श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ५ ॥ दुखीआ दरद घणे वेदन जाणे तू धणी ॥ जाणा लख भवे पिरी डिखंदो ता जीवसा ॥२॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: धणी = हे मालिक! वेदन = पीड़ा, दुख। भवे = चाहे। जाणा लख = मैं लाखों बार जानता होऊँ। पिरी डिखंदो = पति प्रभू को देखूँ। जीवसा = मैं जी सकती हूँ, मुझ में जान पड़ती है, मुझे सुख की सांस आती है।

अर्थ: (प्रभू के दर्शनों से वंचित) मैं दुखी हूँ, मेरे अंदर अनेकों पीड़ाएं हैं। हे पति! मेरे दिल की पीड़ा तू ही जानता है। पर चाहे मुझे लाख पता हो (कि तू मेरी वेदना जानता है, फिर भी) मुझे सुख की सांस तभी आती है जब मैं तेरे दर्शन करूँ।2।

मः ५ ॥ ढहदी जाइ करारि वहणि वहंदे मै डिठिआ ॥ सेई रहे अमाण जिना सतिगुरु भेटिआ ॥३॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: करारि = (संसार नदी का) किनारा। वहणि = बहाव में (नदी के)। वहंदे = बहते। सेई = वही लोग। अमाण = सही सलामत। भेटिआ = मिला।

अर्थ: (संसार नदी में विकारों ने ढाह लगाई हुई है गिराने पर जोर दिया हुआ है, नदी का) किनारा गिरता जा रहा है, (विकारों के) बहाव में अनेकों लोग मैंने (खुद) बहते हुए देखे हैं। वही सही-सलामत रहते हैं, जिनको सतिगुरू मिल जाता है।3।

पउड़ी ॥ जिसु जन तेरी भुख है तिसु दुखु न विआपै ॥ जिनि जनि गुरमुखि बुझिआ सु चहु कुंडी जापै ॥ जो नरु उस की सरणी परै तिसु क्मबहि पापै ॥ जनम जनम की मलु उतरै गुर धूड़ी नापै ॥ जिनि हरि भाणा मंनिआ तिसु सोगु न संतापै ॥ हरि जीउ तू सभना का मितु है सभि जाणहि आपै ॥ ऐसी सोभा जनै की जेवडु हरि परतापै ॥ सभ अंतरि जन वरताइआ हरि जन ते जापै ॥८॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: न विआपै = नहीं व्यापता। जिनि जनि = जिस जन ने। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। चहु कुंडी = चारों तरफ, सारे जगत में। जापै = प्रकट हो जाता है। तिसु कंबहि पापै = पाप उससे काँपते हैं, पाप उसके नजदीक नहीं फटकता। नापै = स्नान करता है। जिनि = जिस मनुष्य ने। न संतापै = दुख नहीं देता। सभि जाणहि आपै = सबको तू अपना समझता है। जन वरताइआ = सेवक की शोभा टिका दी। जन ते = सेवक से। जापै = पहचाना जाता है।

अर्थ: हे प्रभू! जिस मनुष्य को तेरे नाम की चाहत है उस मनुष्य को कोई दुख छू नहीं सकता। जिस सेवक ने गुरू की शरण पड़ कर तेरे साथ सांझ डाली है वह सारे जगत में प्रकट हो जाता है। (फिर) जो मनुष्य उस सेवक की शरण पड़ता है उसके नजदीक भी कोई पाप नहीं फटकते। गुरू के चरणों की धूड़ में स्नान करके उसकी कई जन्मों की (विकारों की) मैल उतर जाती है। जिस मनुष्य ने प्रभू की रजा को (मीठा करके) मान लिया है उसको कोई चिंता-फिक्र दुख नहीं दे सकता।

हे प्रभू जी! तू सारे जीवों का मित्र है, सारे जीवों को तू अपने समझता है।

प्रभू के सेवक की शोभा उतनी ही बड़ी हो जाती है जितना बड़ा प्रभू का अपना तेज-प्रताप है। प्रभू अपने सेवक की वडिआई सब जीवों के अंदर टिका देता है। प्रभू अपने सेवक से ही पहचाना जाता है।8।

डखणे मः ५ ॥ जिना पिछै हउ गई से मै पिछै भी रविआसु ॥ जिना की मै आसड़ी तिना महिजी आस ॥१॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: हउ = मैं। से भी = वह भी। मै पिछै = मेरे पीछे पीछे। रविआसु = चलते फिरते हैं (रम् = जाना)। आसड़ी = छोटी सी आसा। महिजी = मेरी।

अर्थ: (माया का अजीब प्रभाव है, सब माया की खातिर भटकते फिरते हैं, माया के लिए) जिन लोगों के पीछे मैं जाता हूँ (जिनकी मुथाजी मैं कर रहा हूँ, जब मैं उनकी ओर देखता हूँ, तब) वह भी मेरे पीछे-पीछे चलते फिरते हैं। जिनकी सहायता की मैं आस रखे फिरता हूँ, वह मुझसे आस बनाए बैठे हैं।1।

मः ५ ॥ गिली गिली रोडड़ी भउदी भवि भवि आइ ॥ जो बैठे से फाथिआ उबरे भाग मथाइ ॥२॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: गिली गिली = चिप चिप करती। रोडड़ी = गुड़ की रोड़ी। भउदी = मक्खी। भवि भवि = बार बार उड़ उड़ के। मथाइ = माथे पर।

अर्थ: चिप-चिप करती गुड़ की भेली पर मक्खी बार-बार उड़ के आ बैठती है (और आखिर गुड़ के साथ ही चिपक के वही मर जाती है, यही हाल है माया का,) जो जो लोग (माया के नजदीक हो-हो) उठते-बैठते हैं (इसके मोह में) फस जाते हैं, (सिर्फ) वही बचते हैं जिनके माथे के भाग्य (जागते हैं)।2।

मः ५ ॥ डिठा हभ मझाहि खाली कोइ न जाणीऐ ॥ तै सखी भाग मथाहि जिनी मेरा सजणु राविआ ॥३॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: हभ मझाहि = सब जीवों में। तै मथाहि = उनके ही माथे पर। राविआ = मिलाप का रस लिया है।

अर्थ: (ये आश्चर्यजनक खेल है कि जीव माया के मोह में फस जाते हैं। क्या इनके अंदर रॅब नहीं बसता, जो इन्हें बचा ले? परमात्मा को तो मैंने) हरेक के अंदर बसता देखा है, कोई भी जीव ऐसा नहीं जिसमें वह नहीं बसता। पर सिर्फ उन (सत्संगी) सहेलियों के माथे के भाग्य ही जागते हैं (और वही माया के प्रभाव से बचती हैं) जिन्होंने प्यारे मित्र-प्रभू के मिलाप का रस लिया है।3।

पउड़ी ॥ हउ ढाढी दरि गुण गावदा जे हरि प्रभ भावै ॥ प्रभु मेरा थिर थावरी होर आवै जावै ॥ सो मंगा दानु गुोसाईआ जितु भुख लहि जावै ॥ प्रभ जीउ देवहु दरसनु आपणा जितु ढाढी त्रिपतावै ॥ अरदासि सुणी दातारि प्रभि ढाढी कउ महलि बुलावै ॥ प्रभ देखदिआ दुख भुख गई ढाढी कउ मंगणु चिति न आवै ॥ सभे इछा पूरीआ लगि प्रभ कै पावै ॥ हउ निरगुणु ढाढी बखसिओनु प्रभि पुरखि वेदावै ॥९॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: हउ = मैं। दरि = दर पर। प्रभ भावै = प्रभू को अच्छा लगे। थावरी = टिकाने वाला, जिसका ठौर ठिकाना हो। जितु = जिससे। त्रिपतावै = तृप्त हो जाए। दातारि = दातार ने। प्रभि = प्रभू। महलि = महल में। पावै = पैरों पर। निरगुण = गुण हीन। बखसिओनु = उसने बख्श लिया। प्रभि पुरखि = प्रभू पुरख ने। वेदावै = निमाणे को।

अर्थ: अगर हरी प्रभू को अच्छा लगे (यदि प्रभू की रजा हो, मेहर हो) तो मैं ढाढी (उसके) दर पर (उसके) गुण गाता हूँ। मेरा प्रभू सदा-स्थिर ठिकाने वाला (सदा कायम) है, और (सृष्टि) पैदा होती मरती है। हे धरती के साई! मैं (तुझसे) वह दान माँगता हूँ जिससे मेरी (माया की) भूख दूर हो जाए। हे प्रभू जी! मुझे अपने दर्शन दो जिससे मैं ढाढी (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाऊँ।

दातार प्रभू ने (मेरी) अरदास सुन ली और (मुझ) ढाढी को अपने महल में बुला लिया (बुलाता है); प्रभू का दीदार करते ही मेरी (माया वाली) भूख व अन्य दुख दूर हो गए, मुझढाढी को ये चेते ही ना रहा कि मैं कुछ माँगू, प्रभू के चरणों में लग के मेरी सारी ही कामनाएं पूरी हो गई (मेरी कोई वासना ही ना रही)। उस प्रभू-पुरख ने मुझ निमाणे गुण-हीन ढाढी को बख्श लिया।9।

डखणे मः ५ ॥ जा छुटे ता खाकु तू सुंञी कंतु न जाणही ॥ दुरजन सेती नेहु तू कै गुणि हरि रंगु माणही ॥१॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: जा = जब। छुटे = (तेरा और प्राणों का संबंध) समाप्त हो जाएगा। सुंञी = सुंनी, सूनी, प्राण विहीन। न जाणही = नहीं जान सकेगी। दुरजन सेती = दुर्जनों के साथ, विकारों के साथ। कै गुणि = किस गुण से?

अर्थ: (हे मेरी काया!) जब (तेरा और इस आत्मा का संबंध) समाप्त हो जाएगा, तब तू मिट्टी हो जाएगी, (उस वक्त) प्राण के बगैर तू पति-प्रभू के साथ सांझ नहीं डाल सकेगी। (अब) तेरा प्यार विकारों से है, (बता!) तू किस गुण बरकति से हरी (के मिलाप) का आनंद ले सकती है?।1।

मः ५ ॥ नानक जिसु बिनु घड़ी न जीवणा विसरे सरै न बिंद ॥ तिसु सिउ किउ मन रूसीऐ जिसहि हमारी चिंद ॥२॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: न जीवणा = नहीं जी सकता, सुख की सांस नहीं आ सकती। न सरै = नहीं निभती, निर्वाह नहीं होता। मन = हे मन! चिंद = चिंता।

अर्थ: हे नानक! जिस (प्रभू की याद) के बिना एक घड़ी भी सुख की सांस नहीं आती (दुनिया के चिंता-फिक्र ही जान खा जाते हैं), जिसको विसारने से एक पल भर भी जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता, (फिर) हे मन! जिस प्रभू को (हर वक्त) हमारा फिक्र है, उससे रूठना ठीक नहीं है।2।

मः ५ ॥ रते रंगि पारब्रहम कै मनु तनु अति गुलालु ॥ नानक विणु नावै आलूदिआ जिती होरु खिआलु ॥३॥ {पन्ना 1097}

पद्अर्थ: कै रंगि = के रंग में। पारब्रहम = परम ज्योति प्रभू। अति गुलालु = गाढ़ा लाल। आलूदिआ = मलीन। जिती = जितना भी।

अर्थ: हे नानक! जो लोग परम ज्योति प्रभू (पारब्रहम) के प्यार में रंगे जाते हैं, उनका तन-मन (प्यार में) गाढ़ा लाल हो जाता है। (प्रभू के प्यार को घटाने वाला) जितना भी और और ध्यान है, वह प्रभू के नाम की याद से वंचित रखता है और (मन को) मैला करता है।3।

पवड़ी ॥ हरि जीउ जा तू मेरा मित्रु है ता किआ मै काड़ा ॥ जिनी ठगी जगु ठगिआ से तुधु मारि निवाड़ा ॥ गुरि भउजलु पारि लंघाइआ जिता पावाड़ा ॥ गुरमती सभि रस भोगदा वडा आखाड़ा ॥ सभि इंद्रीआ वसि करि दितीओ सतवंता साड़ा ॥ जितु लाईअनि तितै लगदीआ नह खिंजोताड़ा ॥ जो इछी सो फलु पाइदा गुरि अंदरि वाड़ा ॥ गुरु नानकु तुठा भाइरहु हरि वसदा नेड़ा ॥१०॥ {पन्ना 1097-1098}

पद्अर्थ: काढ़ा = धोखा, फिक्र। जिनी ठगी = जिन (कामादिक) ठगों ने। निवाड़ा = निवारे, भगा दिए। गुरि = गुरू से। भउजलु = संसार समुंद्र। जिता = जीत लिया। पावाड़ा = धंधे, जंजाल। सभि = सारे। सतवंता = ऊँचे आचरण वाला। साड़ा = हमारा। जितु = जिस तरफ। लाईअनि = लगाई जाती हैं। खिंजोताड़ा = खींचतान। इछी = मैं इच्छा करता हूँ। गुरि = गुरू ने। अंदरि वाड़ा = अंदर की ओर (मन को) पलटा दिया। भाइरहु = हे भाईयो!

अर्थ: हे हरी जी! जब तू मेरा मित्र है, तो मुझे कोई चिंता-फिकर नहीं रह सकता, (क्योंकि) जिन (कामादिक) ठगों ने जगत को ठग लिया है वह तूने (मेरे अंदर से) मार के भगा दिए हैं, गुरू के द्वारा तूने मुझे संसार-समुंद्र से पार लंघा दिया है, मैंने माया के जंजाल जीत लिए हैं। अब मैं गुरू के उपदेश पर चल के सारे रंग माणता हूँ, मैंने इस बड़े जगत-आखाड़े (को जीत लिया है)।

तू मेरा सतवंता साई (मेरे सिर ऊपर) है, तूने मेरी सारी इन्द्रियाँ मेरे काबू में कर दी हैं, अब इन्हें जिस तरफ लगाता हूँ उधर ही लगती हैं, कोई खींचतान नहीं (करतीं)। गुरू ने (मेरे मन को) अंदर की ओर पलटा दिया है, अब मैं जो कुछ इच्छा करता हूँ वही फल प्राप्त कर लेता हूँ।

हे भाईयो! मेरे ऊपर गुरू नानक प्रसन्न हो गया है, (उसकी मेहर से) मुझे प्रभू (अपने) नजदीक बसता दिखता है।10।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh