१॥ {पन्ना 1096}

पद्अर्थ: डेखण = देखने। कू = के लिए, वास्ते। मुसताकु = उतावला, चाहवान। किजेहा = किस जैसा? कैसा? कितै हालि = किस (बुरे) हाल में। जा = जब। डिठमु = मैंने देख लिया। ध्रापिआ = अघा गया।

अर्थ: हे (मेरे) मालिक! तेरा मुँह कैसा है? मैं तेरा मुख देखने के लिए बहुत चाहवान था, (माया-वश हो के) मैं किस बुरे हाल में भटकता फिरता हूँ, पर जब से तेरा मुंह मैंने देख लिया, तो मेरा मन (माया की ओर से) तृप्त हो गया।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh