श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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डखणे मः ५ ॥ जा मूं आवहि चिति तू ता हभे सुख लहाउ ॥ नानक मन ही मंझि रंगावला पिरी तहिजा नाउ ॥१॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: मूं = मुझे। चिति = चिक्त में। मूं चिति = मेरे चिक्त में। लहाउ = मैं ले लेता हूँ, प्राप्त कर लेता हूँ। नानक = हे नानक! (कह-)। रंगावला = रंग पैदा करने वाला, रंगीला, रंग बिरंगा, सोहावना, प्यारा। पिरी = हे पिर! तहिजा = तेरा।

अर्थ: हे नानक! (कह-) हे पति-प्रभू! जब तू मेरे हृदय में आ बसता है, तो मुझे सारे सुख मिल जाते हैं, तेरा नाम मुझे अपने मन को मीठा प्यारा लगने लगता है (और सुख देता है)।1।

मः ५ ॥ कपड़ भोग विकार ए हभे ही छार ॥ खाकु लुोड़ेदा तंनि खे जो रते दीदार ॥२॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: कपड़ भोग = (सिर्फ) पहनने खाने। छार = राख। लुोड़ेदा = (असल शब्द 'लोड़ेंदा' है, यहाँ पढ़ना है 'लुड़ेदा') मुझे जरूरत है, मैं चाहता हूँ। तंनि खे = तिन की। खाकु = चरण धूड़।

अर्थ: (प्रभू की याद से टूट के निरे) खान-पान पहरावों (के पदार्थ) विकार (पैदा करते हैं। इसलिए असल में) ये सारे राख के समान हैं (बिल्कुल व्यर्थ हैं)। (तभी तो) मैं उन लोगों की चरण-धूल ढूँढता हूँ, जो प्रभू के दीदार में रंगे हुए हैं।2।

मः ५ ॥ किआ तकहि बिआ पास करि हीअड़े हिकु अधारु ॥ थीउ संतन की रेणु जितु लभी सुख दातारु ॥३॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: बिआ = दूसरे। पास = तरफ, आसरे। हीअड़े = हे मेरे हृदय! हे मेरी जिंदे! हिकु = एक। अधारु = आसरा। थीउ = हो जा। रेणु = चरण धूड़। जितु = जिससे।

अर्थ: हे मेरी जिंदे! (प्रभू को छोड़ के सुखों की खातिर) और-और आसरे क्यों ताकती है? केवल एक प्रभू को अपना आसरा बना। (और, उस प्रभू की प्राप्ति के वास्ते उसके) संत जनों के चरणों की धूड़ बन, जिसकी बरकति से सुखों के देने वाला सुखदाता प्रभू मिल जाए।3।

पउड़ी ॥ विणु करमा हरि जीउ न पाईऐ बिनु सतिगुर मनूआ न लगै ॥ धरमु धीरा कलि अंदरे इहु पापी मूलि न तगै ॥ अहि करु करे सु अहि करु पाए इक घड़ी मुहतु न लगै ॥ चारे जुग मै सोधिआ विणु संगति अहंकारु न भगै ॥ हउमै मूलि न छुटई विणु साधू सतसंगै ॥ तिचरु थाह न पावई जिचरु साहिब सिउ मन भंगै ॥ जिनि जनि गुरमुखि सेविआ तिसु घरि दीबाणु अभगै ॥ हरि किरपा ते सुखु पाइआ गुर सतिगुर चरणी लगै ॥११॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: करमा = बख्शिश, करम, कृपा। मनूआ = माया में फसा मन। धीरा = टिके रहने वाला। कलि = (भाव,) संसार। न तगै = (टिकाव में) नहीं निभ सकता। अहि = यह। करु = हाथ। थाह = गहराई। भंगै = कमी, दूरी। जिनि जनि = जिस जन ने। घरि = हृदय में। अभगै = नाश ना होने वाला।

अर्थ: प्रभू की मेहर के बिना प्रभू से मिलाप नहीं होता (प्रभू की मेहर से ही गुरू मिलता है, और) गुरू के बिना मनुष्य का माया-ग्रसित मन (प्रभू चरणों में) जुड़ता ही नहीं। संसार में धर्म ही सदा एक-रस रहता है, पर यह मन (जब तक) पापों में प्रवृक्त है बिल्कुल अडोलता में टिका नहीं रह सकता, (क्योंकि किए विकारों का मानसिक नतीजा निकलते) रक्ती भर समय नहीं लगता, जो कुछ ये हाथ करता है उसका फल यही हाथ पा लेता है।

(जब से दुनिया बनी है) चारों ही युगों के समय को विचार के मैंने देख लिया है कि मन का अहंकार संगति के बगैर दूर नहीं होता, गुरमुखों की संगति के बिना अहंकार बिल्कुल खत्म नहीं हो सकता। (जब तक मन में अहंकार है, तब तक मालिक प्रभू से दूरी है) जब तक मालिक प्रभू से दूरी है तब तक मनुष्य उसके गुणों की गहराई में टिक नहीं सकता।

जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का सिमरन किया है उसके हृदय में ही अविनाशी प्रभू का दरबार लग जाता है। प्रभू की मेहर से ही मनुष्य गुरू चरणों में जुड़ता है, और मेहर से ही आत्मिक सुख प्राप्त करता है।11।

डखणे मः ५ ॥ लोड़ीदो हभ जाइ सो मीरा मीरंन सिरि ॥ हठ मंझाहू सो धणी चउदो मुखि अलाइ ॥१॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: लोड़ीदो = मैं तलाश करता था। हभ जाइ = हभ जाय, हर जगह। सिरि = सिर पर। मीरंन सिरि मीरा = अमीरों से बड़ा अमीर, शाहों के ऊपर शाह। हठ = हृदय। मंझाहू = में, अंदर। धणी = मालिक। चउदो = मैं उचारता हॅूँ। मुखि = मुँह से। अलाहि = बोल के, उचार के।

अर्थ: वह मालिक प्रभू शाहों के सिर पर पातशाह है, मैं उसको (बाहर) हर जगह तलाशता फिरता था; पर अब जब मैं मुँह से उसके गुण उचारता हॅूँ, वह मुझे मेरे हृदय में ही दिखाई दे रहा है।1।

मः ५ ॥ माणिकू मोहि माउ डिंना धणी अपाहि ॥ हिआउ महिजा ठंढड़ा मुखहु सचु अलाइ ॥२॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: माउ = हे माँ! मोहि = मुझे। माणिकू = मोती। डिंना = दिया। आपहि = आप ही। धणी = मालिक। हिआउ = हृदय। मुखों = मुँह से। अलाइ = बोल के।

अर्थ: हे माँ! मालिक प्रभू ने स्वयं ही मुझे अपना नाम मोती दिया। (अब) मुँह से उस सदा-स्थिर प्रभू का नाम उचार-उचार के मेरा हृदय ठंडा-ठार हो गया है।2।

मः ५ ॥ मू थीआऊ सेज नैणा पिरी विछावणा ॥ जे डेखै हिक वार ता सुख कीमा हू बाहरे ॥३॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: मू = मैं, मेरा हृदय। थीआऊ = मैं बन गया हूँ। पिरी = प्रभू पति के लिए। डेखै = देखे। कीमाहू = कीमत से। कीमाहू बाहरे = कीमत से परे, अमूल्य, जिसका मूल्य ना पड़ सके।

अर्थ: मैंने अपने हृदय को प्रभू-पति (के बिराजने) के लिए सेज बना दी है, अपनी आँखों को (उस सेज का) बिछौना बनाया है। जब वह एक बार भी (मेरी ओर) देखता है, मुझे ऐसे सुख का अनुभव होता है जो अमूल्य है (जो किसी भी कीमत से नहीं मिल सकता)।3।

पउड़ी ॥ मनु लोचै हरि मिलण कउ किउ दरसनु पाईआ ॥ मै लख विड़ते साहिबा जे बिंद बुोलाईआ ॥ मै चारे कुंडा भालीआ तुधु जेवडु न साईआ ॥ मै दसिहु मारगु संतहो किउ प्रभू मिलाईआ ॥ मनु अरपिहु हउमै तजहु इतु पंथि जुलाईआ ॥ नित सेविहु साहिबु आपणा सतसंगि मिलाईआ ॥ सभे आसा पूरीआ गुर महलि बुलाईआ ॥ तुधु जेवडु होरु न सुझई मेरे मित्र गुोसाईआ ॥१२॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: पाईआ = पाऊँ। विड़ते = कमा लिए। साहिबा = हे साहिब! बुोलाईआ = (यहाँ पढ़ना है 'बुलाईआ') बुलाएं। बिंद = रक्ती भर। साईआ = हे साई! स्ंतहो = हे संत जनो! किउ = कैसे? इतु पंथि = इस रास्ते में। जुलाईआ = मैं चलूँ।

अर्थ: प्रभू को मिलने के लिए मेरा मन बहुत तरसता है (पर समझ नहीं आती कि) कैसे दर्शन करूँ। हे (मेरे) मालिक! अगर तू मुझे थोड़ी सी भी आवाज लगाए तो (मैं समझता हूँ कि) मैंने लाखों रुपए कमा लिए हैं। हे मेरे साई! मैंने चारों तरफ सारी सृष्टि खोज के देख लिया है कि तेरे जितना और कोई नहीं है।

हे संत जनो! (तुम ही) मुझे रास्ता बताओ कि मैं प्रभू को कैसे मिलूँ। (संतजन राह बताते हैं कि) मन (प्रभू को) भेटा करो अहंकार को दूर करो (और कहते हैं कि) मैं इस रास्ते पर चलूँ। (संत उपदेश देते हैं कि) सदा अपने मालिक प्रभू को याद करो (और कहते हैं कि) मैं सत्संग में मिलूँ। जब प्रभू की हजूरी में गुरू ने बुला लिया, तो सारी आशाएं पूरी हो जाएंगी।

हे मेरे मित्र! हे धरती के मालिक! मुझे तेरे जितना और कोई नहीं मिलता (तू मेहर कर, और दीदार दे)।12।

डखणे मः ५ ॥ मू थीआऊ तखतु पिरी महिंजे पातिसाह ॥ पाव मिलावे कोलि कवल जिवै बिगसावदो ॥१॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: मू = मैं, मेरा हृदय, मेरा अपना आप। महिंजे = मेरे। पिरी पातिसाह = हे मेरे पति! हे पातशाह! पव = पाँव, चरन। कोलि = नजदीक। मिलावे = छुआए। कवल जिवै = कमल जैसे फूल की तरह। बिगसावदो = मैं खिल उठता हूँ।

अर्थ: हे मेरे पति पातशाह! मैंने (तेरे बैठने के लिए) अपने हृदय में तख़्त बनाया है। जब तू अपने चरण मेरे हृदय-तख़्त पर स्पर्श करता है, मैं कमल के फूल की तरह खिल उठता हूँ।

मः ५ ॥ पिरीआ संदड़ी भुख मू लावण थी विथरा ॥ जाणु मिठाई इख बेई पीड़े ना हुटै ॥२॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: संदड़ी = की। पिरीआ संदड़ी भुख = प्यारे पति-प्रभू को मिलने की भूख (मिटाने के लिए)। थी विथरा = हो जाऊँ। मू = मैं, मेरा आपा भाव। लावण = लवणीय, नमकीन। जाणु = मैं जान लूँ, मैं बनना सीख लूँ। मिठाई इख = गन्ने की मिठास। बेई पीढ़े = बार बार पीढ़ने से। ना हुटै = ना खत्म हो।

अर्थ: प्यारे पति-प्रभू को मिलने की भूख मिटाने के लिए मेरा स्वै-भाव नमकीन बन जाए। मैं ऐसी गन्ने की मिठास बनना सीख लूँ कि (गन्ने को) बार-बार पीढ़ने से भी ना खत्म हो (भाव, मैं आपा-भाव मिटा दूँ, और स्वै न्यौछावर करते हुए कभी ना थकूँ, कभी ना तृप्त होऊँ)।2।

मः ५ ॥ ठगा नीहु मत्रोड़ि जाणु गंध्रबा नगरी ॥ सुख घटाऊ डूइ इसु पंधाणू घर घणे ॥३॥ {पन्ना 1098}

पद्अर्थ: ठगा नीहु = ठॅग का नेह, दुनिया का मोह। मत्रोड़ि = अच्छी तरह तोड़ दे। गंध्रबा नगरी = धूएं का पहाड़, छल। जाणु = समझ। डूइ = दो। सुख घटाऊ डूइ = दो घड़ियों का सुख (भोगने से)। पंधाणू = राही, पथिक (जीव)। घणे = अनेकों। घर = जूनियां।

अर्थ: (हे भाई!) दुनिया का मोह अच्छी तरह तोड़ दे, (इस दुनिया को) धूएं का पहाड़ समझ। (दुनिया का) दो घड़ियों का सुख (भोगने से) इस जीव-राही को अनेकों जूनियों (में भटकना पड़ता है)।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh